#रामकथा_की_परंपरा(15)
#ऋग्वेद_के_देवता
देवता के रूप में देवीद्वार और इससे संबंधित ऋचा केवल आप्री सूक्तों में आती है (ऋग्वेद में देवता स्त्रीलिंग है।)। शौनक ने बृहद्देवता में कहा है किसंवाद में जिसके द्वारा कोई कथन किया जाता है वह उसका ऋषि होता है और जो उसके द्वारा कहा जाता है वह देवता। इस सूक्त में संवाद नहीं है. लगभग ग्यारह से 13 देवता हैं, सभी से संबंधित केवल एक ऋचा है, केवल एक ऋचा में इला,सरस्वती,मही तीन वर्णित हैं। इस देवत्व का आधार यह है कि उन-उन ऋचाओं में उनका नाम आया है। उदाहरण के लिए पहली में समिद्ध (अच्छी तरह जल चुकी) सुसमिद्धो न आ वह, , दूसरी मे नराशंस (लोकविश्रुत, ऋत्विक्भिः शंसनीयः) – नराशंसः प्रति धामानि अञ्जन् और तीसरी में इळित (पूजित, वन्दित) का प्रयोग हुआ – ईळितो अग्ने मनसा नो अर्हन्, इसलिए यद्यपि तीनों ऋचाएँ अग्नि पर हैं परंतु देवता तीन हो गए- इध्म. नराशंस और इळ। इसलिए जैसा हम पहले कह आए हैं, देवता का अर्थ सर्वत्र वर्ण्य विषय है न कि व्यक्ति, उपादान, या आज के आज के अर्थ में देवता। कवि >कविता के तर्क से देव>देवता, पहला पुल्लिंग, दूसरा स्त्रीलिंग।
देवीद्वार
क्या आपने अलीबाबा और जालीस चोरों की कहानी पढ़ी है? यदि नहीं पढी है, तो पढ़ें। यदि पढ़ा है, तो समझा होगा। गुफा का दरवाजा एक मंत्र – खुल जा सिम सिम – पढ़ने से खुल जाता है। गुफा के भीतर चोर अपना खजाना जमा करते हैं और फिर चले जाते हैं। अलीबाबा के हाथ वही मन्त्र लग जाता है और भीतर जाकर जितना ढो सकते हैं उतने हीरे जवाहरात लाद कर लौटते हैं। पहली नजर में यह कहानी कल्पना की उड़ान प्रतीत होती है, परंतु कल्पना और सपने तक का अपना एक आधार होता है। इस कहानी के वस्तु गत आधार को आज तक किसी ने नहीं समझा, और आज से पहले तक मैं भी नहीं समझता था। यह पणियों की कहानी और आप्रीसूक्त की उसी ऋचा पर आधारित है जिसकी चर्चा हम करने जा रहे हैं। पणियों ने गायों को अर्थात निधियों को रोक रखा या चुरा रखा था। उनको पत्थर की गुफाओं में बंद कर रखा था। विष्णु (यज्ञ/अग्नि) उन निधियों को चुरा या उनका अपहरण कर लेते हैं:
मुषायत् विष्णुः पचतं सहीयान् विध्यत् वराहं तिरः अद्रिमस्ता।। 1.61.7
ये हैं अलीबाबा।
आहरण का सारा विधान तो तंत्र का है, परंतु मंत्र का कुछ प्रभाव पड़ता हो हो तो उसकी भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। असाधारण सफलता पाने की कामना करने वाले कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते। वे व्यापारी हों. जुआरी हों, सट्टेबाज हों या राजनीतिज्ञ। फल अपने काम का पाना चाहते हैं, परिणाम की अनिश्चितता के कारण अनुष्ठान की अवहेलना नहीे करते। यह पुरानी बीमारी है जो संभव है ऋग्वेद के समय से पहले से चली आ रही हो, और जो हमारे अंतरिक्ष युग में भी नारियल फोड़ने की क्रिया में जीवित है।
विभिन्न आप्री सूक्तों में छंद भेद के कारण या कुछ नए देवों के समावेश के कारण यत्किंचित् भिन्नताएं हैं परंतु उनकी चिंता ही नहीं, उसे व्यक्त करने की शब्दावली में भी पर्याप्त समानता है, इसे नीचे लिखे मंत्रों से समझा जा सकता है:
वि श्रयन्तां ऋतावृधः द्वारः देवीः असश्चतः । अद्या नूनं च यष्टवे ।। 1.13.6
वि श्रयन्तां ऋतावृधः प्रयै देवेभ्यो महीः । पावकासः पुरुस्पृहो द्वारः देवीरसश्चतः ।। 1.142.6
विराट संराड्विभ्वीः प्रभ्वीः बह्वीश्च भूयसीश्च याः । दुरो घृतान्यक्षरन् ।। 1.188.5
वि श्रयन्तां उर्विया हूयमाना द्वारो देवीः सुप्रायणा नमोभिः । व्यचस्वतीः वि प्रथन्तां अजुर्या वर्णं पुनानाः यशसं सुवीरम् ।। 2.3.5
इनको समझने के लिए इनका अनुवाद देने की जगह हम इनमें प्रयुक्त शब्दों का सायण द्वारा किया गया अर्थ और उससे आगे कोष्ठक () में अपने विचार प्रस्तुत किया है:
सायण- विश्रयन्तां=विविच्य श्रयन्तां, विवृत अपिधाना भवन्तु; कपाटोद्घाटनेन विवृयन्तां (खुल जा सिमसिम खुलजा)। ऋतावृधः=सत्यस्य यज्ञस्य वा वर्धयित्र्यः (गाढ़ी मेहनत से तैयार की गई) । देवीः = द्योतमानाः (जगमग करती हुई)। सुप्रायणा=सुष्ठु गन्तव्या (जिनमें आसानी से आया जाया जा सके)। प्रयै =प्रयातुं (भीतर जाने के लिए)। व्यचस्वतीः=व्याप्तिमत्यः ( दूर तक फैली)। अजुर्या =अहिंस्या (जिसमें किसी तरह का अनिष्ट न हो)। असश्चतः=उद्घाटनेन प्रवेष्टृ पुरुष संगरहिताः (जिसमें पहले से किसी जीव जंतु का प्रवेश न हुआ हो)। यष्टवे =यष्टुं (उपार्जन के लिए)। वि प्रथन्तां =विशेषेण प्रख्याता ( खुली रहो)।
