Post – 2019-12-12

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (36)
भेड़िए की दलील

ताकतवर कभी गलत नहीं होता। सत्ता के सभी रूपों – प्रशासनिक, ज्ञान-शास्त्रीय और प्रचार-तांत्रिक – पर अधिकार उसे ऐसी शक्ति प्रदान करता है कि वह अपने गलत को भी सही सिद्ध कर सके। उससे टकराने वाला मारा जाएगा। इस डर से उसकी मूर्खता पर आप हँस भी नहीं सकते। जो उससे बा-मुलाहिजा बा-अदब कुछ पाना चाहते हैं वे उसके पागलपन के भीतर सलीका तलाश कर लेते हैं और आपके होकर भी उसके इशारे से पहले ही आप को विद्रोही सिद्ध करके आप का सिर उसे भेट करने को तैयार रहते हैं। आप के दुशमन से अधिक अपनों से डरना पड़ता है।

हम पहले के कुछ निष्कर्षों की याद दिलाने के बाद आगे बढ़ना चाहेंगे। पहली बात यह कि कस गण भारत के बहुत प्राचीन गणों में से एक हैं। कौसिक विश्वामित्र, इन्द्र की कौसिक संज्ञा, कस्यप ऋषि जिनको प्रजापति का विरुद प्राप्त है, कोसी, काेसी नदी काशी, कुशीनगर, कोसल, कुसुमी वन इत्यादि इनकी प्राचीनता और महत्व को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है।

इनकी प्रधानता पूर्वी उत्तर प्रदेश जिसके लिए पहले अवध का प्रयोग होता था, मे थी। दक्षिण कोशल में छत्तीसगढ़ क्षेत्र आता है जिससे यह अनुमान लगा सकते हैं कि अपने पूर्ववर्ती चरण पर ये भी आहार संचय और आखेट पर जीवित रहने वाले समुदाय थे। आज भी पूर्वोतर में कस/खस जन उसी अवस्था में हैं। कस ही वर्णविपर्यय से सक हो जाता है। इंद्र को इसीलिए कौसिक के अतिरिक्त है सक्र हैं(हमने दन्त्य स रखा आप उसे तालव्य कर सकते हैं)।

ये सूर्य के उपासक थे, इसलिए इनको सूर्यवंशी कहा जाता है। सूर्य की पहली संतान या सूर्योपासना का आरंभ करने वाले मनु विवस्वान हैं। इक्ष्वाकु, पृथु, रघु और राम, मनु की वंश-परंपरा में ही आते हैं।

मनु को इस बात का श्रेय दिया जाता है उन्होंने धरती को बछड़ा बनकर दुहा, अर्थात खेती का आरंभ किया। पृथु के विषय में यह कथा प्रचलित है कि उन्होंने धरती को समतल बनाया और यह विधान किया जो वन्य भूमि को समतल करके खेती के योग्य बनाता है वह भूमि उसके स्वामित्व में रहेगी -पृथोः अपि इमां पृथिवीं भार्या पूर्वविदो वुदुः । श्थीणु छेदस्य केदारं आहुः शल्यवतो मृगं। (पुरातन विषयों के जानकार यह जानते हैं कि पृथु ने ही य़रती को भरण पाषण का आधार बनाया और व्यवस्था दी कि जिस तरह शिकीर पर उस व्यक्ति का अधिकार होता है जिसके बाण से वह आहत हुआ है उसी तरह जो व्यक्ति जिस भूभाग झाड़-झंखाड़ से मुकत और समतल करके कृषि योग्य बनाएगा इस पर उसका ही अधिकार रहेगा। इस तरह भूस्वामित्व का आरंभ हुआ। वह जोतने वाले की नहीं है, उसकी है जिसने उसे अरण्य
से उर्वरा भूमि में बदला था।

राम कथा कृषि से संबंधित पहलू पर हम पहले विचार कर आए हैं और यह भी सुझा आए हैं कि सबसे पहले स्थाई खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश पश्चिमी बिहार के उत्तर के पहाड़ी क्षेत्र में आरंभ हुई और संख्या बढ़ने और नई उनकी आवश्यकता होने पर यह पहाड़ों से उतर कर नदियों के कछारों में उतरे।

इस दृष्टि से कुस गण को कृषि का आविष्कर्ता और प्रचारक माना जा सकता है, यद्यपि बहुत थोड़े समय में कुछ दूसरे गण भी इस इनमें शामिल हो गए। हमने पहले रघु की विजय यात्रा के संबंध में बेबीलोन पर शासन करने वाले कसों (कस्साइटों) का उल्लेख किया था। उनके विषय में टॉमस बरो का कथन भी इसकी पुष्टि करता है:
the Kassites themselves were invaders from the east, from Iranian plateau, and their language of which something is known has no connection with Aryan or Indo-European, nevertheless in a list of names of Gods with babylonian equivalents we find the sun god….Marut, (rendered En-urta). यदि आक्रमण स्थल मार्ग से हुआ तो वह ईरान को पार करके ही होगा ।

आप में से अधिकांश लोग पश्चिम एशिया में पहुंचने वाले संस्कृतभाषी गणों के विषय में जानते होंगे, फिर भी याद को ताजा करने के लिए यह विवरण जरूरी लगता है

