#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (1)
दिवेदी जी विंटरनित्ज की तरह “समस्त भारतीय साहित्य का एक परिचयात्मक इतिहास हिंदी में” लिखना चाहते थे। वह नहीं लिख सके। लिख नहीं सकते थे। आज तक कोई लिख न सका। शायद नहीं, निश्चय ही समस्त भारतीय साहित्य का अर्थ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश समझते थे। इसमें हिंदी के लिए भी स्थान न था। होता तो भारत की दूसरी सभी भाषाओं का साहित्य भी आ जाता जिनमें भाषा भले हिंदी के साथ बंगला भी आती रही हो, पर साहित्य की जानकारी के विषय में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। इसलिए यदि उन्हें सुविधा और अवकाश मिला भी होता तो जो इतिहास लिखते उससे इतिहास और साहित्य दोनों का अनिष्ट होता। हिंदी के आदिकाल का जो इतिहास लिखा उनकी साहित्य और इतिहास दोनों की समझ पर संदेह होता है।
उनके सामने इतिहास का एक गलत खाका था। विंटरनित्ज हों या कोई दूसरा यूरोपीय अध्येता, वह भारत को समझने के लिए नहीं भारतीय चेतना को नियंत्रित और भ्रमित करने के लिए लिखते रहे हैं और आज तक लिखते आ रहे हैं, ईमानदारी के नाम पर वह सिर्फ इतनी सावधानी बरतते रहे हैं कि उनकी चालाकी आसानी से पकड़ में न आए। यही सावधानी विंटरनित्ज ने भी बरती थी। इसका आरंभ विलियम जोंस के साथ ही हो गया था।
उनके भारत पहुँचने से लगभग सौ साल पहले से ही धर्मप्रचार करते समय भारतीय संपर्क में आने के बाद से उनके सामने दो बातें साफ हो गई थीं कि भारतीय भाषाओं का यूरोप की भाषाओं से गहरा संबंध है और संस्कृत का पल्ला भारी पड़ता है। रंगभेद उस दौर के यूरोप के गोरों में इतना प्रबल था कि काला और नेटिव या जानवर एक जैसी प्रतिक्रिया उत्पन्न करते थे इसलिए भाषाई साक्ष्य यह कहते थे कि उनकी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं; उनका ऐतिहासिक अनुभव यह कहता था कि इस तरह की समानता तभी हो सकती है जब वे या तो लंबे समय तक भारतीयों के अधीन रहे हों या उन्हीं की संतान हो; उनका नस्ली पूर्वाग्रह यह मानने को तैयार नहीं था कि वे भारत के काले लोगों की संतान हो सकते हैं। मद्रास से लेकर बंगाल तक के जिस भारत से वे परिचित थे उसमें काले लोग ही बसते थे।
इसको लेकर किसी न किसी पैमाने पर सौ साल से यूरोप के भारत से परिचित मिशनरियों में और उनके संपर्क में आने वाले दूसरे लोगों के मन में खलबली सी मची हुई थी। कंपनी शासन के लिए यह गले में फँसा सोने का हँसिया था। भय यह कि जिस दिन भारतीयों को इसका पता चलेगा उनका मनोबल इतना बढ़ जाएगा कि उन पर नियंत्रण रखना एक समस्या बन जाएगी।
विलियम जोंस भारत में आने से पहले कई भाषाओं के ज्ञाता और अपने फारसी ज्ञान के कारण प्राच्यविद के रूप में प्रसिद्धि पा चुके थे।
Jones entered University College, Oxford, in 1764. He had already developed a reputation for his impressive scholarship, and college enabled him to increase his knowledge of Middle Eastern studies, philosophy, Oriental literature, and Greek and Hebrew. In addition, he learned Spanish and Portuguese, and also mastered the Chinese language. …Even at a very early age, Jones demonstrated his multi-linguistic skills. He would develop into a hyperpolygot, someone possessing fluent understanding of more than six languages. Eventually, Jones would know 28 languages and was self-taught in several. (Encyclopedia of Biography)
इंग्लैंड से भारत पहुँचने तक (अप्रैल -सितंबर 1783) की लंबी यात्रा में उन्होंने वह पूरी रूपरेखा तैयार कर रखी थी जिसे भारत पहुँचने पर एशियाटिक सोसायटी के माध्यम से किया।
यह गौर करने की बात है कि जज के पद का भार उन्होंने दिसंबर 1783 में ग्रहण किया और उसके तुरत बाद जनवरी 1784 में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की जिसके वह आजीवन अध्यक्ष रहे। दूसरा काम उन्होंने नदिया के प्रसिद्ध विद्वान से संस्कृत सीखना आरंभ किया।
