Post – 2019-12-06

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (32)
पुराण भाषा विज्ञान और पुरातत्व -2

सूचना और ज्ञान का कोई क्षेत्र भरोसे का नहीं – वह व्यक्ति हो, ग्रन्थ हो या शास्त्र (ज्ञान की शाखा); फिर भी कोई ऐसा नहीं जो सत्य तक पहुँचने में सहायक नहीं। यहाँ तक कि झूठ और अफवाह तक सत्य की कई दबी परतों को समझने में सहायक होते हैं। सचाई पर परदा डालना और उस परदे को ही सचाई के रूप में पेश करना एक कला है। सभी कलाएँ सत्य को छिपाती भी हैं और उसकी गहराइयों को समझने में सहायक भी होती हैं; साथ ही छिपाने के पीछे काम करने वाले इरादों और ताकतों की भी सच्चाई को उजागर करती हैं। जैसे अन्य कलाओं को समझने के लिए उनके कला-विधान को जानना जरूरी होता है उसी तरह झूठ की इस कला को भी उसके विधान को समझकर ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है।

हमारे अपने प्रसंग में विलियम जोंस ने एक झूठ को सचाई में बदलने का प्रयत्न किया। उसे विश्वसनीय बनाने के प्रयत्न में उस सचाई को ही नहीं प्रकट कर बैठे, अपितु एक ऐसे पक्ष पर भी प्रकाश डाल दिया जिस तक अन्य किसी स्रोत से पहुँचा ही नही जा सकता।

पूरे पश्चिमी जगत ने उस झूठ को सिर पर उठा लिया जिसे वह ठीक से गढ़ भी नहीं पाए थे । उनके अंतर्विरोध की ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया या ध्यान दिया भी तो उसे खतरनाक मानकर आगे कभी उसकी चर्चा ही नहीं की। कहावत है झूठ के पांव नहीं होते, इसलिए उसे खड़ा करने के लिए एक के बाद एक झूठों की मीनारें तैयार की जाती हैं। कुछ लोगों का ध्यान टेक के रूप में गढ़े हुए, नए झूठ के अंतर्विरोध की ओर जाता है और वे इसे मानने से इन्कार करते हैं तो, उनकी आवाज को दबा दिया जाता है। जो बातें असंभव प्रतीत होती हैं उनको चर्चा से बाहर कर दिया जाता है लेकिन कहानी नहीं बदली जाती।

हम ज्ञान की कुछ ही शाखाओं को आप्त मानते हैं। केवल कुछ ही नहीं, ज्ञान की सभी शाखाएँ आप्त होती हैं। स्वार्थी लोग, निजी या जातीय सरोकार से जुड़े हुए हों तो, उनकी आप्तता को नष्ट कर देते हैं। प्राचीन लोग इसे वाणी में पाप का प्रवेश कहते थे। पापियों के कारण कोई विधा, कोई अनुशासन, आप्त नहीं रह पाता; फिर भी उनमें से कुछ के आप्त होने की बात बार-बार की जाती है और कुछ को सिरे से अविश्वसनीय मान लिया जाता है। यहां हम उन्हीं की परीक्षा करेंगे।

पुरातत्व
पुरातत्व के क्षेत्र में आजीवन काम करने वालों को इसका पक्का भरोसा होता है कि पुरातत्व दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है। परंतु दूध का दूध पानी का पानी करने की जगह पानी इतना मिलाया जा सकता है कि दूध दूधिया पानी बनकर रह जाए। उनको भरोसा इस बात का होता है कि उनके सामने तो, टूटे-फूटे रूप में ही सही, पूरी संस्कृति उपस्थित है। समस्या वहां आती है जहां यह तय करना होता है यह संस्कृति किसकी है। आप की चीज को आपसे छीन कर कोई दूसरा व्यक्ति यह दावा तो कर ही सकता है कि यह आप की नहीं उसकी है। तय इससे होता है कि लाठी किसके हाथ में है। इस लाठी के बल पर ही पुरातत्व में जितना झूठ बोला गया है जितनी बातों को छुपाया गया है उतना अन्यत्र कहीं नहीं।

