#रामविलास_शर्मा पर #धनंजय_वर्मा
धनंजय वर्मा के रामविलास शर्मा की पुस्तक पर व्यक्त विचार उनकी समझ पर प्रश्न उठाते हैं परंतु उनकी नीयत पर नहीं। उन्होंने अपने अध्ययन और ज्ञान के बल पर जो राय कायम की है आधार पर जितनी बेबाकी से अपनी बात कही जा सकती है, कहने का प्रयत्न किया है।
रामविलास जी की 79-80 के बाद लिखी लगभग सभी पुस्तकों से विषय की प्रस्तुति को लेकर मुझे शिकायत रही है। परंतु उनमें व्यक्त विचारों को लेकर बहुत कम असहमति है।
धनंजय वर्मा का लेख पोलेमिकल तो नहीं है परंतु उनके मन में यह डर है कि कुछ खास निष्कर्षों पर पहुंचने के बाद मनुष्य को एक विद्वान के रूप में राष्ट्रवादी, पुरातन पंथी या दक्षिणपंथी विचारधारा का माना जा सकता है। उनके लेखन में इससे बचने की कोशिश दिखाई देती है और यह एक सेंसर का भी काम करती है।
ऐसे आदमी को समझा पाना आसान नहीं होता। मेरे लिए यह काम और भी कठिन है, क्योंकि वर्मा जी के लेखन से पता चलता है उन्होंने बहुत कुछ पढ़ा है फिर भी मुझे पढ़ने के लिए या तो वह समय नहीं निकाल सके हैं, अथवा बिना कुछ पढ़े मेरे विषय में कोई धारणा बना ली इसलिए मुझे इस योग्य नहीं समझा मेरे लिखे पर भी ध्यान दे सकें।
रामविलास शर्मा ने अपनी इसी पुस्तक के पृ.153-54 मेरे कुछ विचारों को संक्षेप में रखा है और उनसे सहमति भी व्यक्त की है। वर्मा जी साधनसंपन्न व्यक्ति हैं। यदि उन्होंने इसे देखकर ही उस पुस्तक को उलट-पुलट लिया होता जिसका रामविलास जी ने हवाला दिया है तो उन्हें लगभग उन सारी आपत्तियों का उत्तर मिल जाता जिन्हें जिन्होंने रामविलास जी की समीक्षा करते हुए उठाया है।
किसी समीक्षा से समीक्षित वस्तु का परिचय मिलना चाहिए पर इस लेख से धनंजय जी के व्यापक ज्ञान का परिचय तो मिलता है परंतु प्रयत्न करने के बाद भी पुस्तक का परिचय नहीं मिलता। जहां उनके ज्ञान का परिचय मिलता है वहां यह भी स्पष्ट होता जाता है कि अपनी व्यस्तता के करण जो कुछ पढ़ा है उसे समझने की फुर्सत नहीं निकाल सके। इस दुर्घटना का शिकार रामविलास जी के साथ उनकी पुस्तक भी हो गई है। समय का अभाव है, विस्तार में न जाकर मैं वर्मा जी के ज्ञान वर्धन के लिए कुछ सूचनाएं दर्ज करना चाहूंगा :
1. रामविलास जी जैक ऑफ ऑल नहीं थे। यह सीमा धनंजय वर्मा की है। एक विद्वान किसी एक विषय का गहराई से अध्ययन करता है और उससे मिली दृष्टि से दूसरे अनुशासनों की कृतियों और उनके विद्वानों को समझने परखने की योग्यता अर्जित कर लेता है। अनेक विषयों की कामचलाऊ जानकारी से मिली सूचनाओं काे अपने अधिकार क्षेत्र की जानकारी से मिलाकर देखने के बाद वह ऐसे निष्कर्षों पर पहुंचता है जिसमें विशेषज्ञों के अंतर्विरोध और असंगतियाँ – उनकी नासमझी, ईमानदारी, बेईमानी सब समझ में आ जाती है। अंग्रेजी का एक शब्द पोलीमैथ है. रामविलास जी पर वही लागू होता है।
2. मार्शल और व्हीलर के विषय में उनका आरोप निराधार नहीं है । मार्शल अपनी रिपोर्ट 1931 में प्रकाशित कर रहे थे। उसी दौर में पूर्ण स्वराज्य का घोष भी हुआ था। वह अपनी रपट में यह सिद्ध करने के लिए कि सिंधु सभ्यता वैदिक नहीे थी, सिंधु सभ्यता की पूर्ववर्ती नहीं थी, बाद में उसका सिंधु सभ्यता से कोई संपर्क नहीं हुआ था, लंबी बहस करते हैं। मैंने उसी पुस्तक पृ. 32-35 (2016सं.) में उसकी विस्तार से जांच करते हुए दावा किया था कि “ मार्शल की आपत्तियां सतही और गलत है” (पृ.34)।
