Post – 2019-10-07

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (4)

क्या आप उन घटनाओं से परिचित हैं जिनमें एक आदमी हाथ जोड़कर किसी व्यक्ति से लिफ्ट मांगता है, वह उसे लिफ्ट दे देता है और फिर गाड़ी लेकर चलता है तो पाता है उस आदमी ने उसकी कनपटी पर पिस्तौल की नोक लगा रखी है मालिक को धक्का देकर गाड़ी से नीचे गिरा देता है और गाड़ी पर कब्जा कर लेता है। यदि पता है तो यह भी पता होना चाहिए अंग्रेजों ने भारत पर इसी तरह कब्जा किया था।

क्या आपको किसी ऐसी घटना का पता है जिसमें फटेहाल अपना कुनबा ले कर किसी भव्य भवन में घुस आता है और फिर अपने लोगो से कहता है यह भवन इसका नहीं अब हमारा माना जाएगा।
कुनबे के लोग हैरान, ‘इसे मानेगा कौन?’
‘अपने पर भरोसा रखो। पहले तुम्हें मानना होगा तभी दूसरों से अपना दावा मनवा सकते हो। उसके अपने लोगों को विश्वास नहीं होता। वे जानते हैं भवन किसका है, ‘इस पर कब्जा जरूर हमारा है पर घर तो यह इसका तब से है जब से दुनिया बनी। उसके पास इसके कागजी सबूत हैं। वह मानने को तैयार ही न होगा।’
वह हँस कर कहता है, ‘यही तो समझाना चाहता हूँ कि भवन दुनिया बनने के बहुत बाद में बनने शुरू हुए इसलिए इसके कागजी सबूत नकली हैं। मुझे ऐसा लगता है कि जैसे हम बाहर से आए हैं उसी तरह कभी यह भी बाहर आया होगा।’
उनकी हैरानी कुछ कम होती है पर खत्म नहीं होती, वे उत्सुक हैं यह जानने को कि कहाँ से। ‘मैं अभी सोच कर बताता हूँ कहाँ से ।’ और कुछ देर तक सोचने का अभिनय करने के बाद वह कहता है, ‘लो, पता चल गया, इसका घर इस भवन के और हमारे घर के बीच कहीं रहा होगा। यही कारण है कि हमारी और इसकी जबान इतनी मिलती जुलती है।’
उनका आत्मविश्वास कुछ और बढ़ जाता है, फिर भी वे जानना चाहते हैं कि ठीक कहाँ से। और वह कहता है इसके लिए बीच के सभी घरों की छानबीन करनी होगी। वह घर तो बचा न होगा, खंडहर भी शायद ही मिले, जगह तलाश करनी होगी। धीरज रखो उसका भी पता लगा लूँगा।’

इस काल्पनिक कहानी के इतिहास से आप परिचित हो चुके हैं। यही एशियाटिक साेसायट की स्थापना से ले कर तीसरे व्याख्यान तक का इतिहास है।

इसे इस कहानी का रूप यह बताने के लिए किया कि यह शुरू से ही एक कूट योजना थी और कुचक्र को अमल में लाने के लिए अंग्रेजों को अपने समय के बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से सबसे ऊँची साख के व्यक्ति की सेवाएँ सुलभ हुईं । जो व्यक्ति निजी लाभ के लिए तनिक भी झुकने को तैयार नही हो सकता था वह अपनी कौम – और इस कौमियत में पूरे यूरोप के सभी देशों के लोग आते थे – को काले लोगों की संतान (दोगला और काला, बैस्टर्ड और निगर उनकी सबसे गंदी गालियाँ थीं ) या सुदूर अतीत में कभी उनके अधीन रहने की ग्लानि और हीनभावना तथा कंपनी की पहले से अपनाई गई योजना के साथ ही प्रशासनिक अपरिहार्यता के लिए स्वेच्छा से वह सब कुछ करने को तत्पर हुआ जिसे अपने लाभ के लिए करने को उसकी अंतरात्मा तैयार न होती।

