#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (34)
नवजागरण की प्रतीक्षा
सच अधूरा नहीं होता, वह केवल होता है। सच का कोई भी घटक अपने आप में पूरा सच होता है। जहां उसे नष्ट कर दिया जाता है वहाँ भी वह यह व्यक्त करता है कि वह किसी समग्र का टूटा हुआ हिस्सा है। वह स्वतः प्रमाण होता है। उसे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। मूल रूप में इस बात की मांग करता है कि यदि उसे जानना है तो, उसके खोए हुए, बिखरे हुए, टूटे हुए, समग्र को खोजों, उससे मिलाओ, जोड़ो। जहां उसके अपने खंड मिलते हैं वहां एक दूसरे से इस तरह जुड़ जाते हैं कि उनको चिपकाने के लिए बीच में गोंद तक की भी जरूरत नहीं पड़ती। उनके बीच सुई तक घुसाने की फाँक नहीं बचती। सत्य आत्मदीप होता है।
प्रमाण की जरूरत झूठ के लिए होती है जिसके पास प्रमाणिकता का दावा होता है, दम नहीं होता। उन प्रमाणों के सिरे एक दूसरे से मेल नहीं खाते – अंतर्विरोधी होते हैं। कहावत है, झूठ के पांव नहीं होते। वह अपने दम पर खड़ा नहीं हो सकता। उसको टिकाए रखने के टेकों की जरूरत पड़ती है। वे टेक भी गढ़कर तैयार किए जाते हैं, इसलिए उनके भी पाँव नहीं होते, वे स्वयं भी टिक नहीं पाते, तनिक भी दबाव पड़ने पर लुढ़क जाते हैं और उन्ही के साथ वह वह पहला झूठ भी लुढ़क जाता है जिसे सहारा देने के लिए उसे गढ़ा गया था। इसलिए सहारा देने के लिए जिस झूठ को गढ़ा गया था उसे भी रुके रहने के लिए एक नए झूठ की जरूरत होती है। इस तरह झूठ को सच सिद्ध करने के लिए झूठ पर झूठ तैयार करने पड़ते हैं। इनकी ढेर लग जाती है, ढूह तैयार हो जाता है, परंतु वह किसी वास्तु का रूप नहीं ले पाता। सत्य के पिरामिड बनते हैं। झूठ का मलबा तैयार होता है और इसी को सच्चाई के ऊपर लाद कर एक ऐसा पहाड़ तैयार किया जाता है कि हम मलबे के उस पहाड़ को हटाने का साहस तक नहीं जुटा पाते। सोचते हैं कि मलबा हटाकर सत्य तक पहुंचने का रास्ता बनाया तो ऊपर का मलबा गिर कर हमें तो पीस देगा, पर सत्य सामने नहीं आ पाएगा। आत्मविश्वास की यह कमी भी उन्हीं के द्वारा पैदा की जाती है जो झूठ को सच और सच को झूठ सिद्ध करना चाहते हैं। जो लोग इसके बाद भी सच तक पहुँचने की ठानते हैं, उन्हें वे पागल करार देते हैं, बदनाम करते हैं, उनका उपहास करते हैं, उन्हें दंडित करते हैं। इसके विपरीत वे झूठ को स्वीकार कर लेने वालों को सम्मानित, पुरस्कृत और लाभान्वित करते हैं।
यही वह तरीका था, जिसका आविष्कार विलियम जोन्स ने किया था। इसके कारण सबसे पहले बंगाल के सुशिक्षित ब्राह्मणों ने यह सोचकर कि सत्ता के झूठ के सामने झुकना अधिक लाभकर है, इसे स्वीकार किया, इसके फायदे उठाए और एक आंतरिक उपनिवेशवाद आरंभ किया। इसे बंगाल पुनर्जागरण का नाम दिया गया। पुनर्जागरण के कुछ तत्व इसमें थे भी। पर क्या राजशक्ति का कारिंदा बन कर उसकी योजनाओं को क्रियान्वित करने और पुरस्कृत होने को नवजागरण कहा जा सकता है? जिसे बंगाल नवजागरण कहा जाता है, वह उपनिवेशवाद से अनुकूलित होकर, अपने लिए एक आंतरिक उपनिवेश कायम करने की कोशिश से आगे नहीं बढ़ पाया। बंगाल रेनेसां अपनी अंतर्वस्तु में अवसरवाद प्रतीत होता है। यह मेरा ख्याल है। इसकी गहराई से पड़ताल किए बिना कुछ कहने का अधिकार नहीं है, परंतु असंतुष्ट होने और अपनी आशंका प्रकट करने का अधिकार तो है ही।
इसका केवल एक उदाहरण देना चाहता हूं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह प्रस्ताव किसके द्वारा आया था, इसका भी सही हवाला नहीं दे सकता, परंतु आया था, और इसके अनुसार राष्ट्रीय ग्रंथागार की चार और शाखाएं खोलने की व्यवस्था की। इनमें से एक दिल्ली दूसरा मद्रास तीसरा मुंबई में खुलनी थी चौथे की मुझे याद नहीं। इसके अनुसार प्रकाशकों से यह अपेक्षा की गई थी कि वे जो भी पुस्तकें प्रकाशित करते हैं उनकी 5 प्रतियाँ इन पुस्तकालयों के लिए मुफ्त में भेजेंगे।
