Post – 2019-12-07

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध(33)
आनुवंशिकी और भाषाविज्ञान

आनुवंशिकी की महिमा स्वीकार करते हुए भी, मैं अपने अध्ययन से भारतीय समाज रचना को जिस रूप में समझता हूं उससे यदि वह मेल न खाए तो उसे स्वीकार करने में संकोच होता है। इसके दो कारण हैं। एक तो आनुवंशिकी के अध्येताओं को एक सीमित नमूनों के विश्लेषण के आधार पर अपने निष्कर्ष निकालने होते हैं इनमें भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से पर्याप्त नमूने सुलभ नहीं हो सकते। भाषा विज्ञान समाज रचना को समझने में आनुवंशिकी के अध्ययनों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय प्रतीत होता है इसे समझने में पौराणिक वृत्त भी पूरक का काम करते दिखाई देते हैं। यह संतोष की बात है कि आनुवंशिकी के अध्ययनों से भी हमारी उन मान्यताओं की पुष्टि होती है जिन्हें हमने पहली बार 1973 में अपनी पुस्तक आर्य द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता में प्रकट किया था। उस समय तक पूरा चित्र मेरे सामने उतना साफ नहीं था जितना बाद के अध्ययनों से क्रमशः होता चला गया फिर भी यह सुझाया था कि भारत में असंख्य बोलियां बोली जाती थी और पारस्परिक संपर्क के चलते सभी में कतिपय समान लक्षणों का विकास हुआ था। सभी का रूप बदला । सामाजिक आर्थिक कारणों से इनमें कुछ का कुछ बडे़ क्षेत्रों में संपर्क के लिए व्यवहार होने लगा और इस क्रम में बहुत बड़े क्षेत्र में मानक भाषाओं का उदय हुआ जिनमें अलगाव के बाद भी बहुत गहरी साझेदारियाँ हैं।

भाषाओं में यह मेलजोल सामाजिक मेलजोल को प्रकट करता है। स्थायी बस्तियों बसाने से पहले उत्तर से दक्षिण तक ही नहीं किसी न किसी अनुपात में मध्यभारत से लेकर पश्चिम की ओर भूमध्य सागर तक एक विचरण क्षेत्र था। ब्राहुई पहाड़ियों के चरवाहे कुछ समय पहले तक मध्य एशिया से लेकर पश्चिमी पाकिस्तान के मैदानी भाग विचरण किया करते थे। आहार संग्रह के दिनों में यह विचरण क्षेत्र भूमध्य सागर तक पहुंचता था परंतु यह अपवाद था।

पर्वतीय बाधाओं के कारण केवल असाधारण स्थितियों में ही कोई जत्था अलग होकर दूर तक जाता था। इस तरह एक गहन संपर्क का क्षेत्र बनता था, और दूसरा शिथिल लेन देन का दायरा तैयार होता था। गहन संपर्क के भारत में 3 क्षेत्र थे। एक पूर्वी क्षेत्र था जिसका शिथिल संपर्क एक और को सुदूर दक्षिण पूर्व एशिया (न्यूगिनी) तक था। दूसरी ओर बर्मा से लेकर तिब्बत और चीन तक। इनमें जीवन यापन के दो आधार थे। एक मनुष्य से लेकर पशु तक का शिकार कर सकता था। दूसरा बागबानी और मछियारी के मामले में आगे था। सबसे प्रधान दो संपर्क क्षेत्र थे, जिनके लिए मद्रास इंडस्ट्री और सोन इंडस्ट्री का प्रयोग किया जाता रहा है। इनके औजारों में कुछ भिन्नता लक्ष्य की गई इन दोनों का संगम स्थल मध्य भारत था। दोनों के बीच दूसरों की अपेक्षा अधिक निकटता थी।

