#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (10)
विलियम जोंस को ईरान में क्या मिला
विलियम जोंस ने अपने श्रोताओं को पक्का विश्वास दिलाते हुए कहा कि “फारसी के सैकड़ों नाम शुद्ध संस्कृत के हैं जिनमें उससे अधिक कोई परिवर्तन देखने में नहीं आता जो भारत की भाषाओं में या बोलचाल की जबान में पाए जाते हैं। फारसी के बहुत सारे आदेश वाक्य (बैठ, उठ, गा जैसे) संस्कृत की धातुएँ हैं और यहां तक कि मुख्य क्रिया के पद (आत्मने/परस्मै) और काल जिनसे आगे के नियम चलते हैं, संस्कृत के घिसे हुए रूप हैं, इसीलिए हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं पहलवी भाषा भारत की दूसरी बोलियों की तरह ब्राह्मणों की भाषा से निकली है, और इसके साथ ही मैं यह भी जोड़ दूं कि शुद्ध फारसी में अरबी का स्पर्श तक नहीं है।”
can assure you with , that hundreds of Parsi nouns are pure Sanscrit, with no other change than such as may be observed in the numerous bhashas, or vernacular dialects of India; that very many Persian imperatives are the roots of Sanscrit verbs; and that even the moods and tense of the Persian verb substantive, which is the model of the rest, a rededucible from Sanscrit by an easy and clear analogy; we may hence conclude, that Pahlavi was derived, like the various Indian dialects, from the language of the Brahmans; and I must add, that in pure Persian, I find no trace of any Arabian tongue…
“मैंने अपने मित्र बहमान से विचार विमर्श किया है और हम दोनों पूरे सोच विचार के बाद इस बात के कायल हैं कि जेंद ( अवेस्ता) संस्कृत से इससे भी अधिक गहरा लगाव रखती है और पहलवी अरबी से।”
I often conversed on them with my friend Bahman; and both of us were convinced, after full consideration, that the Zend bore strong resemblance to Sanscrit, and the Pahlavi to Arabic.
अपने साक्ष्य संकलन के क्रम में उन्होंने शब्दावलियों का अध्ययन किया था। एक अध्ययन फरहंगी जहाँगीरी का किया था, जिसके बाद उन्हें इस बात का पक्का विश्वास हो गया था की पहलवी खल्दी की एक बोली थी:
I had the patience to read the list of words from the Pazend in the appendix to the Farhangi Jahangiri: this examination gave me perfect conviction that the Pahlavi was a dialect of the Chaldaic.
उनके पक्के विश्वास पर हमारा विश्वास जम नहीं पाता। कसम खाने के करीब पहुंचने वाला यह अंदाज किसी गलत चीज को श्रोता के दिमाग में पक्का करने की एक कोशिश है, पढ़ने के बाद लगता है वह अपना मत जल्दबाजी में कायम कर रहे थे, जबकि अभी तक किसी सही निश्चय पर नहीं पहुंचे थे, क्योंकि इन मतों में कुछ असंगतिया हैं।
जब अवेस्ता की शब्दावली का अवलोकन किया तो उन्हें यह पाकर उसके 10 शब्दों में से 6 या 7 शुद्ध संस्कृत के थे, यहां तक कि उनकी रुपावली संस्कृत व्याकरण से निर्देशित थी, इतनी हैरानी हुई इसे बयान नहीं कर सकते। ….इसकी भाषा कम से कम संस्कृत की एक बोली थी, जो संभवतः प्राकृत के करीब थी या उन दूसरी बोलियो जैसी थी जिनके विषय में हम जानते हैं कि वे भारत में 2000 साल पहले बोली जाती थी।
But when I perused the Zend Glossary, I was inexpressibly surprised to find that six or seven words in ten were pure Sanscrit, and even some of their inflexions formed by rules of vyākaran… that the language of was at least a dialect of Sanscrit, approaching perhaps as nearly to it as Prācrit, or other popular idioms that we know to have been spoken in India two thousand years ago.
