Post – 2019-10-06

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (3)

कल मैं विलियम जोंस की कूट-योजना समझाने के लिए एक- दो और किश्तें लिखने की सोच रहा था तभी एक साथ दो विचार कौंधे। पहला यह कि मेरी नियमित पाठकों को किस बात की शिकायत हो सकती है कि मैं जिस विषय को लेता हूं उसके ‘अनावश्यक’ विस्तार में चला जाता हूं । चुटकुलों से लंबी चीज पढ़ने में उन्हें परेशानी होती है, अपने पेज पर भी वे अधिकांश समय चुटकुलेबाजी में ही बिताते हैं। उनके विचार सालों से एक ही धुरी पर घूमते रहते हैं। रूचि और जिज्ञासा का स्तर तक ऊपर नहीं उठता। जिस पिछड़े देश के पढ़े लिखे अपनी जिंदगी का इतना अधिक समय मखौल में बर्बाद करके खुश हो जाते हों, उसके दुर्भाग्य पर रोया भी नहीं जा सकता, हंसने का तो सवाल ही नहीं — सिर्फ ग्लानि अनुभव की जा सकती है क्ह म स्वाधीन होकर भी, स्वतंत्र होने की इच्छाशक्ति तक खो बैठे हैं, इसका बोध तक बाकी नहीं।

एक दूसरा विचार यह आया कि विलियम जोंस के जिस एक पैराग्राफ को हजारों बार दोहराया गया, उसकी पृष्ठभूमि क्या है, उसके आगे-पीछे
जोंस ने क्या लिखा, उस तीसरे व्याख्यान में जिसमें यह पैराग्राफ आया है उन्होंने और क्या कहा; एशियाटिक सोसाइटी के माध्यम से अपने भारत निवास के पूरे दौर में उन्होंने क्या किया और क्यों किया, इसका अध्ययन हमारे उन विद्वानों ने क्यों नहीं किया जिनको महान कहाने का इतना चस्का है कि इसके बिना वे अपना नाम तक पहचान नहीं पाते उन्होंने यदि संस्कृत का विधिवत अध्ययन नहीं किया तो उस भाषा में उपलब्ध सामग्री का भी गहराई से अध्ययन क्यों नहीं किया जिससे प्राचीन इतिहास की सभी समस्याएं आरंभ होती हैं। शायद दरिद्रता के बीच ही महान लोग — महाकवि, महान चिंतक, महान इतिहासकार, महान निठल्ले — पैदा होते हैं।

इन्होंने अंग्रेजी के माध्यम से भी क्या पढ़ा, जो पढ़ा उसे कितना समझा, इस पर उदाहरणों के बिना बात नहीं की जा सकती, इसलिए अन्यमनष्क भाव से ही सही, अपने कथन को स्पष्ट करने के लिए यह अप्रिय विकल्प चुनना ही पड़ेगा।

इस अप्रिय प्रसंग के दो पक्ष हैं। एक संघ और भाजपा से जुड़ाव रखने वाले उद्दंड लोगों की प्रतिक्रिया का जिसके कारण इन दोनों संगठनों की छवि खराब होती है या यदि खराब ना होती तो यह संगठन सचमुच अपनी बनावट और बनावट में खराब है इसका लाभ हमेशा उन्हें मिलता है जिनकी झवि ये बिगाड़ना चाहते है। इनकी भाषा, प्रतिक्रिया का रूप, इतना अशोभन होता है कि कोई भी सुसंस्कृत व्यक्ति इनके प्रति सहानुभूति तक नहीं रख सकता। यदि संघ और भाजपा की भीतरी सोच भी ऐसी ही नहीं है, तो उनसे जुड़ाव रखने वाले सुलझे लोगों को उनकी भर्त्सना करते हुए इस प्रवृत्ति को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा मेरे देखने में नहीं आया।

दूसरा पक्ष योग्यता के अभाव सें नारेबाजी और विज्ञापन के बल पर अपनी महिमा का प्रबंधन और विपणन करने वालों का है जिनके प्रतिनिधि के रूप में रोमिला थापर से जुड़े ताजे विवाद के कारण रोमिला थापर का नाम आ गया। उन्होंने कभी कोई व्याख्यान दिया था जिसमें एक संभावना की ओर संकेत किया था, कि शांति पर्व में युधिष्ठिर के द्वारा युद्ध में पूरे कुल के नाश के बाद जो पश्चाताप प्रकट किया गया है, वह कलिंग युद्ध के बाद अशोक द्वारा व्यक्त किए गए अनुताप की नकल हो सकता हा।

यह इतिहास नहीं है, एक कविता है जिसमें प्रमाण के अभाव में सतही साम्य देखकर एक उद्भावना की गई है, हो सकता है और नहीं भी हो सकता है के बीच बीच। अशोक के किस अभिलेख में दर्ज है यह मुझे नहीं मालूम।

