#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (5)
खोज रहा हूँ, कहीं दीखता नहीं
विलियम जोन्स का चौथा वार्षिक व्याख्यान अरब जनों और उनकी भाषा पर 15 फरवरी 1787 को और पांचवाँ तातारी पर फरवरी 1788 को दिया गया था।
यदि उनकी समस्या उस मूल भूमि की तलाश थी जिससे संस्कृत भाषा का व्यवहार करने वाले उन देशों में पहुंचे जिनमें भाषागत समानताएं आज भी बहुत गहरी दिखाई देती हैं, तो अरब और तातार जनों और उनकी भाषा पर दो साल का मूल्यवान समय बर्बाद करने का और उसके बाद इस नतीजे पर पहुंचने का कि संस्कृत भाषा और उसे बोलने वाले इनमें से किसी से बाहर नहीं फैले, इतनी हास्यास्पद नाटकबाजी लगती है जो विलियम जोंस की व्यक्तिगत गरिमा के अनुरूप नहीं है। परंतु अपनी उद्भावना को यूरोपीय अंतश्चेतना में उतारने के लिए उन्हें अभिनय करना पड़ रहा था।
उनकी भूमिका सत्यान्वेषी की नहीं थी, क्योंकि जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, वह स्वयं जानते थे कि उनका प्रस्ताव गलत है। उनकी भूमिका एक मनोचिकित्सक की थी। वह जानते थे कि सचाई का सामना करने से उद्विग्न यूरोप को सत्य की नहीं, शामक(सिडेटिव) की जरूरत है, हिप्नॉटिक सजेशन की जरूरत है और सम्मोहित करने के लिए उसका विश्वास इस सीमा तक जीतना जरूरी है जिसमें वह तर्कवितर्क से मुक्त हो समर्पण की मनोदशा में आ जाए। यह काम केसरिया पहन कर साधू-संत का नाटक करने वाले करते रहते हैं और पढ़े लिखे से निरक्षर जनों को जिस सफलता से अपना अंधानुयायी बना लेते हैं, इस लीला से हम परिचित हैं इसलिए इसे समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
इसके लिए यह वागाडंबर अनुष्ठान का हिस्सा था। दो चार साल का समय इसके लिए कुछ नहीं था क्योंकि ऐसी पीड़ा का उपचार करने को कृत संकल्प थे कि इसके लिए अपना जीवन भी वलिदान कर सकते थे और एक तरह से किया भी।
वह इंग्लैंड से प्रस्थान करने के समय से ही जानते थे कि उन्हें क्या करना है औ किस तरह, क्या सिद्ध करना है। संस्कृत से वह उस समय तक भले अपरिचित थे, फारसी पर उनका इतना अच्छा अधिकार था 1771 में उन्जिहोंने अंग्रेजी में फारसी का व्याकरण प्रकाशित कराया था जो बाद में भी मुद्रित होता रहा। संस्कृत का सामना होने पर जिन सवालों ने मिशनरियों के भीतर खलबली मचाई थी उन सवालों का सामना करने से उनके जैसा विदग्ध बच ही नहीं सकता था इसलिए हल वह इंग्लैंड में रहते हुए ही तलाश कर चुके थे कि संस्कृत को भारत से उठा कर ईरान में फेकने से काम चल जाएगा। सिर्फ इसका दावा करने के लिए संस्कृत का कामचलाऊ ज्ञान जुटाना था। उसे जुटाने के बाद सर्वेक्षण के नाटक के पहले ही पटाक्षेप के साथ उन्होंने पौराणिक हनुमान की तरह संस्कृत को जड़मूल सहित भारत से उखाड़ लिया था, इसकी घोषणा भी कर दी थी, इस बात के लिए व्यग्र थे कि यह स्थापना ( तो इसे कहना न होगा, उच्छेदना अवश्य कहा जा सकता है) कि यह समाचार जल्द से जल्द यूरोप पहुँzचाया जाए। पीड़ाहरण के लिए उतनी ही काफी था।
जैसा कि हम कह आए हैं अपनी 5 महीने की लंबी समुद्री यात्रा के दौरान वह पूरी रूपरेखा तैयार करते रहे थे, परंतु संस्कृत ज्ञान के अभाव में यदि वह अपना दावा करते भी तो कोई सुनने को तैयार नहीं होता । संस्कृत का परिचयात्मक ज्ञान उन्होंने 2 साल के भीतर अर्जित कर लिया। आधिकारिक ज्ञान अंत तक न हुआ, न हो सकता था। उसके लिए जिन दो पंडितों पर वह निर्भर करते रहे उनके नाम बहुविदित है।
भारत को मूल भूमि के रूप में नकारने के साथ यदि उन्होंने लक्ष्य देश नाम ले लिया होता तो विश्वास का वही संकट संकट पैदा होता। इसलिए भारत के पश्चिम की सभी भाषाओं के ज्ञान और गहन छानबीन का प्रदर्शन करने के बाद ही लक्ष्य तक पहुंच सकते थे। इस बीच होने वाले विलंब से पैदा हुई बेताबी में लोग उनके निर्णय को मानने की मनोदशा में आ जाते। यही उन्होंने किया।