हड़प्पा की पूरी सभ्यता को पश्चिम के बहुत बड़े और ईमानदार कहे जाने वाले पुरातत्वविदों ने मिल कर इस तरह नष्ट किया कि केवल सभ्यता ही नष्ट नहीं की गई, पूरे समाज को धरती से मिटा दिया गया। सभ्यता का निर्माण करने वाले वालों के लिए यह सिद्ध करना मुश्किल हो गया कि यह सभ्यता उनकी ही है। उस कालावधि में हैवानियत की अवस्था में जीने वालों ने यह विश्वास दिलाने का सफल प्रयास किया कि अपने को सभ्य कहने वाले लोगों ने उस सभ्यता का निर्माण किया ही न होगा क्योंकि वे तो उनके घर से आए थे उनके जैसे ही हैवान थे। सभ्यता से नफरत करते थे। उन्होंने ही उस सभ्यता को जिसे वे अपनी मानते आए थे नष्ट किया था। अगला व्यंग्य यह कि उन सभ्यताद्रोही लोगों ने भारत में सभ्यता की आधारशिला रखी।

जिस शाखा में इतनी बेसिर पैर की बातें की जा सकती हों, क्या उसे पुराणों से अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है? अपराध पुरातात्विक वस्तुओं का नहीं है। अपराध वर्चस्व कामना से और औपनिवेशिक स्वार्थों से ग्रस्त समाज का है। जिस तरीके से संस्कृत भाषा और संस्कृत भाषियों को इस देश से उजाड़ कर अज्ञात देश में फेंक दिया गया था, उसी तरह इस सभ्यता को भी उन्होंने भारतवासियों से छीन कर अज्ञात लोगों के हवाले कर दिया जो कहां रहते थे, कब और क्यों आए थे, कैसे उस अवस्था तक पहुंचे थे, इसे कोई नहीं जानता था, न जान सकता था।

पुराण
पुराण तो अपने झूठ के लिए बदनाम हैं ही। उनमें पुरातत्व से कम बे सिर पैर की बातें तो हो ही नहीं सकती। उनमें अकेला एक आदमी, बिना किसी की सहायता के, शौर्य के लिए ही जाने जानेवाले क्षत्रियों का पूरी दुनिया से संहार कर देता है। एक बार पूरा संहार कर देने के बाद तो संहार करने को कुछ बचा ही नहीं रहना चाहिए, पर इक्कीस बार यही काम करता है, और आकाश के तारे गिनने वालों को इस गणित में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई देती। वचन मात्र से असंभव को संभव करने की शक्ति का दावा करने वालों ने ऐसी अनगिनत कहानियां पुराणों में भर रखी हैं और ज्ञानी से लेकर अज्ञानी तक इनमें विश्वास करता चला आया। जितनी असंभव बातें पुरातत्व में की जा सकती है उनसे अधिक पुराणों में की जा सकती है। लोग दोनों पर विश्वास भी करते रहे, यह हमारी बुद्धि का कमाल है।

परन्तु यदि हम पौराणिक वृत्तों के कला विधान से परिचित हैं तो उन हास्यास्पद अतिरंजित कहानियों के पीछे बौद्धमत के प्रभाव के कारण ब्राह्मणों की उपेक्षा का सत्य भी सामने आएगा जो इस दौर के सामाजिक इतिहास को समझने के लिए जरूरी है; यज्ञ मंत्र की प्रभावकारिता में सामाजिक विश्वास के उठ जाने के बाद, ब्राह्मण का शाप और आशीर्वाद – वाचि वीर्य द्विजानाम् – के प्रभाव की कहानियाँ गढ़ कर, इन्हें धर्म और पुण्य के काम बताते हुए लगातार दुहराते हुए समाज को सम्मोहित करके अपनी साख जमाई गई। बुद्ध को और बौद्धों और श्रमणों समाज की नजर में गिराने के लिए किस किस तरह की कहानियां रची जाती हैं, कैसी गालियां आविष्कार की जाती हैं, इसे हम पुराणों की गहराई में उतर कर ही समझ सकते हैं।

परंतु पुराण कथाएं केवल पुराणों में नहीं मिलतीं। ऋग्वेद में, संहिताओं में ब्राह्मणों और उपनिषदों में, यहां तक कि पंचतंत्र की कहानियों में, महाभारत में भी पौराणिक वृत्तांत बिखरे हुए हैं।

इनसे प्राचीनतम अवस्थाओं से लेकर बाद के विकास का जो सामाजिक इतिहास सामने आता है वह उनकी सहायता के बिना संभव ही नहीं है। कहें पुराण के झूठ का भी अपना सच है और उसके सही विवरणों का भी इतिहास है। जिस विवेक की आवश्यकता पुरातत्व की उपादान संस्कृति को समझने में होती है उसी की आवश्यकता पुराणों से इतिहास का सच बाहर लाने में होती है।

