Post – 2019-09-15

#रामकथा_की_परंपरा(16)
ऋग्वेद के कवि
ऋग्वेद के कवि ऋषि है, और दक्ष उद्यमी भी ऋषि है। कवि होना ज्ञान की पराकाष्ठा है; दक्ष होना विज्ञान की पराकाष्ठा थी। यह चमत्कार था।

[[जब हम वैदिक काल कहते हैं तो तात्पर्य ऋग्वेद के काल से होता है क्योंकि दूसरे दो वेदों का स्वतंत्र अस्तित्व न था, नहीं वे उस काल के थे। चौथे वेद को वेद माना ही न जाता था। बात केवल त्रयी की की जाती थी। यूनानी पंडितों के भारतीय समाज में विलोपन के बाद इसे वेद के रूप मे मान्यता दी गई, क्योंकि उनकी परंपरा में ओरैकल और चमत्कार के लिए स्थान था और इसको वेद के रूप में मान्यता देकर और अपने को इसका भी ज्ञाता सिद्ध करके उन्होंने दूसरे सभी ब्राह्मणों से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न किया। तब तक परंपरागत ज्ञान की पराकाष्ठा किसी का त्रयी का ज्ञाता या त्रिवेदी होना था। अब वेद चार हो गए और ब्राह्मणों में सर्वोपरि चतुर्वेदी हो गए, जो भले अपने को ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ मानते हो परंतु दूसरे ब्राह्मण उन्हें सच्चा ब्राह्मण तक नहीं मानते।

हमारी नजर में वे दूसरे सभी ब्राह्मणों से ऊपर चौथे वेद के ज्ञान के कारण नहीं है, अपितु हिंदू धर्म की रक्षा के लिए जितनी कुर्बानियां उन्होंने दीं, वह किसी अन्य ब्राह्मण से संभव न हो सका।]]

भारत में भी, ऋग्वेदिक भारत में ही,दक्ष कर्मियों के लिए ऐसा सम्मान संभव था। मिस्री सभ्यता में कारीगरों को लगभग कैदियों की तरह पहरे में और असहाय बना कर रखा जाता था। उत्तर वैदिक काल में मिस्र जैसी नौबत तो नहीं आई पर उनकी सामाजिक और आर्थिक अवस्था लगातार गिरती गई और औद्योगिक तथा तकनीकी स्तर में गिरावट आती गई। इस गिरावट को बनाए रखने के लिए एक तंत्र का विकास किया गया जिसे राजधर्म बना दिया गया, अर्थात जिसे राजशक्ति का प्रयोग करते हुए स्थायी बनाया गया।

मिस्र की सभ्यता नष्ट हो गई। सुमेर, अक्कद और बेबीलोन एक दूसरे को मिटाते हुए हमेशा के लिए मिट गए। गिरावट के बाद भी भारत में सभी तरह के दक्ष लोगों के प्रति वैसी निष्ठुरता नहीं बरती गई जो अन्य प्राचीन सभ्यताओं में उनके वैभव काल मे भी बरती जा रही थी, इसलिए यह बची रही। इस बीच वे समाज जो अब तक असभ्य माने जाते थे और कुशल कर्म के लिए जिनके दक्ष जनों का ही उन्नत सभ्यताओं के द्वारा उपयोग किया जाता था, वे सभ्यता के दमन से मुक्त होने के कारण तकनीकी विकास के अग्रदूत बने रहे । चक्रारि पंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्तिः – व्यक्ति की हो या देश की या पूरे विश्व की।

समाज वही आगे बढ़ता है जिसमें दक्षक्रतु (तकनीकी निपुणता वाले) और कविक्रतु (मेधावी) लोगों का सम्मान होता है, और यह सम्मान उसी समाज में प्राप्त होता है जिसकी अर्थव्यवस्था इनकी योग्यताओं से लाभान्वित होती और उन्हें पुरस्कृत करने की स्थिति में रहती है। इन तीनों की अन्तर्निर्भरता को समझे बिना हम सभ्यता के उत्थान, ठहराव, गिरावट और स्थानान्तरण की नाटकीयता को नहीं समझ सकते।

भारत में इन तीनों का सामरस्य वैदिक काल तक बना रहा। वैदिक काल शिखर काल इसलिए है कि इस तक पहुँचने तक यह त्रिगुणात्मकता बनी रही। परिपक्व हड़प्पा कहा जाय या वैदिक काल, जितने भी विकास थे वे सभी इसके आरंभ तक हो चुके थे। दक्षता, मेधाविता और संपन्नता सभी दृष्टियों से यह ठहराव का दौर है, स्टैगनेशन का नहीं, जमाव का, कंसालिडेशन और विस्तार का। इस विस्तार में ही इसके पराभव के बीज भी छिपे हैं।

