#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (38)
भेड़िए की दलील-3
यूरोप के लिए जो समस्या संस्कृत से परिचय के साथ पैदा हुई थी वही समस्या हत्तूसा के उत्खनन से दुबारा सामने आ गई। यूरोप की इज्जत फिर दाँव पर लग गई। पहली का निदान तलाशने में और उसे विश्वसनीय बनाने के लिए विलियम जोन्स ने अपनी जिन्दगी लगा दी थी, कि संस्कृत ईरान की भाषा थी गो अन्त में एक ऐसी गलती कर बैठे जिससे सारे किए कराए पर पानी फिर जाना था, परन्तु किसी भारतीय इतिहासकार ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया। राष्ट्रवादी कह कर तिरस्कृत किए जाने वाले इतिहासकारों ने भी नहीं। पश्चिमी इतिहासकारों का ध्यान गया होगा, पर इसका पता नहीं चलता। उनकी समस्या उस पर परदा डालने की थी । उन्हें विलियम जोन्स के लेखन में अपने काम का इतना ही लगा कि संस्कृत सहित यूरोप की प्रमुख भाषाएँ किसी इतर भाषा से निकली हैं, और संस्कृत बोलने वाले भारत में कहीं अन्यत्र से आए थे ।
रोज्नी ( Bedřich Hrozný) द्वारा हित्ती अभिलेखों का पाठ किए जाने के बाद सब कुछ उलट गया। दो बातें सामने आईं । पहली यह कि वह अभिजात वर्ग जिसने कुछ सौ वर्षों तक पश्चिम एशिया पर अपना आधिपत्य कायम किया था, वह कहीं बाहर से आया था, क्योंकि उससे पहले वहाँ असीरियाई प्रभुत्व था । इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे पश्चिम एशिया के मूल निवासी थे। दूसरी यह कि वे वैदिक देवों की पूजा करते थे। वेद की रचना भारत में हुई, इसके भौगोलिक साक्ष्य वेद में उपलब्ध थे। इस बात के भी साक्ष्य मिल रहे थे, कि वे पूरब से आए थे। पूरब में उनकी भाषा केवल भारत की हो सकती थी। मैक्स मूलर ने वेद की रचना के लिए जो तिथि निर्धारित की थी वह भी इस से खंडित होती थी। समस्या अधिक कठिन थी क्योंकि बेबीलोनिया में वे 1750 ई.पू. में सत्ता कायम कर चुके थे। यदि जिस मूल से यह निकली थी वह भारत में सिद्ध हो रहा था तो इसके साथ सारी पुरानी कहानियां बेकार हो जाती थीं। इस बार इज्जत बचाना असंभव था।
परंतु इरादा मजबूत हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। प्रमाण कुछ भी कहते रहें, उनकी मनचाही व्याख्या की जा सकती है। बार बार दुहरा कर उसे सचाई में बदला जा सकता है, भले हर कड़ी लचर हो। ऐसे पहलुओं की अनदेखी की जा सकती है जिनसे समस्या पैदा होती है। इनकी भाषा से प्रकट होता था कि यह मूल भारोपीय से सबसे पहले अलग हुई भाषा है। उस मूल भाषा से ही संस्कृत सहित दूसरी प्रमुख भारोपीय भाषाएं निकली लगती हैं। इसके बाद समस्या भाषावैज्ञानिक हो गई और यह जानते हुए भी कि वह भाषा कौन सी है, उस भाषा की खोज का नया नाटक आरंभ हो गया।
पाश्चात्य विद्वान यह जानते हुए भी कि पाणिनीय संस्कृत वैदिक से हजार डेढ़ हजार साल बाद में अस्तित्व में आई, वैदिक में उस तरह की कठोरता नहीं थी, जो पाणिनीय में पाई जाती है, बार बार केवल संस्कृत का नाम इसलिए लेते हैं कि यह सिद्ध कर सकें कि यह कभी किसी क्षेत्र की बोलचाल की भाषा नहीं रही हो सकती। इसलिए यह बाहर से आई थी।