इनका जो आशय हमारी समझ में आया उसे इस तरह बयान किया जा सकता है कि पुरानी सुरंगों को खोलने से पहले औपचारिक यज्ञ-विधान होता था, उसके बाद पहले की सुरंग का घृतपृष्ठ बर्हि बिछा कर उसे भीतर से कृमि-कीटाणु से मुक्त किया जाता था। ये सुरंगें इतनी चौड़ी (डेढ़ से दो मीटर चौड़ी और दो मीटर ऊँची) होती थी कि इनसे हो कर आसानी से आया जाया जा सके, इसी लिए इन्हे सुप्रायणा, प्रथन्त, बह्वी आदि कहा गया है। आग से इनको पवित्केकरने के बाद उसकी सफाई करके नया खनन आरंभ किया जाता था। प्रकाश के लिए घृतसिक्त कुश कास का उपयोग किया जाता था और आगे के खनन के लिए धधकते कोयले से काम लिया जाता था। ताप से दरारें खुल जाती थीं।
अब हम उन गायों पर दृष्टिपात करेंगे जिनको पणियों ने घेर रखा था। इसका बहुत सुन्दर चित्रण एक अन्य सूक्त मे हुआ है। हम इसकी विस्तृत व्याख्या में न जाकर, ग्रिफिथ के अनुवाद पर दृष्टि डालना चाहेंगे:
साधु अर्या अतिथिनीः इषिराः स्पार्हाः सुवर्णा अनवद्यरूपाः ।
बृहस्पतिः पर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्यो ।। 10.68.3
Brhaspati, having won them from the mountains, strewed down, like barley out of winnowing-baskets,
The vigorous, wandering cows who aid the pious, desired of all, of blameless form, well-coloured.
आप्रुषायन् मधुन ऋतस्य योनिं अवक्षिपन् अर्कं उल्कां इव द्योः ।
बृहस्पतिः उद्धरन् अश्मनो गा भूभ्या उद्गेव वि त्वचं बिभेद ।। 10.68.4
As the Sun dews with meath the seat of Order, and casts a flaming meteor down from heaven.
So from the rock Brhaspati forced the cattle, and cleft the earth’s skin.
अप ज्योतिषा तमो अन्तरिक्षात् उद्गः शीपालं इव वात आजत् ।
बृहस्पतिः अनुमृश्या वलस्य अभ्रमिव वात आ चक्र आ गाः ।। 10.68.5
Forth from mid air with light he drave the darkness, as the gale blows a lily from the river.
Like the wind grasping at the cloud of Vala, Brhaspati gathered to himself the cattle,
यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद् वृहस्पतिः अग्नितपोभिः अर्कैः ।
दद्भिः न जिह्वा परिविष्टं आदत् आविः निधीन् अकृणोत् उस्रियाणाम् ।। 10.68.6
Brhaspati, when he with fiery lightnings cleft through the weapon of reviling Vala,
Consumed.him as tongues eat what teeth have compassed: he threw the prisons of the red cows open.
बृहस्पतिः अमत हि त्यत् आसां नाम स्वरीणां सदने गुहा यत् ।
आण्डेव भित्वा शकुनस्य गर्भं उदुस्रियाः पर्वतस्य त्मनाजत् ।। 10.68.7
That secret name borne by the lowing cattle within the cave Brhaspati discovered,
And drave, himself, the bright kine from the mountain, like a bird’s young after the egg’s disclosure.
अश्नापिनद्धं मधु पर्यपश्यत् मस्त्यं न दीन उदनि क्षियन्तम् ।
निः तं जभार चमसं न वृक्षात् बृहस्पतिछ विरवेण आ विकृत्य ।। 10.68.8
He looked around on rock-imprisoned sweetness as one who eyes a fish in scanty water.
Brhaspati, cleaving through with varied clamour, brought it forth like a bowl from out the timber.
स उषां अविन्दत् स स्वः सो अग्निं सो अर्केण वि बबाधे तमांसि ।
बृहस्पतिः गो वपुषः वलस्य निर्मज्जानं न पर्वणो जभार ।। 10.68.9
He found the light of heaven, and fire, and Morning: with lucid rays he forced apart the darkness.
As from a joint, Brhaspati took the marrow of Vala as he gloried in his cattle.
इसका भाव यथालिखित न ले कर इसका पाठ हमारी अब तक की व्याख्या का ध्यान रखते हुए (गो= हीरे, रत्न, खनिज), करें। कविता में खनन और खनिज द्रव्यों के आहरण का इससे सुन्दर चित्रण नहीं हो सकता। इस सूक्त में खनिज द्रव्यों के लिए मधु का भी प्रयोग हुआ है।