Post – 2019-06-14

इस्लाम का प्रचार (ख)

अपने मजहबी अभियान के छठें साल में दो खास लोग बड़े नाटकीय ढंग से मुसलमान बने – इनमें एक थे उनके चाचा, हमजा बिन मुत्तलिब। खानदान की इज्जत का सवाल न आ गया होता तो वह किसी कीमत पर मुसलमान नहीं बनते।

हुआ यह कि एक कुरैश अबू जह्ल मुहम्मद को गालियां देने लगा। इसकी खबर जब हमजा को लगी तो खानदानी इज्जत देवताओं पर भारी पड़ गई। वह सीधे काबा पहुंचे जहां वह दूसरे कुरैशों के साथ बैठा था। उन्होंने जह्ल को एक घूंसा रसीद करके ललकारा, मैं भी मुसलमान हो गया। हिम्मत हो ताे मुझे हाथ लगा के देख और अगले घूंसे से उसका सिर ही फोड़ दिया। कुछ लोगों के पास पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी है कि उसका सिर कितनी जगह से फटा था।

कहते हैं उसने तैश में जो कुछ किया था, बाद में राजी-खुशी उसे ही दुहराया। जह्ल ने अति कर दी होगी, अन्यथा आरंभ में उनकी निंदा और उनको गालियां देना और अपमानित करने की कोशिश मक्का के बहुदेववादी समाज में आम थी। मुहम्मद को मक्का में इसका लगातार सामना करना पड़ रहा था। उनके खानदान की साख थी, इसलिए उनको तो सीधे हाथ लगाने का किसी को साहस नहीं हुआ, परंतु इससे यह सचाई तो छिप नहीं सकती थी कि आरंभ में उनके अनुयायी उनके परिजनों को छोड़ कर केवल कुछ गुलाम और छोटी हैसियत के लोग थे, इसलिए उनके अनुयायियों को कुरैशों द्वारा बहुत परेशान किया जाता था।

एक बार एक अनुयायी रोते हुए उनके पास आया कि मुझे रास्ते में रोक लिया गया और शर्त रखी गई कि पहले मुहम्मद को गाली दो तब आगे जा पाओगे।

मुहम्मद ने कहा बाहरी दबाव से जान बचाने के लिए अगर कुछ करना पड़े तो इससे फर्क नहीं पड़ता, तुम्हारे जमीर पर आंच नहीं आती।

उन्होंने दूसरों को भी ऐसी स्थिति में जो कहने या करने को बाध्य किया जाए करने की इजाजत दे दी।

एक कहानी जो बहुत मशहूर है कि एक बुढ़िया घर का सारा कूड़ा जमा कर रखती थी और जब मुहम्मद साहब उधर से मस्जिद के लिए गुजरते थे तो कूड़ा उनके ऊपर फेंक दिया करती थी । एक दिन ऐसा नहीं हुआ तो वह उसका हाल जानने के लिए भीतर गए और पाया कि वह बीमार है। उसकी तीमारदारी में जुट गए। चंगा होने पर बुढ़िया ने इस्लाम कबूल कर लिया।

मुहम्मद साहब के संबंध में सहानुभूति, दया, सहिष्णुता, निरभिमानता की इस तरह की कहानियां उसी संघर्ष काल की है जब वह अपने समाज को जोड़ने के लिए कुछ भी कर सकते थे, इसमें आडंबर और फरेब भी शामिल है, कुछ भी सह सकते थे, जिसमें व्यक्तिगत अपमान और अपयश भी शामिल था, प्राण देना तो छोटी चीज है। इसके बाद भी यदि किसी को यह समझने में दिक्कत होती है की आरंभ में वह सत्याग्रही तरीकों का इस्तेमाल कर रहे थे, तो उसे कायल करने पर बर्बाद होने वाले समय को तो बचाया ही जा सकता है।

एक दूसरा व्यक्ति जो इस्लाम का कट्टर विरोधी था और जिसे एक बार कुरैशों ने मुहम्मद साहब की हत्या करने के लिए भेजा था, उसका नाम उमर बिन उल खत्ताब था। उसके इस्लाम कबूल करने के कई तरह के किस्से हैंं। एक के अनुसार अपनी बहन फातिमा और उसके पति सईद बिन जईद के विषय में जब उसे पता चला कि उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया है तो वह गुस्से में उनके पास पहुंचा। वे कुरान का एक सूरा पढ़ रहे थे। उसने सईद पर हमला कर दिया और बहन को भी घायल कर दिया। बहन के चेहरे से खून बहने लगा। घायल होने के बावजूद उसने कहा तुम मेरी जान भी ले लो तो भी इसे पढ़ना नहीं छोडूंगी।