इन वकीलों को विद्वान मानना ज्ञान और विज्ञान दोनों का उपहास है, जो यह जानते हुए भी कि संस्कृत के आंचलिक भेदों के कारण एक ही भाषा अपने ही प्रसार क्षेत्र में इतने रूप ले चुकी थी कि एक क्षेत्र की बात दूसरे मे नहीं समझी जाती थी। इससे निपटने के लिए दूर देश के लोग कुरु पांचाल मे आते थे। यदि बोल चाल की भाषा न होती तो यह समस्या कैसे पैदा होती। परन्तु यह न भुलाया जाना चाहिए कि एक विशाल क्षेत्र में संपर्क की भाषाएं अनेक स्थानीय बोली क्षेत्रों मे प्रचलित होती हैं और ये विशेष कार्य-व्यापार से जुड़े लोगों के बीच में ही व्यवहृत होती है। उदाहरण के लिए आज की हिंदी। जिस समस्या से बर्नार्ड शॉ ने चिंतित हो कर अंग्रेजी के एक मानक उच्चारण का अभियान चलाया था जिसकी उपज बीबीसी की अंग्रेजी है उसी चिंता से कातर होकर पाणिनि ने अपना व्याकरण तैयार किया था और उस व्याकरण में भी यह ध्वनित है कि किस क्षेत्र के लोग किस तरह के प्रयोग करते थे। यह दूसरी बात है कि इस व्याकरण को ब्राह्मणों ने अपनी संपदा बना लिया। इन विविध आंचलिक रूपों के पीछे वैदिक भाषा है जिसके बहुल प्रयोग उसके संपर्क भाषा के रूप में विशाल क्षेत्र में व्यवहृत होने का प्रमाण है।
यह सच है कि संस्कृत सहित भारोपीय परिवार में सम्मिलित भाषाएं उसी से निकली थी। पश्चिम एशिया में पहुंचने वालों की भाषा, उसी से निकली थी, और सचमुच बहुत पहले अलग होने वाली भाषा थी। भारतीय भाषाओं पर इतने लंबे समय तक काम करने वाले पंडितों को, यह राम कहानी मालूम थी, परंतु वे इसे छिपा कर ‘यह देखो, वह देखो, कुछ मत देखो, सब कुछ गड्ड मड्ड लगता हो तो हमारी नजर से देखो’ खेल खेलते रहे, और इसी को तुलनात्मक भाषा विज्ञान का नाम दे दिया। इसके जिस रूप से हम परिचित हैं, वह भी विज्ञान नहीं है, भूल भुलैया है। इसे जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना ही विज्ञान के हित में है। भाषा विज्ञान का रास्ता इस भूलभुलैया से बाहर निकलने के बाद आरंभ होता है।
वह आद्य-भारोपीय वैदिक बोलचाल की भाषा है। उसी का प्रसार उस तंत्र के द्वारा हुआ था जिसे हम हड़प्पा सभ्यता के व्यापक प्रसार के अवशेषों से कुछ अधूरे रूप में जानते हैं और भाषा के माध्यम से वह पूरा संजाल हमारी आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है।
हित्ती बोलियों को भारोपीय की भाषाओं में सबसे पुरानी सिद्ध करने का एक तर्क काकल्य (कंठ्य) ध्वनियों की इनमें उपस्थिति है जो किसी दूसरी भारोपीय शाखा में नहीं पाई जाती, परंतु जिन की संभावना की ओर सबसे पहले सास्यूर ने संकेत किया था । इसकी बारीकियों को मैं स्वयं नहीं समझ पाता, जैसे मैं प्रातिशाख्यों की उच्चारण की बारीकियों को नहीं समझ पाता। परंतु वैदिक के बोलचाल के रूप को भी मैं नहीं जानता।
जानता केवल यह हूं कि हित्ती किसानों की भाषा नहीं थी, वहां के अभिजात वर्ग की भाषा थी जो खेती की कला और विज्ञान से परिचित रहे भी हों तो वहाँ स्वयं खेती नहीं कर रहे थे। खेती करने वालों की भाषा अलग रही होगी। वह असीरियन रही होगी यह भी दावे से नहीं कहा जा सकता।
परन्तु जब यह जानते हुए कि आर्य भाषा भाषी वहाँ अधिक से अधिक 2000 ई.पू. में पहुँचे थे, एक ब्रिटिश पुरातत्वविद हेंफिल आदि के दल के द्वारा यह पता चलने पर कि 4500 ई.पू. से 600 ई.पू. के बीच कोई आक्रमण नहीं हुआ, सुझाते हैं कि आदि भारोपीय पश्चिम एशिया की भाषा थी और कृषि प्रौद्योगिकी के प्रसार के साथ भाषा का प्रसार हुआ और इस तरह यह बढ़ते हुए 4500 ई.पू. में भारत में पहुँची थी और इसको पश्चिमी संचार माध्यमों से प्रचारित देखता हूँ तब इसमें सन्देह नही रह जाता कि पश्चिमी देश अपनी दादागिरी कायम करने के लिए हर तरह के कुतर्क का सहारा ले सकते हैं और ज्ञान की किसी शाखा को नष्ट कर सकते है। मानविकी से जुड़ी उनकी किसी स्थापना पर भरोसा नहीं किया जा सकता।