#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (2)
गुलाम आजाद लोगों से कम शक्तिशाली, कम समझदार, कम बहादुर नहीं होता। वह आलसी होता है, ऐयाश होता है। वह कुछ खोना नहीं चाहता, किसी चीज की कीमत नहीं देना चाहता, वह अल्पतम श्रम से अधिकतम पाना चाहता है।
हम गुलाम हुए नहीं, हमारे बीच, हमारा नेतृत्व करने वाले स्वयं भी किसी तरह का खतरा उठाना नहीं चाहते थे, कोई शारीरिक श्रम नहीं करना चाहते थे, और हर तरह की सुविधा और सुख भोगना चाहते थे। इसे प्रतिष्ठा का मानदंड बनाकर, समाज में प्रतिष्ठित रहने की शर्त बना दिया था। त्याग और उदारता के पाखंड के भीतर उन्होंने इस सचाई को छिपाने का प्रयत्न किया था कि जिस अभाव को वे त्याग कहते हैं, उसे पूरा करने के लिए श्रम और अध्यवसाय कभी किया ही नहीं। अक्लेशेन शरीरस्य कुर्यात धन संचयम्, कहने वाला किसके श्रम से अर्जित धन का संचय करना चाहता था?
मेरे पाठकों और प्रशंसकों में ब्राह्मण और क्षत्रियों की संख्या अधिक है। जब मैं अपने समाज के प्राचीन बौद्धिक नेतृत्व की आलोचना करता हूं तो मेरे लेख को पसंद करने वालों की संख्या घट जाती है। मन में यह विचार आता होगा कि मैं किन्हीं कारणों से ब्राह्मणो से क्षुब्ध होने के कारण इस तरह सोचता हूं। बरनवाल जी ने यही विचार मेरे उपन्यास अपने-अपने राम पर आयोजित एक गोष्ठी में न व्यक्त किए होते तो मेरा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं कि कोई मेरे बारे में ऐसा भी सोचता होगा।
कौन, कहां, किस स्रोत की सूचना के आधार पर आपके बारे में क्या सोच रहा है, इसे जानने का कोई उपाय नहीं। परंतु यहां मैं केवल यह याद दिलाना चाहता हूं कि बिना कुछ किए पाने वालों ने इस देश में गुलामी की मानसिकता तब भी फैला कर रखी थी जब हम कहने को आजाद थे पर हमारे अपने ही समाज के वे लोग जो इस देश को समृद्ध करने के लिए उत्पादन से जुड़े हुए थे आजाद न थे।
हमने ऊपर जो प्रस्ताव रखे उनके अनुसार आलसी और श्रम से परहेज करने वाले लुटेरे हो सकते थे, स्वतंत्र नहीं। आप लोगों में से अधिकांश लोग उसी अल्तपम बौद्धिक श्रम से अधिकतम पाने की कोशिश करने वाली जमात के हैं। आजाद नहीं है, आजाद नहीं हो सकते, कीमत दिए बिना कुछ भी पाना लूट का पर्याय है।
आज अतीत का रोदन करने से और कुछ तो मिलेगा भी नहीं सहानुभूति तक नहीं मिल सकती। मैं अतित का नहीं, आज का रोना रो रहा हूं। आज का बौद्धिक वर्ग, अंग्रेजी परस्त वर्ग, आज का नया ब्राह्मण ठीक वही आचरण कर रहा है, और इस के नेतृत्व में इसी को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसकी वाकपटुता पर वाह-वाह किया जा सकता है, परंतु न आजाद रहा जा सकता है, न ही सौदेबाजी में मिली स्वाधीनता को स्वतंत्रता में बदला जा सकता है।
दूसरा, जिसने आप को गुलाम बना रखा था, वह गुलामी को फायदे का सौदा न पा कर, या उदारता से, आपको गुलामी से मुक्त कर दे, स्वाधीन कर दे, तो भी स्वतंत्र आप तभी होते हैं जब अपने श्रम और तप से उस तंत्र का निर्माण कर लेते हैं जिसमें आप, पुराने मालिकों के सामने हाथ नहीं पसारते।
अमेरिका में जब अब्राहम लिंकन के निर्णायक युद्ध के बाद गुलामों को मुक्ति मिली तो मुक्त होने के बाद अनेक गुलाम अपने पुराने मालिक के पास इस अनुरोध के साथ आने लगे हमें फिर गुलाम बना लीजिए। लंबी गुलामी के द्वारा उनकी चेतना को इतना नष्ट कर दिया गया था कि वे भूल गए थे खड़ा कि पहल कैसे की जाती है, अपने पांवों पर खड़ा कैसे हुआ जाता है।
पुराने ब्राह्मणों, अंग्रेजी के बल पर पैदा हुए नए ब्राह्मणों, और उनको कोस कर खुश होने वालों के बौद्धिक दारिद्र्य के पीछे एक ही कारण दिखाई देता है: अल्पतम श्रम से अधिकतम पाने की आकांक्षा। इसके लिए मैं अंग्रेजी परस्तों को ही जिम्मेदार नहीं मानता आप सबको अपने मन में टटोलकर यह देखना होगा कि आप जो कुछ बनना चाहते हैं उसके लिए कितना अधिक श्रम और बलिदान करने को तत्पर हैं। अंग्रेजी को कोसना, और कोसने से संतुष्ट होकर और कुछ न करना उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
अंग्रेजी पर अधिकार करना जरूरी है, अंग्रेजी के अधिकार से बाहर आने के लिए ही यह जरूरी है, जिसे आप जानते नहीं उसकी पकड़ से बाहर कैसे आ सकते हैं। आज अंग्रेजी दुनिया की महत्वपूर्ण भाषा बन चुकी है उससे बचना संभव नहीं, उसकी गिरफ्त में रहकर आत्मोत्थान संभव नहीं.।