रोमिला जी का लेखन कविताओं से हुआ है और इसी के कारण किसी नई खोज के बिना ही उन्होंने देश देशांतर में धूम मचाई है। चर्चा में आने के लिए वह ऐसी बातें बड़े सलीके से कह लेती हैं जिनसे विवाद पैदा हो, लोग उत्तेजित हों, और जिसे यदि सही नहीं ठहराया जा सके तो वाहियात भी न सिद्ध किया जा सके। उनका यह कथन भी इसी श्रेणी में आता है।

उनके इस वक्तव्य का फुटेज किसी अनपढ़ दक्षिणपंथी के हाथ लग गया जिसे यह पता तो था युधिष्ठिर नाम का एक चरित्र महाभारत में, यह भी पता था की महाभारत की घटना उससे बहुत पहले घटित हुई थी, परंतु यह पता नहीं था कि महाभारत में कितनी बार कितनी तरह की मिलावट की गई, शांति पर्व महाभारत का हिस्सा नहीं है, उसे ज्ञानकोश बनाने की लालसा में पहले की रचनाओं से उन विषयों से संबंधित जानकारी को सबसे बाद में इसी में प्रक्षिप्त किया गया था। उसके हाथ यह बटेर उस समय लगा जब रोमिला जी से पिछले साल किए गए एक निर्णय के अनुसार विश्वविद्यालय यह जानना चाहता था एमेरिटस प्रोफेसर के रूप में सुविधाएं लेने वाली प्रोफेसर का इस दौरान ज्ञान, शोध और शिक्षण के स्तर पर योगदान क्या है।

रोमिला जी के उस फुटेज पर जितनी सतही और अभद्र भाषा में फब्तियां कसते हुए लोग आपत्तियाँ करते रहे वह ठीक इस मौके पर रोमिला जी के काम आया। इससे आगे अपने शब्दों में कुछ कहने की जगह मैं जिस अंग्रेजी के समाचार पत्र को पढ़ता हूँ उसकी कुछ कतरनों को प्रस्तुत करना चाहूंगा:

एक – Sep 3, 2019 – JNU’s pettifoggery over Romila Thapar’s fitness to remain professor emerita makes its administration a laughing stock. … English; Today’s Paper · ePaper … by calling for the CV of Romila Thapar, professor emerita, premier historian of ancient …. who has been vocally critical of its functioning in recent years.

दो- On the JNU row, historian Romila Thapar said the university is only trying to “dishonour someone who has been critical of the changes that have been introduced by the present administration”. (Written by Yashee |Edited by Explained Desk |New Delhi |
Updated: September 3, 2019 4:59:52 pm)

तीन-To target Romila Thapar is to target a new way of asking questions and writing history
The truth is that, regardless of the governments in power, universities need academic freedom to flourish, they need fresh air.
Written by Vijay Singh |

Updated: October 1, 2019 10:41:09 am
Before heading back to Paris, I decided to visit Romila Thapar who had been in the news for the insidious interrogation of her status as professor emerita at JNU. … The immediate context for referring to this principle was our conversation about the spate of ill-informed and foul comments she has been receiving, and how far their writers could be from the debating siddhanta of ancient India. I was outraged to hear about such language, insulting as they were to one of our most eminent intellectuals in the world.
When I reached Paris, I reached out to Charles Malamoud, an honorary professor of history at L’Ecole of Hautes Etudes en Sciences Sociales and a very respected historian of ancient India. It was Malamoud who first translated DD Kosambi’s work into French. “I was outraged to hear about Romila being asked for her CV,” he fumed. “It’s an act of hostility against independent science, against Romila and all that she represents…”
The conversation with Malamoud led me to speak to Gérard Fussman, the renowned Sanskrit scholar and professor emeritus at the Collège de France…
Fussman, who has worked closely with Indian scholars on historical and archaeological projects, wondered if people seeking Thapar’s credentials realised what her contribution to Indian history, and to India, has been. “She is an excellent historian — and much more. She is a towering intellectual in India and abroad. And her greatest contribution is to have Indianised Indian history.”
यहां, अभी मैं केवल इतना ही कहूंगा की फ्रांस में रहने वाला यह नाटककार लौटने के बाद विद्वानों से मिलकर केवल एक ही बात की शिकायत करता रहा, इसके पीछे रोमिला थापर का सुझाव रहा हो सकता है क्योंकि इसका मुझेअनुभव है।

शिक्षा और संस्कृति के मामले में मुझे भाजपा सरकार से भारी शिकायतें हैं, परंतु जिस तरह इसने फर्जी विश्वविद्यालयों को खारिज किया और एमेरिटस की सुविधाएँ भोग रहे प्रोफेसरों से उनकी करनी का हिसाब माँगा वह सर्वथा उचित है। निकम्मे लोग ही इससे परिचित कराने की जगह बवाल मचा सकते हैं। यह अपेक्षा दूसरे अनेक से की गई थी। जिसने ऐयाशी की थी उसे बवाल मचाना पड़ा, जिन्होंने काम किया था उनकी हुंकारी भी सुनने को न मिली।