#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (8)
रंग-ओ बू गुलदान की बातें करें
गैब की, इलहाम की बातें करें
खुल्द में संस्किर्त मिलने से रही
आइए ईरान की बातें करें ।
विलियम जोंस ने अपना छठाँ व्याख्यान 10 फरवरी 1789 को दिया था। संस्कृत जैसी उत्कृष्ट भाषा के लिए जैसा उत्कृष्ट देश होना चाहिए वह तो भारत न था, न ही हो सकता था । भारत में तो पत्थर में भी कई जम जाती है, दिमाग में क्यों न जमेगी।
ऐसी भाषा बोलने वाले रूप रंग में जैसे बेजोड़ होने चाहिए, वैसे लोग तो भारत में थे ही नहीं। विलियम जोंस ने उस देश को इतने श्रम के बाद खोज ही निकाला, यह बात दूसरी है कि बिन खोजें, किनारे बैठे ही, उन्होंने उसे पा लिया था। केवल वह भाषा पानी थी जिसे सभी जननी भाषा मानते आ रहे थे। उसे भारत पहुँच कर ही पाया जा सकता था, अन्यथा रॉयल सोसाइ अपं के विषय में उनोे उदगार पढते तु पढ़तते हुए मुझे गीता के (यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवतन्ति अविपश्चतः) की याद आई पर मैं इसे नादानी नहीं, चालाकी मानता हूँ।
संस्कृत में दूसरे सभी गुण हैं, वह दूसरी भाषाओं से नियमित भी है, परंतु वह पूर्ण या अखोट भाषा नहीं है। इसी तरह हम कह सकते हैं कि ईरान का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है, उसके कुछ भाग काफी सुन्दर भी हैं, परन्तु वह विश्व का शिरोमणि औैर सर्वाधिक सुन्दर देश नहीं है। पाठकों और श्रोताओं को आवेग-विह्वल बना कर अपनी बात मनवाने के लिए आविष्ट भाषा का प्रयोग अधिक फलदायी होता है, अतः फारस को The most celebrated and most beautiful countries in the world होना ही था।
हम पहले कह आए हैं विलियम जोंस को फारसी भाषा का आधिकारिक ज्ञान था। उन्होंने फारसी का व्याकरण लिखा था। अरबी का भी पहले से ही सराहनीय स्तर का ज्ञान था, लेकिन ‘सही’ निर्णय पर पहुंचने के लिए, और उससे अधिक इसका दिखावा करने के लिए, उन्होंने यथासंभव सभी सुलभ स्रोतों का उपयोग करते हुए अपनी राय कायम की। वह उनका उल्लेख भी करते हैं, अपनी अन्य सीमाओं का भी उल्लेख करते हैं। अल्पज्ञता रहते हुए अपना निर्णय देने का अधिकार उन्होंने किन जानकारियों के बाद प्राप्त किया है, और उन्हें किस सीमा तक दूर कर सके इसे भी बताते हैं। जिन बातों का ज्ञान नहीं है उसको जानने का दावा नहीं करते गो, जिसका ज्ञान है उसकी सीमाओं को प्रकट करना जरूरी नहीं समझते। परंतु इतनी ईमानदारी भी बहुत कम लोगों में होती है।
फैसले की बात अलग है, उसकी अपरिहार्यताएँ उन्हें अपनी ही ज्ञान सीमा में जो सही था उसे गलत और जो असंभव था उसे संभव सिद्ध करने को बाध्य कर रही थीं। हम उन्हें उनकी ज्ञान सीमा में रखकर ही परखने का प्रयत्न कर सकते हैं।
फारसी भाषा का उन्हें ज्ञान था और इस अवधि में उन्होंने शाहनामा पढ़ लिया था। पहले भी उन्हें फारस के इतिहास के विषय में कुछ जानकारियां थीं, तो भी उसे और बढ़ाना और उसके बाद ही अपने निर्णय पर पहुंचना चाहते थे। इन स्रोतों में एक था कश्मीर के मोहसन नाम के एक व्यक्ति का फारस का यात्रा विवरण। परंतु ऐसी खोजबीन के पीछे सत्य अन्वेषण नहीं था , सत्य पर पर्दा डालने के लिए तिनकों का सहारा लेने का प्रयत्न था, ऐसा मुझे लगता है, आपको मेरे कहने से नहीं स्वयं, इस आख्यान से गुजर जाने के बाद, जो सही लगे उसे मानना चाहिए:
The rare and interesting tract on twelve religions called Dabistan, and composed by a Mohammedan traveller, a native of Cashmir, named Mohsan, but distinguished by the assumed name of FANI, or Perishable, begins with a wonderfully curious chapter on the religion of HUSHANG, which was long anterior to that of Zaratusht has continued to be secretly professed by many learned Persians even to the authors time.
यह कथन गलत नहीं है, गलत यह है कि अन्य किसी स्रोत के अभाव में ईरानी सभ्यता को भारत से प्राचीन सिद्ध करने के लिए यह हथियार काम का लगा।
उन्हें अवेस्ता और उसकी भाषा के विषय में और वह किस भाषा में लिखी गई है, इसके विषय में कोई जानकारी नहीं थी। उन्होंने बहमान नाम के एक पारसी विद्वान से प्राप्त सूचनाओं और उनके साथ विचार विमर्श से निकले निष्कर्षों का उपयोग किया है।
मोहसिन के अनुसार पहले पारसी सम्राट का नाम कैखुशरू था। हम इस नाम से परिचित नहीं है, इनकोअंग्रेजी की कृपा से Cyrus के रूप में जानते हैं।
The first Persian emperor, whose life and character they seem to have known with tolerable accuracy, was the great Cyrus , …Caikhosrau
परंतु यह भी स्वीकार करते हैं कि सासानी वंश से पहले के खरे इतिहास का कुछ भी बचा नहीं है।
…nothing remains of genuine Persian history before the dynasty of Sasan…
हम पूरी तरह इस बात का समर्थन करते हैं कि प्रामाणिक इतिहास से पहले का जो इतिहास है उसके विषय में किसी भी स्रोत से उपलब्ध सूचनाओं का विश्लेषण करते हुए विश्वसनीय इतिहास तैयार किया जा सकता है। और इससे पता चलता है कि:
a powerful monarchy had been established for ages in Iran before the accession of Cayumers; that it was called Mahabadian dynasty, … and that many princes, of whom seven or eight are only names in the Dabistan, and among them Mahbul or Mahabeli, had raised their empire to the zenith of human glory. If we can rely on this evidence (of Fani, BS), which to me appears unexceptionable, the Iranian monarchy must have been the oldest in the world; but it will remain dubious to which of the three stocks, the Hindu, Arabia, or Tartar the first king of Iran belonged; or whether they sprang from a fourth race distinct from any of the others…
परंतु इस पौराणिक इतिहास में भी महाबली की कहानी के जुड़ने के पीछे भारतीय आर्थिक विकास और पौराणिक सत्य के बीच एक प्रकाश रेखा दिखाई देती है जिसके आधार पर हमने यह निवेदन किया था कि सुमेर में किसी सभ्य देश से पहुंचने वाले नौचालक जिस पुराण कथा से संबंध रखते हैं उसका कई तरह का विवरण भारतीय पुराण साहित्य में मिलता है। यदि ईरान में पहुंचने वाले भारतीय थे, तो भाषा और धर्म को समझने में फारस की कहानियाँ भारतीय इतिहास की भी कुछ ग्रंथियों को सुलझा सकती हैं।