भारत की बोलियाँ में संपर्क के इन कसे और ढ़ीले धागों के कारण सामाजिक और भाषाई अंतः-संबंधों के कई तरह के दायरे बनते हैं। भाषा विज्ञान में आदान प्रदान के कुछ क्षेत्र मिलते हैं, जिनको समवाक क्षेत्र कहा जाता है। अर्थात इनमें भाषाएं अलग है, भिन्नता इतनी है कि उन्हें भाषा विज्ञानियों ने अलग अलग परिवारों का मान लिया। इसके बाद भी कुछ साझेदारियां ऐसी है जो इन सभी में देखने में आती हैं और इनकी विशेषता यह है कि ये परिवारों की सीमा तो लाँघ जाती हैं परंतु भारत की सीमा को नहीं लग पातीं। यहां हम भारत में अविभाजित भारत की बात कर रहे हैं जिसे दक्षिण एशिया जाने लगा है।

इसे लक्ष्य करते हुए इमेनो नाम के भाषा विज्ञानी ने भारत को एक-भाषाई-क्षेत्र (India as a Linguistic Area) घोषित किया था और भाषा परिवारों में विश्वास करने के कारण वह अपनी खोज को उसकी तार्किक परिणति पर नहीं पहुंचा सके थे।

हम कह सकते हैं कि भारत लगभग समान गुणसूत्रों वाला क्षेत्र है जिसमें आंतरिक भिन्नता पाई जा सकती हैं इसके बाद भी इन सब का एक संकुल बनता है जो किसी दूसरे से अलग है । और इसका आधार बहुत प्राचीन है।
अध्ययन और ज्ञान की दो शाखाएँ एक ही विषय पर निष्कर्षो पर नहीं पहुंच सकतीं। इसलिए मैं आनुवंशिकी के अध्ययन को विनम्रता पूर्वक स्वीकार करते हुए भी, अलग-अलग अध्ययनों में यदि अलग-अलग निष्कर्ष निकाले जाते हैं तो आनुवंशिकी के वे अध्येता मेरे लिए स्वीकार्य नहीं है जिनके निष्कर्ष भाषा के अपने निष्कर्षों से मेल नहीं खाते।

मुझसे एक गलती हो रही है। यह है भाषा को नृतत्व के निकट ले जाने की, जिससे नस्लवादी सिद्धांत पैदा होता है। परंतु हमारे भाषा वैज्ञानिक अध्ययन में भाषाओं के तत्व सभी में मिले दिखाई देते हैं इसलिए इसका सामाजिक संपर्क से संबंध होते हुए भी नस्ल से कोई संबंध नहीं है।

इस मामले में हमारे पुराण भी हमारी सहायता करते हैं जो यह बताते हैं कि देव और असुर एक ही प्रजापति की संतानें हैं, जिसका मेरे लिए अर्थ होता है कि वे एक ही जनजातीय पृष्ठभूमि से निकले हैं जिनमें सभी के तत्व सभी में विद्यमान हैं। एक ही आदि पुरुष की दो पत्नियों से उनका जन्म हुआ है। यहां पत्नियाँ जीववैज्ञानिक आशय में पत्नियाँ नहीं है बल्कि जीविका के दो रूपों से संबंध रखती हैं एक है कृषि उत्पादन, श्रम और उद्योग और दूसरा है प्रकृति पर निर्भरता और मौज-मस्ती।

सामाजिक मेल मिलाप कितना गहरा रहा है इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहेंगे। बहुत प्राचीन चरण पर जब अंकगणना आदिम अवस्था में थी, एक के लिए ओं का प्रयोग होता था जिसका अर्थ ‘आदि, सबसे छोटा।. आदि के लिए प्र का प्रयोग किसी दूसरी में होता था। किसी तीसरी मे इक का। इक ने एक का रूप लिया, पर क्रमांक में प्रतम > प्रथम आ जाता है। प्र का ही किसी बोली में पह था जो पहल और पहला बना। एक से इकला/ एकला बनना चाहिए था। बना भी, चलन में भी रहा पर आपसी संपर्क से पहला एकता दोनों प्रयोग में रहे, फिर पहला भारी पड़ा, पर एक का एकमात्र में अकेला ही बचा। अं- का फर्स्ट प्र से निकला है जो लातिन और अं. में भी प्री/प्रो रूपों में पहुँचा। ओं >ओन/ ऊन के रूपों मे ढल कर एक ओर त- ओन्र -एक हुआ ऊन के रूप में संस्कृत में ही छोटा, कम या एक कम के आशय में जारी रहा। यह ऊनविंशत, उन्नीस आदि में देखा जा सकता है। लातिन मे और उसके माध्यम से अंग्रेजी में भी ओन/ऊन, वन, ओनली तथा यूनिट में बचा रहा। नव के लिए सही ऊनदश होना चाहिए था, पर ऊन वर्णविपर्यय (अक्षरों के उलटफेर) से नव हो गया। चेतना में यह बना रहा कि पहले यह ओं हुआ करता था। ओंकार के प्र-णव कहने के पीछे यही तर्क काम करता दिखाई देता है।