इसका विरोध करने वाले, सुनील कुमार चटर्जी थे। उनका तर्क था यदि राष्ट्र एक है तो पाँच राष्ट्रीय ग्रंथागार कैसे हो सकते हैं । जितनी अक्ल से ऐसे मामलों में अक्सर काम लिया जाता है , इस आपत्ति को स्वीकार करते हुए राष्ट्रीय ग्रंथागारों की योजना को समाप्त कर दिया गया। इस योजना को उन लोगों ने समाप्त किया, जो आगे चलकर इस देश में बहुत सारी राष्ट्रभाषाओं को स्वीकार करने जा रहे थे या कर चुके थे और हिंदी के लिए , जिसे राष्ट्रभाषा बनाने का अभियान स्वतंत्रता संग्राम का एक हिस्सा था, राज भाषा या राजकाज की भाषा का नाम चुना गया, और नाम ही रहने दिया गया। हर चंद कोशिश की गई कि राजकाज की भाषा भी न बनने पाए । इसके पीछे कौन लोग से, यह हमारे विचार की परिधि से बाहर है।
नवजागरण अपनी भाषाओं के माध्यम से आता है। ऐतिहासिक या भौगोलिक दृष्टि से दूर की कोई भाषा न नवजागरण की भाषा बन सकती है, न नए विचारों को उस पूरे समाज तक ले जा सकती है जो केवल अपनी मातृभाषा ही जानता है, और व्यापकतम साझेदारी के बिना नवजागरण नहीं आ सकता।
ऐतिहासिक या भौगोलिक दृष्टि से दूर (संस्कृत या अंग्रेजी) भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने के बाद संपन्न लोग इतना अधिक जाग जाएंगे कि अनिद्रा की बीमारी हो जाए, और बाकी समाज इस तरह सोया पड़ा रहेगा है कि उसकी आंख ही न खुले।
रामविलास जी ने, लगता है, बंगाली पुनर्जागरण की तर्ज पर ही हिंदी नवजागरण की अवधारणा पेश की। यह भी नवजागरण नहीं था। इसमें दिशा नहीं थी, सत्ता से मुक्ति की कामना मात्र थी। मुक्ति के बाद क्या? इसका खाका किसी के सामने नहीं था। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत स्वामी दयानंद थे, परंतु उन्हें भी अपने पाँव टिकाने की जमीन तलाशते हुए, जो वेद मिला, वह इतना पीछे था कि वहां अपने पाँव टिकाने पर आप सतह से नीचे चले जाते हैं।
इसलिए अनेक दबावों और आघातों के बीच बदलाव हुए, परंतु नवजागरण आने ही नहीं पाया। इसकी एक ही संभावना थी। एक ही अग्रदूत था। उसकी सही पहचान नहीं हो पाई। वह हिंदू था और उससे पहले भारतीय था, उसके सामने हिंदू मुस्लिम का भेद नहीं था। अकेला वह (गांधी) था जिनके सामने भविष्य का एक खाका था। स्वतंत्रता की सही समझ थी और उसके लिए एक ऐसी कार्ययोजना थी जिसके माध्यम से भारतीय समाज के अंतिम सिरे तक चेतना का विस्तार किया जा सकता था। परंतु, भारतीय नवजागरण का हाल यह कि वह सुविधाओं के लिए सत्ता में जगह बनाने के लिए जोगाड़ करने के लिए बनी हुई एक राष्ट्रीय संस्था के माध्यम से अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बाध्य हुआ जिसमें दूसरे सभी उनकी महिमा के आगे झुकने को तैयार थे, परंतु अंतर्मन से उनको समझने और उनके सुझाए रास्ते पर चलने को तैयार नहीं थे।
भारतीय मानसिकता की टोह लेने के लिए और कुछ छोटी-मोटी रियायतें देकर अपनी पकड़ मजबूत रखने के लिए कांग्रेस की स्थापना 1885 में की गई, गाँधी (1893 में) अफ्रीका पहुंचे थे और वहां पर उन्होंने स्वतंत्र रूप में एक ऐसा आंदोलन आरंभ किया जिसमें नवजागरण के सभी तत्व थे। परंतु, भारतीय नवजागरण का हाल यह कि देश आंतरिक विसंगतियों और विरोधों के चलते, औपनिवेशिकता से मुक्ति के एकमात्र लक्ष्य को पाने के लिए कई रास्ते अपनाता रहा। इनमें आवेश था, पर समझ का अभाव था। कांग्रेस स्वराज्य प्राप्ति का आंदोलन बन कर रह गई, सुराज का वाहक नहीं बन सकी। नवजागरण इस देश में हुआ ही नहीं। हम आज तक सोए पड़े हैं।
बौद्धिक नेतृत्व के लिए, हमें कल के उपनिवेशवादियों, और आज के वर्चस्ववादियों पर निर्भर रहना पड़ता है। सच कहें तो इस देश में ही नहीं, उपनिवेशवाद से मुक्त हुए सभी देशों में, यदि किसी आंदोलन की जरूरत है तो वह है नवजागरण का आंदोलन, परंतु उसकी नीव ही नदारद है। यह काम बौद्धिक वर्ग का होता है, जिसका अभाव है। अपनी प्रतिभा का सौदा करके उसका लाभ उठाने वाले बुद्धिजीवी वर्ग को जो सूचना के मामले में आगे होता है और चेतना के मामले में सबसे पिछड़ा होता है, हम बौद्धिक वर्ग समझ लेते हैं। चेतना ही न रही चढ़ि चित्त तो जो गति होनी वही गति है जी।