इसलिए इस बात के लिखित प्रमाण के अभाव में केवल यह अनुमान ही लगाया सकता है कि यदि भारत में न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति के पीछे यह योजना न भी रही हो तो भी उनके मन को व्यग्र करने वाले सवालों में सर्वोपरि चिंता इसका कोई सम्माजपक समाधान निकालना अवश्य था। एसियाटिक सोसायटी के प्रथम अधिवेशन में उन्होंने सोसायटी के लक्ष्यों पर प्रकाश डाला था। अगले साल के व्याख्यान में उन्होंने गोरी जाति की जन्मजात श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया था।
Whoever travels in Asia, especially if he be conversant with the literature of the countries through which he passes, must naturally remark the superiority of European talents: the observation, indeed, is at least as old as ALEXANDER; and, though we cannot agree with the sage preceptor of that ambitious Prince, that “the Asiaticks are born to be slaves”, yet the Athenian poet seems perfectly in the right, when he represents Europe as a sovereign Princess, and Asia as her Handmaid:
इन दो वर्षों में उन्होंने संस्कृत का जितना ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उसके आधार पर 2 फरवरी 1786 के व्याख्यान में उन्होंने जिन तथ्यों की ओर ध्यान दिया था उनमें एक यह था कि भारत के लोग मानते कि उनके पूर्वजों का पूरी दुनिया पर आधिपत्य था:
The Hindus themselves believe their own country, to which they give the epithet madhyama or Central, and Punyabhumi, or the land of virtues, to have been the portion of Bharat, one of the nine brothers, whose father had dominion of the whole earth;
यही वह ग्रथि थी जिससे मुक्ति पानी थीं क्योंकि भाषा से इसकी पुष्टि होती थी। उनके इस व्याख्यान के जिस अंश को लोग मुग्ध होकर दुहराते हैे वह निम्न प्रकार है:
The Sanscrit language whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more exquisitely refined than either, yet bearing with both of them a stronger affinity, both in roots of verbs and in the forms of grammar, than could possibly have been produced by accident; so strong indeed, that no philologer could examine them all three, without believing them to have sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists; there is a familiar reason, though not quite forcible, for supposing that both the Gothick and the Celtick, though blended with a very different idiom, had the same origin with the Sanscrit; and the Old Persian might be added to the same family, if this were the place for discussing any question concerning the antiquities of Persia.34
जिसमें प्रशंसा में जो कुछ कहा था वह उससे दो दशक पहले एक अन्य विद्वान कह चुका था। इसमें उन्होंने अपनी ओर से जोड़ा था वह यह कि यद्यपि संस्कृत उन सबसे पुरानी है पर ये सभी आपस में बहनें हैं क्योंकि ये किसी ऐसी भाषा से पैदा हुई हैं जिसका आज अस्तित्व नहीं है।
और अपने इसी भाषण में उन्होंने इसका निपटारा भी कर दिया था जिसको कभी याद नहीं किया जाता:
Of these cursory observations on the Hindus, which it would require volumes to expand and illustrate, this is the result: that they had an immemorial affinity with the old Persians, Ethiopeans, and Egyptians, the Phoenicians, the Greeks, and Tuscans, the Scythians or Goths, and Celts, the Chinese, Japanese, and Peruvuans; whence, as no reason appears for believing, that they were a colony from any one of those nations, or any of those nations from them, we may fairly conclude that they all proceeded from some central country, to investigate which shall be the object of future Discourses.
अब आगे मात्र इसको गंभीर विचारविमर्श का अभिनय करते हुए उदाहृत करना था। उसकी चर्चा हम कल करेंगे। आज इतना ही कि किसी पाश्चात्य लेखक को बहुत ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए पर माडल तो किसी को बनाया ही नहीं जा सकता। वह अनर्थकारी है और यह अनर्थ द्विवेदी जी ने भी किया।