ध्यान दें कि चौथे व्याख्यान में अरबी भाषा और अरब जन पर विचार करने के बाद उससे सटे ईरानी क्षेत्र को छोड़कर दूसरे सिरे पर पहुंच जाते हैं और तातारी पर विचार करते है।
इतनी सारी भाषाओं के ज्ञान के बाद विलियम जोंस को यह तो पता था ही की संस्कृत और उसके प्रभाव में रूपांतरित भाषाओं की प्रकृति सामी भाषाओं से इतना भिन्न है कि एक दूसरे से शब्द भंडार ले सकती है परंतु इससे आगे किसी तरह का लेन देन संभव नहीं और यदि किसी सनक में इससे आगे बढ़कर कोई लेनदेन हुई तो दूसरी भाषा की प्रकृति नष्ट हो जाएगी।
विलियम जोन्स के बचाव में यह कहा जा सकता है तब तक भाषाओं के परिवार की बात नहीं की जाती थी। पर यह परिवारवाद उन्हीं के द्वारा आरंभ किया गया जिसे कुछ बाद में कई नामों से गुजरने के बाद indo-european या भारोपीय की संज्ञा मिली । स्वयं भाषा परिवारों के लिए विलियम जोंस ने नोआ की संतानों (सैम, हैम और जैफेट) के नाम से जोड़ते हुए , सेमिटिक, हैमिटिक और जैफेटिक (भारोपीय) की संज्ञा दी थी। इसलिए भले भारोपीय नाम से परिचित नहीं, परंतु इनमें इतनी गहरी भिन्नता तो मानते ही थे कि एक दूसरे से आनुवंशिक संबंध नहीं रख सकता। इसकी जानकारी पहले से थी, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता इस दौर के अध्ययन के बाद उन्हें इस सचाई का पता चला:
the Arabick, on the other hand, and all its sister dialects, abhor the composition of words, and invariably express very complex ideas by circumlocution; so that, if a compound word be found in any genuine language of the Arabian Peninsula, (zenmerdah for instance, which occurs in the Hamàsah) it may at once be pronounced an exotick.
अरब की ओर मुड़ने के समय तक उनको संस्कृत की जानकारी हो गई थी इसलिए उसकी प्रकृति से परिचित थे। ऊपर के वाक्यांश का ही पहले का हिस्सा निम्न प्रकार है:
… it is equally true and wonderful, that it bears not the least resemblance, either in words or the structure of them, to the Sanscrit, or great parent of the Indian dialects; of which dissimilarity I will mention two remarkable instances: the Sanscrit, like the Greek, Persian, and German, delights in compounds, but, in a much higher degree, and indeed to such excess, that I could produce words of more than twenty syllables, not formed ludicrously, like that by which the buffoon in ARISTOPHANES describes a feast, but with perfect seriousness, on the most solemn occasions, and in the most elegant works
और फिर
The derivatives in Sanscrit are considerably more numerous; but a farther comparison between the two languages is here unnecessary; since, in whatever light we view them, they seem totally distinct, and must have been invented by two different races of men.
उसके साथ ही धर्म और संस्कृति के मामले में इस्लाम से पहले के अरबी समाज के विषय में विद्वानों द्वारा मान्य भारतीय प्रभाव स्वीकार करने में अपनी झिझक के बावजूद उन्हे मानना पड़ता है:
We are also told, that a strong resemblance may be found between the religions of the pagan Arabs and the Hindus; but, though this may be true, yet an agreement in worshipping the sun and stars will not prove an affinity between the two nations: the power of God represented as female deities, the adoration of stones, and the name of the Idol WUDD, may lead us indeed to suspect, that some of the Hindu superstitions had sound their way into Arabia…