बुनियादी सचाई को न समझ पाने के कारण न तो वैदिक कविता को समझा जा सका, न वैदिक संस्कृति की समझ पैदा हो सकी, और एक लंबा समय ऐसे बेतुके सवालों से निपटने में खर्च हो गया जिनसे पहले की धुन्ध अधिक गहरे अंधेरे में बदल गई। हम कुछ ऐसे भरोसे योग्य सूत्रों का तलाश करेंगे जिससे रोशनी पैदा हो सके।

वैदिक कवि अपने समय के तकनीकी कौशल से इतने अभिभूत हैं कि वे अपनी रचना में एक तो उनके चमत्कारों को विषय बनाते हैं दूसरे वे जो दक्षता अपने क्षेत्र में प्रदर्शित करते हैं वैसी ही दक्षता कविता में प्रदर्शित करना चाहते हैं ।

अश्विनो, मैंने अपनी इस प्रशस्ति को उसी तरह सावधानी से गढ़ कर तैयार किया है जैसे भृगुगण गढ़ कर रथ तैयार करते है (एतं वां स्तोमं अश्विनौ अकर्म अतक्षाम भृगवो न रथम् । 10.39.14)।
जैसे बढ़ई बहुत बहुत निखोट लकड़ी से पहिए की धुरी बनाता है वैसे ही सबसे परिष्कृत भाषा में मैने रचना की है ( गिरा नेमिं तष्टेव सुद्र्वम् ।। 7.32.20)।

तराश, काट-छाँट लकड़ी के काम में अधिक आसानी से लक्ष्य किया जा सकता है, इसलिए उसकी तुलना अधिक है। ऋग्वेद की भाषा जितनी कटी-छँटी है वह बाद के कालों में केवल सूत्र साहित्य में ही मिल सकता है: जैसे रथ के धुरे से सभी अरे जुड़े होते हैं, उसी तरह हे अग्निदेव समस्त देव तुमसे जुड़े हैं (अग्ने नेमिः अराँ इव देवांः त्वं परिभूरसि ।

अपने कौशल वैदिक कवि अल्पतम शब्दों में एक पूरा चित्र उपस्थित कर देते हैं। इनका सबसे प्रिय अलंकार रूपक है उद्यमियों की सबसे बड़ी आकांक्षा नया रूप, नया आविष्कार, नया निर्माण करले की है। कवि शब्दों में पूरा रूपक खड़ा कर देते हैं। शब्द अपना अर्थ ही नहीं वहन करता, रूपाकार हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है- रोहिदश्व >रोहिताश्व, यहां रोहित में श्लेष है। इसका एक अर्थ है लाल, दूसरा सवार, रोहिताश्व = 1. लाल घोड़ा; 2. लाल घोड़े पर सवार, अर्थात् अग्नि देव। हरिश्चंद्र (हरि-1.स्वर्णिम, 2.रसीला+ चन्द्र – 1.आनंददायक, 2. चन् और द्र दोनो का अर्थ जल, 3. चाँद/सोम) = सोम/सोमरस। कहानियां गढ़ ली जाती हैं। अग्नि जल से पैदा हुए। कह सकते हैं वह जल के नाती है, (जल से बादल और बादल से विद्युत); जल ही उनका निवास है। हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व को लेकर वैदिक काल से ही कहानियां ढशुनःशेप) गढ़ना शुरू हो गया था। हम इसके विस्तार में नहीं जाएंगे।

हम वैदिक रूपक-विधान की बात कर रहे हैं, रूपक रूपाकार ग्रहण कर जीवित चरित्रों मैं बदल जाता है, यह है उनका भाषा कौशल और काव्यकौशल।

उसके बाद ऐसा युग नहीं आया। बाद की पौराणिक कहानियां प्रयत्नसाध्य लगती हैं, तर्कसंगत नहीं लगतीं। आडंबर लगती है, भीतर कुरेदने पर कुछ नहीं मिलता ।

अब हम कुछ और शब्दों को रखना चाहेंगे जो स्वयं रूपाकार ग्रहण कर लेते हैं। ज्योतिर्वसाना- (एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि ज्योतिर्वसाना । ….
(जारी)