आनुवंशिकी
जर्मनों को अपने से नीचा दिखाने के लिए फ्रांसीसी विद्वानों ने उनके सिर की बनावट, आँखों और बालों के रंग आदि की तुलना करते हुए उन्हें संकर नस्ल का सिद्ध करने के लिए जिन फब्तियों का आरंभ किया उसका विकास नृतत्व में हुआ और भाषा विज्ञान से कुछ बाद में आरंभ हुआ यह अध्ययन उतनी ही तेजी से लोकप्रिय हुआ और इसकी शाखाएंँ प्रशाखाएँ पैदा हो गईं।

आगे चलकर इसने अधिक वैज्ञानिक आधार लेते हुए इसी नेआनुवंशिकी की नीव रखी, जिसे हाल के दिनों में इतनी विश्वसनीयता मिली है कि इनके आधार पर किसी व्यक्ति का हजारों साल पहले का इतिहास अर्थात उसका आनुवंशिक संबंध तैयार किया जा सकता है। जहां इस रूप में इसे चुनौती नहीं दी जा सकती, वहीं इतिहास और समाज रचना को समझने में इसका सीधा उल्टा एक समान इस्तेमाल किया जा सकता है। हेंफिल के दल ने व्यापक जांच करने के बाद (1991) नतीजा निकाला था कि 4500 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व के बीच न तो भारत से बाहर किसी बड़े पैमाने पर निर्गमन हुआ, न ही आगमन हुआ। इससे दो बातें एक साथ सिद्ध हुईं। पहली यह कि भारत पर आर्यों के आक्रमण की कहानी बकवास है। दूसरी, हड़प्पा सभ्यता का निर्माण तथाकथित आर्यों ने किया है।

इसके बाद 2001 और 2003 में आनुवंशिकी के 3 अध्ययनों को यह सिद्ध करने के लिए कि इनकी यात्रा पश्चिम से पूर्व की ओर हुई है और भारतीय आबादी में उनसे मिलते-जुलते कुछ भेदक गुण सूत्र मिलते हैं, विटजेल द्वारा दबे हुए स्वर में आर्यों के आक्रमण की दलील तलाश की गई। कुछ अध्ययनों से यह प्रमाणित हुआ कि भारत में आनुवंशिक आधार पर उत्तर और दक्षिण आर्य और द्रविड़ के बीच कोई भेद नहीं। हाल में राखीगढ़ी के अवशेषों के अध्ययन से एक दल ने यह नतीजा निकाला कि यह सभ्यता पूरी तरह भारतीय है, मध्येशिया से इसका कोई संबंध नहीं है। इस तरह के निष्कर्षों के पीछे कई तरह की सीमाएं होती है परंतु नितांत निजी में और व्यापक सामुदायिक निष्कर्षों के रूप में आनुवंशिकी का निष्कर्ष वही होता है जिसे दूसरे स्रोतों से सही पाया जाता है। अब तक का सबसे विश्वसनीय अध्ययन हमें Toomas Kivisild, Surinder S. Papiha, Siiri Rootsi, Jüri Parik, Katrin Kaldma, Maere Reidla, Sirle Laos, Mait Metspalu, Gerli Pielberg, Maarja Adojaan, Ene Metspalu, Sarabjit S. Mastana, Yiming Wang, Mukaddes Golge, Halil Demirtas, Eckart Schnakenberg, Gian Franco de Stefano, Tarekegn Geberhiwot, Mireille Claustres & Richard Villems के द्वारा 2000 में किया गया अध्ययन An Indian Ancestry: a Key for Understanding Human Diversity in Europe and Beyond प्रतीत होता है, जिसके निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं:

Summing up, we believe that there are now enough reasons not only to question a ‘recent Indo-Aryan invasion’ into India some 4000 BP, but alternatively to consider India as a part of the common gene pool ancestral to the diversity of human maternal lineages in Europe. Our results on Y-chromosomal diversity of various Indian populations support an early split between Indian and east of Indian paternal lineages, while on a surface, Indian (Sanskrit as well as Dravidic speakers) and European Y-chromosomal lineages are much closer than the corresponding mtDNA variants.