3. मार्शल की बेईमानी का एक बड़ा सबूत यह है की ट्रेंच MD पर राखल दास द्वारा तैयार की गई रपट को उन्होंने अपने ग्रंथ में शामिल नहीं किया था नही उसे उन्हें वापस लौटाया था। यहाँ तक कि उसकी पुरावस्तुओं को नष्ट कर दिया था। उनके भारत से चले जाने के बाद उनके पीए हारग्रीव ने नए सिरे से टाइप्ड कॉपी उन्हें लौटाई थी परंतु के चित्र और ड्राइंग और मूल प्रति नहीं लौटाई थी। यह रपट उसके 60 साल बाद पृथ्वी प्रकाशन ने जीराक्स करा कर प्रकाशित की थी। इस पर नजर डालने का मुझे भी सौभाग्य मिला था।
4. वर्मा जी की यह जानकारी सुनी सुनाई है कि राखालदास बंदोपाध्याय ने सिंधु सभ्यता को द्रविड़ सभ्यता कहा था। उन्होंने आसुरी सभ्यता कहा था, परंतु इससे भी बड़ी बात यह कि उन्होंने उसी के समकालीन सरस्वती सभ्यता को वैदिक सभ्यता कहा था। इसकी संपन्नता का वर्णन करते हुए इन्होंने ऋग्वेद की एक ऋचा का भी उद्धरण दिया था:
चित्र इद्राजा राजका इदन्यके यके सरस्वतीं अनु ।
पर्जन्य इव ततनत् हि वृष्ट्या सहस्रं अयुता ददत् ।। 8.21.18
5. इसमें प्रयुक्त सहस्र, अयुत (=लाख) का दान करने वाले सरस्वती तटवर्ती राजा से वर्मा जी का यह भ्रम तो दूर ही हो जाना चाहिए कि जिन्हें चरवाहा बताया जाता रहा और वह इसलिए उन्हें चरवाहा मान लेते रहे कि कहीं उनको दक्षिणपंथी न मान लिया जाए, वे सभ्य और संपन्न नगरवासी थे।
6. उनकी समझ में यह बात भी आ जानी चाहिए कि क्यों एक सबसे महत्वपूर्ण ट्रेंच की रिपोर्ट और पुरा सामग्री को मार्शल ने नष्ट कर दिया था – क्योंकि यदि सिंधु सभ्यता असूर् सभ्यता मान भी ली जाती तो भी उस समय से ही उसके पड़ोस में वैदिक सभ्यता के अस्तित्व का प्रमाण उपलब्ध था। इसी को नकारने के लिए मार्शल ने वह लंबी भूमिका लिखी थी जिसका मैंने उल्लेख और तब तक की जानकारी के आधार पर खंडन किया।
7. व्हीलर ने मोहेंजोदड़ो पर आर्यों का हमला और उनके द्वारा किए गए कत्लेआम का प्रमाण देने के लिए जिन कंकालों का प्रयोग किया वे पहले गुहा द्वारा जाँचे जा चुके थे। 1964 में जब डेल्स ने एक्सपीडिशन के अंक में कंकालों जुटाए जाने की तरकीब, ुनके पुरातात्विक संदर्भ देते हुए यह दिखाया कि इनसें के किसा की पृत्मैंयु हिंसा से नहीं हुई थी कि इनकी प्रसितुति में धूर्तता काम लिया गया था और अपना लेख मिथिकल मैसेक्र ऑफ मोहनजोदड़ो के नाम से प्रकाशित किया तो 1968 के अपने एडिशन में उसने अपनी लाज बचाते हुए लिखा कि मैं एक खब्त में ऐसा लिख गया था। परंतु यह खब्त नहीं था। एक संस्कृत के विद्वान के पास अपने समर्थन के लिए( नाम मुझे याद नहीं आ रहा है) वह गटा तो उन्होंने पूछा संस्कृत जानते हैं। उसने स्वीकार किया,नहीं। उन्होंने पूछा आप दासों और दस्युओं को सिंध घाटी का निवासी बता रहे हैं। मालूम है उनका निवास पर्वतीय क्षेत्र में था। मुलाकात समाप्त हो गई। उसने अपने मत में कोई परिवर्तन नहीं किया, इसलिए यह खब्त में लिया गया निर्णय नहीं था। शरारत थी।
7. वर्मा जी का मानना है, पाकिस्तान के लोग पाकिस्तान का इतिहास 5000 साल तक ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी सूचना गलत है। यह काम व्हीलर ने स्वयं किया था।