ह्यगो विंकलर मे 1906 मे बोगजकुई का उत्खनन किया था। यह हित्ती राज्य की राजधानी हत्तूसा सिद्ध हुई। खुदाई में एक विशाल ग्रंथालय भी मिला, जिसमें कीलक लिपि में अंकित कई हजार पट्टियाँ थी। इनमें क्या लिखा हुआ है यह किसी को समझ में नहीं आया। इनका वाचन 1916 नें रोज़्नी ने किया। ये पुरानी असीरियाई भाषा में लिखी पट्टियाँ थीं। इस ग्रंथागार में अश्वपालन पर हित्ती भाषा में लिखी एक पुस्तक मिली। जिस व्यक्ति ने यह किताब लिखी उसका नाम किक्कुली था जो शाही अश्वपाल था। इसे मितन्नी बताया गया है। इसका कारण यह है अभियान के पूरे तंत्र को आर्यजन और आर्यभाषा (संस्कृत) की सीमा में रख कर, आक्रमण के रूप में समझने का प्रयास किया गया। व्यापारिक प्रसार की ओर ध्यान ही न दिया गया। हमें नाम से यह मुडारी लगता है।

यह एक नियम सा है कि किसी देश में प्रवेश करने वाले स्थानीय आबादी की तुलना में नगण्य होते हैं, इसलिए उनको स्थानीय भाषा सीखनी ही पड़ती है। अपनी भाषा का प्रयोग अपने सीमित दायरे में ही करते हैं, परंतु यदि वे दूसरों पर हावी होने स्थिति में हों उनकी भाषा के प्रभाव से स्थानीय भाषा का चरित्र बदलता है। तकनीकी शब्दावली के मामले में उसका वर्चस्व अवश्य बना रहता है।

इस किताब मे तकनीकी शब्द संस्कृत के हैं – ऐक वर्तन्न (एक वर्तन – एक फेरा), तेरा, पंज़, सत्त, नववर्तन्न)। विकारों के चलते बोल चाल की तीन भाषाएं लूवियन, लीसियन, पैलई अस्तित्व में आ चुकी थी।

हत्ती राजा का अपने पड़ोसी मित्रों से राग विराग चलता रहता था। झगड़ा निपटाने के लिए हत्ती राजा सुप्रिय और मितन्नी सातिवाज के बीच संधि पत्र लिखा गया था जिसमे मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्या का साक्ष्य दिया गया था। इस प्रसंग में नीचे के वाक्य पर ध्यान दें:
The names of the Mitanni aristocracy frequently are of Indo-Aryan origin, and their deities also show Indo-Aryan roots (Mitra, Varuna, Indra, Nasatya), though some think that they are more immediately related to the Kassites.

(मितन्नी अभिजात वर्ग के नाम प्रायः भारतीय आर्य भाषा के (अर्थात् शुद्ध भारतीय) हैं और उनके देवनामों से मित्र, वरुण, इन्द्र, नासत्या से भी यही प्रकट होता है, यद्यपि कुछ लोग यह मानते हैं कि उनका निकटतम संबंध कस्सियों से है।) यहाँ जिन व्यक्ति नामों का हवाला है वे हैं सुतर्न (सुतर्ण) पर्शस्तर (प्रशस्तर), सौश्शतर,(श्रवस्तर) अर्थदाम (ऋतधाम), अर्तसुमर (ऋतस्मर) ,तुश्रथ (त्वेषरथ), मतिवाज, अर्तम्न (ऋतमन्) ,बर्दश्व (भृहदश्व), बिर्मशुर (ब्रहमेशवर), पुरुश (पुरुः), शैमशुर (श्रेमेश्वर), सतवाज,

इस पेंच को समझना आसान नहीं है। मितन्नियाे की कसों से निकटता तो थी, सच कहें तो मितन्नी भी कश थे।
They (Kassites) were settled primarily in Mitanni kingdom, and where they are found outside, there, they in areas especially affected by Mitennis political and cultural expansion. The Aryans appear in Mitanni from 1500 BC as the ruling dynasty , which means that they must first have entered the country as conquerors among the kings of dynasty one has a name which can be interpreted as aryan Abirattas (Burrow, 28)

मितन्नी उनका अपना नाम न था। यह नाम उन्हें मिस्र के राजा ने दिया था क्योंकि वह मित्र देश की यात्रा पर गए थे, उनका एक नाम नहरीन (नेहरू) भी था, क्योंकि उन्होने अपनी राजधानी वासुकनि खाबुर की एक सहायिका धारा वसु के किनारे पर बनाई थी। परन्तु कस क्या भारतीय नहीं थे।

बेबीलोन के कस्सी अभिलेखों (1750-1170) में आर्य भाषा की छाप है परंतु भाषा पहले की कई भाषाओं की मिलावट तथा उपस्तर के प्रभाव से इतनी विकृत हो चुकी थी उसे अजीबो-गरीब भाषा (linguistic isolate) माना गया क्योंकि उसे न तो इंडो-आर्यन कहा जा सकता है, न सामी न इंडौ-यूरोपीय। फिर भी कस्सियों को भारतीय आर्य भाषा बोलने वाला ही सिद्ध किया जा सकता था। इसलिए यदि इस निकटता को देखते हुए मितन्नियो को कस/ कश माने तो कोई आपत्ति नहीं होगी। परंतु ऊपरी सुझाव में जिस सचाई से बचने की कोशिश की गई है, सीधी पहचान को मिटाने की कोशिश की गई है, उसके परिणाम कल देखेंगे।