अभी कुछ विचारणीय पहलू और हैं। तीन से लेकर दस तक की सभी संख्याओं का अर्थ (सबसे बड़ी/ ऊँची या अंतिम भी रहा है। क्योंकि उन चरणों पर उन-उन से बड़ी संख्या की अवधारणा न थी। कहते हैं संख्याओं का विकास उंगली के पोरों, उँगलियों की संख्या, फिर अंगूठे सहित एक हाथ की उँगलियों की संख्या, दोनों हाथ गलियों और फिर हाथ पैर सभी की गलियों की संख्या के क्रम में विकसित हुई। इसमें मामूली सुधार की आवश्यकता हो सकती है। परंतु नामकरण के लिए सही ध्वनि का निर्धारण आसान नहीं था। षट – सत – शत तो मात्र सकार के तालव्य और मूर्धन्य भेद पर आधारित हैं। अष्ट तो षट ष्+अ+ट के ष-कार के स्वर-व्यंजन विपर्यय से बना है। यही परिवर्तन सत के साथ करने से अस्त बनता है जिसका अर्थ है अन्त/ सबसे बड़ा। यह अँगूठा छोड़ दोनों हाथों की उँगलियों की संख्या। इसके बाद अंगूठे सहित दोनों हाथों की उँगलियों की सबसे बड़े अंक की संभावना दिखी. इसके लिए सत अर्थात शत से काम चलाया गया। पहले शत का अंकमान 10 था। विंशत, त्रिंशत आदि में बचा रह गया। परंतु जब इन अंकों के जोड़ तोड़ से सबसे बड़ी संख्या 100 हो गई तो उसी शत का 100 के लिए प्रयोग करना पड़ा और 10 के लिए वर्ण विपर्यय से तश> दश का प्रयोग आरंभ हुआ।
हम फिर तीन पर लौटें जो त्रय या त्रि नहीं ती और ती था। इसका सबसे बड़ी संख्या के लिए प्रयोग जारी रहा लगता है और इसने भी 10 के अंक मान के लिए कभी जगह बनाई थी। 60 के बाद दाशमिक आशय में इसका प्रयोग किया गया -षष्-टि, असी-ति, नव-ति, अंग्रेजी में तो यह 20 से लेकर 90 तक की गणना में जारी रहा, इसका अर्थ है कि मानक संपर्कभाषा में भी बोलचाल के स्तर पर का चलन था।
रोचक है तेलुगू का ओकटि – इसमें संस्कृत का एक तमिल (ओन्र) के प्रभाव में ओक हो गया है, और इसमें वही ‘-टी’ जुड़ गया
जो बांग्ला में लालित्य के लिए लगाया जाता है परंतु, जिसका अर्थ था सबसे बड़ा। और यह बड़प्पन संस्कृत के इति में भी बचा है। इत्यादि में इति अर्थात अंत या सबसे बड़ा और आदि अर्थात्, आरंभिक/ सबसे छोटा, दोनों का योग दिखाई देगा। भाषा का विकास गुणसूत्रों से उभरने वाले चित्र की पुष्टि तो करता ही है उसकी विकास रेखा को भी समझने में मददगार होता है जो कि आनुवंशिकी के आधार पर संभव नहीं होता। इससे भी भारत से यूरोप की दिशा में प्रसार की वैसी ही पुष्टि होती है जैसे गुणसूत्रों के प्रवाह से।