अपनी बहन के चेहरे से खून बढ़ता देखकर उसे अपनी करनी पर पछतावा हुआ और उसने जानना चाहा कि इसमें लिखा क्या है। यह जानकर कि जब तक कोई नापाक है तब तक उसे हाथ तक नहीं लगा सकता, उसने अपनी शुद्धि के लिए वजू किया और कलमा पढ़ा और मुसलमान हो गया। पैगंबर ने उसका स्वागत किया, और उसके इस्लाम कबूल करने पर अल्लाह का शुक्रिया किया।

इसके बाद मुहम्मद अपने अनुयायियों के साथ काबा पहुंचे। अली अपनी तलवार ताने सब का नेतृत्व कर रहे थे। कुरैश सदमे में आ गए कि हमने इसे मुहम्मद की जान लेने को भेजा था और वह उसके पीछे पीछे चल रहा है।

उमर एक छोटे से दबे हुए कुनबे से आते थे, और अब उन्हें इस्लाम कबूल कर लेने से इस बात का भी गर्व था कि वह दूसरों की बराबरी पर आ गए हैं । कहते हैं बाद में जब वह खलीफा बने तो उन्हें अबू सुफियान, अबू मनाफ जैसे ऊंचे खानदान के लोगों को अपमानित करने में खास मजा आता था।

इस तरह लगभग तीन साल का समय गुजर गया। उन्होंने एक बार कुरैशों को भी बहुदेववाद की व्यर्थता को समझाने का प्रयत्न किया, और लगभग गीता की भाषा में ही बताया कि वे जिन देवी देवताओं की पूजा करते हैं वे हीन देव हैं, अल्लाह सबसे ऊपर, सबसे बड़ा है और उससे बड़ा दूसरा कोई नहीं।

कुरैश स्वयं ऐसा ही मानते थे, इसलिए उन्हें मुहम्मद साहब के प्रवचन से कोई आपत्ति नहीं थी। हम अपने देवी देवताओं की पूजा करेंगे, और मुहम्मद अपने अल्लाह की उपासना करते रहें।

पर दुबारा सोचने पर उन्हें लगा कि उन्होंने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। जिस बहुदेववाद से वह लोगों का ध्यान हटाना चाहते थे, उसमें उनकी निष्ठा और बढ़ गई थी।

गलती समझ में आने के बाद सुधारने का एक ही तरीका था, इलहाम। अल्लाह का नया आदेश जो पुराने वादे से मुकरने का और सही रास्ते पर आने का एकमात्र उपाय था।

“अल्लाह के साथ किसी दूसरे इष्ट देव को न पुकारना, अन्यथा तुम भी दंड पाने वालों में शामिल हो जाओगे। अपने निकटतम नातेदारों को डराओ, और ईमान लाने वालों में जो तुम्हारे अनुयाई हों उनके साथ विनम्रता का
व्यवहार करो…” (सूरा अश्शुअरा)।

कुछ लोगों का विचार है कि यह पहला सूरा था जिससे अपने मत के प्रचार का संदेश मिला। इससे मक्का में उन्होंने अपने मंतव्य को जिस रूप में प्रकट किया उसे दुरुस्त करने का अवसर मिला। नई व्याख्या यह कि जब अल्लाह हाफिज की महिमा समझा रहे थे उस समय जिन्नात ने उनसे गलती करा दी थी । अल्लाह के साथ कोई दूसरा देवता नहीं रह सकता, और कुछ लोग कहना चाहेंगे कि मुसलमानों के साथ कोई दूसरा इंसान नहीं रह सकता। लेकिन जिन्नात रह सकते हैं और उनके अल्लाह पर भी भारी पड़ सकते हैं।

अब जब उन्होंने यह समझाना शुरू किया अल्लाह है तो दूसरा कोई देवता नहीं रह सकता तो वह कुरैशों की नजर में गिर गये। अरबों में अपने वादे से पीछे हट जाना बहुत बड़ा पातक माना जाता था। इसके बाद इस्लाम कबूल करने वाले उनकी नजर में गिर गए और उन्होंने उनको अधिक क्रूरता से उत्पीड़ित करना आरंभ कर दिया।

जब स्थिति असह्य हो गई तो उन्होंने अपने अहुयायियों को अबीसिनिया में पनाह लेने की सलाह दी ।