भौतिक संपदा के मामले में कब्जा करने से काम चल जाता है परंतु सांस्कृतिक मामले में जोर नहीं चल पाता, ताकत के बल पर ग्लानि से मुक्ति नहीं पाई जाती। इसलिए विलियम जोंस के सामने चुनौतियाँ दुहरी थीं। सबसे बड़ी चुनौती स्वयं अपना खोया हुआ आत्मसम्मान और आत्मविश्वास पाना और इस नई व्याख्या को सही मानने की थी। एशियाटिक सासायटी के सभी सदस्य ऊँचे पदों पर आसीन अंगरेज ही थे। इसलिए पहले साल सोसायटी की स्थापना के बाद दूसरा व्याख्यान उनका मनोबल ऊँचा करने के लिए दिया गया था और अगले व्याख्यान में ही उन्होंने यह प्रतिपादित कर दिया था कि ग्लानि या शर्म की कोई बात नहीं, हमारी भाषाओं से भले लगता हो कि हमारी भाषाएँ संस्कृत से पैदा हुई हैं कि वे संस्कृत की पुत्रियाँ हैं, पर सचाई यह कि ये सभी किसी एक ही भाषा की संतानें हैं इसलिए छोटी और कालक्रम की दृष्टि से बाद की होती हुई भी ये परस्पर बहनें या संस्कृत से घट कर नहीं हैं। रही गोरे-काले की बात तो संस्कृत भारत की भाषा भी नहीं इसलिए इस ग्लानि से भी मुक्ति मिल गई। कहाँ की भाषा थी इसे जाँच कर देखा जाएगा।

इस प्रसंग में हम कुछ और तथ्यों की ओर संकेत करना चाहेंगे। पहला यह कि कंपनी ने 1586 में ही यह घोषित कर दिया था कि उसे भारत में एक विशाल और स्थायी राज कायम करना है, Already in 1686 the directors had declared their intention to establish … a large, well grounded, sure English dominion in India for all time to come. Case for India, Will Durant, 1930
इसलिए धूर्तता और बदकारी गवर्नर जनरलों की अपनी सनक के कारण नहीं योजना बना कर की जा रही थी।

दूसरे विलियम जोंस इस जातीय ग्लानि से मुक्ति का कोई उपाय तलाशने के लिए चार साल से भारत में पहुँचने की जुगत में लगे हुए थे परन्तु उनके स्वतंत्र विचारों के कारण जिनमें अमेरिकी नेताओं के ब्रिटिश संसद में अमेरिकी हिताें की रक्षा के लिए प्रतिनिधित्व की मांग के खुले समर्थन के कारण उनको यह अवसर नहीं मिल पा रहा था। वह उस बौद्धिक क्लब के सदस्य थे जिसके अध्यक्ष सैमुएल जॉन्सन (Dr. Johnson, was an English writer who made lasting contributions to English literature as a poet, playwright, essayist, moralist, literary critic, biographer, editor, and lexicographer. He was a devout Anglican. विकीपीडिया) थे, और वारेन हेस्टिंग्स से उनकी व्यक्तिगत सिफारिश पर नियुक्ति मिली थी।

तीसरी बात यह कि समस्या केवल भारत में काम करने वाले अंग्रेजों की आत्मग्लानि कम करने की नहीं थी, अकेले इंगलैंड की भी नहीं, पूरे यूरोप, समूची गोरी जाति की थी इसलिए उनको इतनी ही चिंता इनको प्रकाशित करा कर उनको भेजने की थी। अपने चौथे व्याख्यान या भाषा और जातीयता से जुड़े दूसरे व्याख्यान के अंत में उनके निम्न कथन पर ध्यान दें: In the mean time it shall be my care to superintend the publication of your transactions, in which, if the learned inEurope have not raised their expectations too high, they will not, I believe, be disappointed: इसलिए यह सोचने का पर्याप्त आधार है कि वह इसी दुखती रग का कोई न कोई हल निकालने का संकल्प लेकर आए थे। यदि आप जानना चाहते हैं कि पूरे यूरोप के विद्वान भारत की प्राचीन उपलब्धियों को नकारने के मामले में एकजुट क्यों थे तो इसका भी उत्तर इसी से मिल जाएगा।