Post – 2019-10-10

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (7)
नाम में क्या रखा है

विलियम जोंस ने पांचवाँ व्याख्यान मध्य एशिया पर केंद्रित किया था। मैं चाहता था इस पर चर्चा से बचूँ क्योंकि विषय का अपेक्षा से अधिक विस्तार होता जा रहा है और मैं अपने केंद्रीय विषय से इसी अनुपात में दूर होता जा रहा हूं। परंतु इस भूभाग ने समय-समय पर समूचे सभ्य जगत को प्राकृतिक प्रकोप की तरह तहस-नहस किया है और क्योंकि इस क्षेत्र से आदिकाल से भारत की क्रिया प्रतिक्रिया चलती रही है, और भारतीय समाज रचना को इसने गहराई से प्रभावित किया है इसलिए इसके विषय में विलियम जोंस के विचारों से अवगत होना जरूरी लगता है।

जोंस ने इसके लिए तातारी का प्रयोग किया था और इस पर अपना व्याख्यान “on the Tartars”, 21 फरवरी 1788 को यह स्वीकार करते हुए दिया था कि देश या समाज के विषय में तब जक संतोषजनक लेखन नहीं हो सकता जब तक आपको उसकी भाषा की अच्छी ( उन्होंने परफेक्ट शब्द का प्रयोग किया है परंतु तात्पर्य अच्छी से ही है) जानकारी ना हो, और उन्हें इस क्षेत्र की किसी भी भाषा का ज्ञान नहीं है इसलिए वह इस पर बहुत झिझकते हुए ही अपनी बात रखना चाहते हैं (I enter with extreme diffidence on my subject because I have little knowledge of Tartarian dialAnd the gross committed by European writers on Asiatic Literature have long convince me that no Free free satisfactory account can be given of any nation with whose language we are not are not perfectly acquainted.)

साथ ही वह इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हैं कि वह जिन देशों की बात कर रहे हैं उनके लोग अपने को उस नाम से कभी नहीं पुकारते थे जिसे हम उनके लिए प्रयोग में लाते हैं ( that India, Persia, China and Japan are not the appellations those countries in the languages of the nations who inhabit them, so neither Scythia nor Tartary are names which the inhabitants of the country under our consideration have ever distinguished themselves)
वह तातारी के लिए सीथिया, तूरान आदि नामों को गिनाने के बाद यह कहते हैं कि अधिक उपयुक्त है प्लिनी द्वारा की गई यह पहचान (इसकी लंबाई के बाद बी इसे देना जरूरी है।
Tatari then, which contained according to Pliny, an innumerable multitude of nations, by whom the rest of the Asia and Europe has in different ages been over-run, is denominated, as various images have presented themselves to various fancies, the great hive of the northern swarms, the nursery of irresistible legions,a (इसकी लंबाई से न घबराएँ, nd, by a stronger metaphor, the foundry of human race; but Mr. Baily a wonderfully ingenious man, and a very lively writer, seems to have considered it as the cradle of our species, and to have supported an opinion that the whole ancient world was enlightened by the sciences brought from the most northern parts of Scythia particularly from Zenseia, or from the hyperborean regions: all the fables of old Greece, Italy, Persia, India derive from the north. and it must be owned that he maintains his paradox with acuteness and learning. Great learning and great acuteness , together with charms of most engaging style, were indeed necessary to render to render tolerable a system which places an earthly paradise, the garden of Hesperus, the islands of the Macares,the groves of Elysium, if not of Eden, the heaven of Indra, the Peristan, or the fairy-land, of the Persian poets, with its city of diamonds and its country of shadcom, so named from pleasure and love, not in any climate which the Climate which the commonsense of mankind considered as the seat of delight, but beyond the mouth of the Obey, in the frozen sea, in the region equalled only by that where the wild imagination of Dante led him to fix the worst of criminals, in a state of punishment after death. And of which he could not even in his imagination he could not, he says, even think of, without shivering.