इससे वह यह नतीजा निकालते हैं कि फारस की सबसे पुरानी जिन दो भाषाओं का पता चलता है वह हैं खल्दी और संस्कृत और जब उनका बोलचाल में व्यवहार बंद हो गया तो पहलवी और जेंद ने ब्राह्मणों की भाषा का स्थान ले लिया:
From all these facts it is a necessary consequence that the oldest discoverable languages of Persia were Chāldaic and Sanscrit, and when they ceased to be vernacular, the Pahlavi and Zend were deduced from them respectively, and the Pārsi either from Zend or immediately from the dialect of the Brahmans…
ग्रहों-नक्षत्रों की उपासना पारस में एक बहुत ही अधिक जटिल धर्म से आई हुई है, जो इन भारतीय प्रदेशों में पाई जाती है क्योंकि मोहसन ने यकीन दिलाया था कि जरतुस्त से भिन्न हुसंग मत के मर्मज्ञ अनुयायी मानते हैं कि ईरान का, और पूरी दुनिया का, पहला शासक महबाद था (यह नाम विलियम जॉन्स को साफ साफ संस्कृत का लगता है), जिसने समाज को चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में बांटा था। उन्होंने उसे यह भी बताया था कि स्रष्टा ने मनुजों के बीच देवभाषा में लिखा एक ग्रंथ भी प्रसारित किया था जिसे यह मुसलमान लेखक अरबी नाम ‘दस्तूर’ या विधान नाम देता है, परंतु जिसके मूल नाम का जिक्र नही है और यह कि चौदह महबाद मानव बन कर विश्व प्रशासन के लिए पैदा हो चुके हैं या होंगे, इनका नाम भी वह नहीं बताता, जब कि हम जानते हैं कि हिन्दू चौदह मनुओं या देवपुत्रों की बात करते हैं जिन्होंने वे ही काम किए और उनमें से अंतिम के नाम एक स्मृति या देवी धर्मविधान भी है जिसे वे वेद के समकक्ष मानते हैं और जिसकी भाषा को वे देववाणी मानते हैं तो इस विषय में कोई सन्देह किया ही नहीं जा सकता कि यह भारत के ब्राह्मणों द्वारा रचे शुद्धतम और प्राचीनतम धर्म का पहला दूषित रूप है जो महबाद या मनु द्वारा लाया गया और इन क्षेत्रों में धार्मिक और नैतिक आचरण के मानक के रूप में प्रचलित रहा है:
But planetary worship in Persia seems only part of a far more complicated religion, which we find in these Indian provinces; for Mohsan assures us, that in the opinion of best informed Persians who professed faith of Husang, distinguished from that of Zeratusht, the first monarch of Iran, and of the whole earth, was Mahabad (a word apparently Sanscrit) who divided people into four orders, the religious, the military, the commercial, and the servile to which he assigned names unquestionably the same in their origin with those now applied to the four primary classes of the Hindus. They added that, he received from creator, and promulgated among men, a sacred book in heavenly language, to which the Mumselman author gives the Arabic title of Desatur, or Regulations, but the original name of which he has not mentioned; and that fourteen Mahabads had appeared or would appear in human shapes for the government of the . Now when we know that the Hindus believe in fourteen Menus, or celestial personages, with similar functions, the first of whom left a book of regulations otr divine ordinances, which they hold equal to Veda, and the language of which they believe to be that if the gods, we can hardly doubt that the first corruption of the purest and oldest religion, was the system of Indian theology invented by the Brahmans, and prevalent in these territories where the book of Mahabad or Menu is at this moment the standard of all religious and moral duties.
वह आगे लिखते हैं, “लगता है फारस के सिंहासन पर ईसा से आठ या नव सौ साल पहले कैउमर के आसीन होने के समय धर्म और प्रशासन दोनों ही क्षेत्रों मे भारी उथल-पुथल मची थी। संभवतः वह अपने से पहले के महबादवंशियों से भिन्न नस्ल का था जिसने एक नई धर्मप्रणाली का आरंभ किया जिसे उसने हुशंग का नाम दिया, जिस नाम से उसे आज जाना जाता है, परंतु यह आंशिक सुधार ही था क्योंकि उसने अपने पूर्ववर्तियों के झमेले वाले बहुदेववाद को तो हटा दिया परंतु महबाद के नियम-विधान को सूर्योपासना, अग्नि और ग्रहों में अंधविश्वास के साथ बचाए रखा और इसके कारण ही वे हिंदुओं के सौर और सांघिक मतों से मिलते जुलते हैं। इनमें से दूसरा बनारस में सर्वाधिक प्रचलित है, जहाँ अनेक अग्निहोत्र निरंतर प्रज्वलित रहते हैं।
The accession of Cayumars to the throne of Persia, in the eighth or ninth century before Christ, seems to have been accompanied by a considerable revolution both in government and religion: he was most probably of a different race from the Mahabadians who preceded him, and began perhaps a new system of national faith which Hushang, whose name it bears, completed; but the reformation was partial; for, while they rejected the complex polytheism of their predecessors, they retained the laws of Mahabad, with a superstitious veneration for the sun, the planets, and fire; thus resembling the Hindu sects called Sauras and Sangicas, the second of which is very numerous in Benares, where many agnihotras are continually blazing…