इसलिए उसे दुनिया से जुड़ने के लिए, और संस्कृत को अपने अतीत से जुड़ने के लिए दोनों को संदर्भ भाषा के रूप में सीखना जरूरी है परंतु अपने जरूरी काम उन से बाहर आकर, अपनी भाषाओं में ही किए जा सकते हैं।
वर्णवाद यदि कार्य विभाजन था तो प्राचीन समाज को देखते हुए, दुनिया के दूसरे देशों से तुलना करते हुए, यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ कार्य विभाजन था जो आज की दुनिया के लिए व्यर्थ हो चुका है। इसलिए भारत का उद्धार प्राचीन वर्णवादी मानसिकता से बाहर आने की हमारी योग्यता पर निर्भर करता है।
वह योग्यता मैं अपनी प्रशंसा करने वालों में नहीं देखता, अपने से परहेज करने वालों को तो मैं कभी नहीं समझा सकता कि आप का पतन ब्राह्मणवादी होने के कारण हुआ है। मार्क्सवादी जो अपने को वर्णवाद का कट्टर विरोधी मानते हैं, वहेआधुनिक ब्राह्मणवाद के सच्चे प्रतिनिधि हैं।
उनकी भाषा समाज को गुलाम बनाए रखने वालों की भाषा है। जिन लोगों से उनके विचार नहीं मिलते उनको अछूत मानते हुए विचारों का सामना करने से भागते रहना, जिन आयुधों का इस्तेमाल करते हुए कोई दल या विचार समाज में जगह बना रहा है, उन आयुधों को समझे बिना कोस कर, श्राप देकर भस्म करने की आकांक्षा पर कभी ब्राह्मणों को भरोसा था, आज कम्युनिस्टों को भरोसा है, उनको तिनके का सहारा मानकर उनके साथ ही डूबने वालों को भरोसा है। भारत की मानसिक दासता के लिए ये दोनों जितने जिम्मेदार हैं उतने या उनसे भी अधिक जिम्मेदार उनको कोस कर गहन अध्ययन और अध्यवसाय से बचने वाले हैं।
एक बात तो करने से ही रह गई कि यदि ब्राह्मणों क्षत्रियों ने अल्प से अधिक पाने की और शारीरिक श्रम से बचने की आदत के कारण मनोवैज्ञानिक रूप से अपनी स्वतंत्रता बहुत पहले खो दी थी, भारतीय सभ्यता के उन्नयन में उनका कोई योगदान ही नहीं था, तो यह सभ्यता विश्व में हिंदुओं के अध्यवसाय के कारण इतने लंबे समय तक इतनी ऊंचाई पर कैसे बनी रह गई कि भारत के लोग ही नहीं दूसरे देशों के लोग भी भारत को सर्वोपरि मानते थे, तो दो वर्ण बचे रह जाएंगे। वैश्य और शूद्र।
शूद्रों को इस बात पर गर्व हो सकता है कि भारतीय सभ्यता और अर्थव्यवस्था उनके श्रम के उत्पाद के बल पर सभी दृष्टियों से शिखर पर बनी रही, परंतु मैं इससे सहमत नहीं हो पाता। गुलाम महान सभ्यताओं का निर्माण नहीं करते, उनके निर्माण में उनकी योग्यताओं और शक्ति का इस्तेमाल किया जाता है। सभ्यता का निर्माण पहल करने वाले करते हैं और यह पहल पूरे इतिहास में वैश्यों के पास रही। उन्होंने शूद्रों की योग्यताओं का उपयोग किया जिस तरह हम आज यंत्रों और यंत्रमानवों का उपयोग करते हैं। सभ्यता के निर्माण में उनके योगदान को कभी समझा ही नहीं गया।
हमें स्वतंत्र होने के लिए कई तरह की मनोवैज्ञानिक बाधाओं को पार करना होगा, कई तरह के संकीर्ण विचारों से बाहर आना होगा। यह देश के हित में है कि हम अपने लोगों की समझ पर विश्वास रखें, अपने श्रम पर विश्वास रखें, स्वतंत्रता और अध्यवसाय और जोखिम उठाने की क्षमता और गुलाम होने की जगह आजाद रह कर मर जाने की जिद के महत्व को समझें। अपने क्षेत्र के उन्नयन के लिए जितना काम करते आए हैं उससे अधिकाधिक करने की आदत डालें।
यदि यह कर सकें तो ही आप मुझे पढ़ने पसंद करने का अधिकार पा सकते हैं। ध्यान रहे कि मैं समय-समय पर अपने प्रशंसकों की प्रोफाइल जांच कर यह देखने का प्रयत्न करता हूं के वे केवल लफ्फाजी कर रहे हैं या सचमुच ऐसा कुछ कर रहे हैं जिसके लिए मैं उनकी भी प्रशंसा कर सकूँ।
जितना बड़ा बनना था बन चुका हूं,अधिकतम श्रम से अल्पतम पाकर प्रसन्न रहने वालों के साथ स्पर्धा अवश्य करना चाहता हूँ। मुझे प्रतीक्षा आपकी सराहना करने का अवसर पाने की है अपनी सराहना की जरूरत नहीं, क्योंकि मेरा प्रत्येक काम मेरी अपनी प्रशंसा से जुड़ा हुआ है। प्रशंसा की भाषा अलग है। मैं तो स्वयं अपनी हर सतर के साथ अपने विषय पर भी लिखता हूँ लिखते हुए कोशिश करता हूं कि वह अपने स्तर से नीचे न आने पाए। इससे बड़ी आत्म श्लाघा क्या हो सकती है। फिर भी अपनी कमियों को जानने की उत्सुकता और इसके लिए आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहती है।