यदि अन्य किसी कारण से नहीं तो इन पंक्तियों के कारण ही व्याख्यान का गंभीरता से पाठ किया जाना चाहिए था पर नहीं किया गया किया गया होता तो हमारी समझ में इतने भ्रम इतनी विचलन इतने अंतर्विरोध देखने में नहीं आते । यह दुखद है कि मैं इसका अनुवाद प्रस्तुत न कर सका। करता तो वे पाठक भी लाभान्वित होते जिन्हें अंग्रेजी समझने में कठिनाई होती है। परंतु मुझे विश्वास नहीं कि सांस्कृतिक संदर्भों से अपरिचित रहने के कारण, मैं इसका इतना विश्वसनीय अनुवाद कर पाता कि लेखक के विचारों की प्रस्तुति में किसी तरह की विचलन न आ सके।

विलियम जोंस के इस महावाक्यों के आशय प्रकट करते समय वाक्यांशों का भावानुवाद भी करेंगे। जो लोग यह मान न पाएं कि विलियम जोंस ने यही मंतव्य अपने उक्त व्याख्यान में मध्येशिया के विषय में यही मत प्रकट किए थे उन्हें मूल से मिला कर समझने में आसानी होगी कि हम अपनी ओर से कुछ जोड़ या घटा, किसी तरह की खींचतान नहीं कर रहे हैं।

सबसे बड़ी बात यह जो टिप्पणी विलियम जोंस ने बेली के विषय में की है वह अक्षरशः उन पर लागू होते है। यह है भाषा शैली और कौशल से असंभव को भी संभव सिद्ध कर देना।

जो दूसरा विचारणीय विषय है वह है यूरोपीय समाज के मन में गहरे बैठा हुआ मध्य एशिया के दरिंदों का भय। वे उनके नाम से कांपते रहे हैं, और वे यूरोपीय समाज रौंदते हुए उनके चरित्र को प्रभावित करते रहे । ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता जिसमें उन्होंने मध्य एशियाई दरिंदों को परास्त करके कोई कीर्तिमान स्थापित किया हो। इसके बाद भी, इस सचाई से अपनी प्रचार शक्ति से ध्यान विचलित करके, अपने को एक बहादुर कौम के रूप में पेश करते हुए, भारतीयों को भीरु रूप में चित्र करते हुए हीन भावना पैदा करने का प्रयत्न करते रहे जबकि भारतीय योद्धाओं ने अनेक बार इन्हें परास्त किया और अपनी आदर्श युद्ध नीति के कारण कई बार उनके छल छद्म से या आकस्मिक आक्रमण से परास्त भी हुआ।

एक तीसरी बात पराधीनता-जनित हीन-भावना का है जो स्वतंत्रचेता माने जाने वाले हमारे आधुनिक विद्वानों के मन में भी घर कर गया था, अन्यथा तिलक जैसा स्वाभिमानी व्यक्ति बेली के प्रभाव में आकर वैदिक जनों का मूल निवास उत्तरी ध्रुव न मानता और उसे सही सिद्ध करने के लिए भूगर्भ विज्ञानी काल सीमा में घुसकर तर्क वितर्क न करता।

इससे अधिक इस व्याख्यान का हमारे लिए कोई महत्व दिखाई नही देता।
प्रसंगवश याद दिला दें कि विलियम जोन्स अपने तर्क कौशल से असंभव को भी संभव बना सकते थे और मामूली कयास के बल पर कोई सिद्धांत गढ़ सकते थे। वह मानते थे कि चीनी और जापानी भी उसी परिवार की भाषाएँ थी जिसके कारण सातवाँ व्याख्यान चीनी पर दिया था। इसके बाद कहने को कुछ रह जाता है तो यह कि ऐसे व्यक्ति के दिमागी फितूर को भाषावैज्ञानिक सिद्धांत मान कर यदि यूरोप चला तो यह उसकी विवशता थी, हम इस विवशता में उस पर हुँकारी भरते रहे कि गुलामों के पास बहुत कम विकल्प होते हैं,परंतु स्वतंत्र भारत में इतिहास की व्याख्या की जिम्मेदारी जिन्होंने सँभाली उनका ध्यान इस ओर क्यों नही गया? एक ही उत्तर बचता है कि निरंतर आवृत्ति या कीर्तन से पैसिविटी पैदा होती है जिसमें हम आयत्त मान्यताओं की परिधि में सही बने रहने के दायरे में ही अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं।