Post – 2019-06-13

इस्लाम का प्रचार (क)

मुहम्मद साहब का लक्ष्य दूसरे कुरैशों की तरह रमजान के पाक महीने में आत्म शुद्धि के लिए उपवास या साधना न थी, अपितु एकेश्वरवाद के प्रचार करने के लिए नैतिक अधिकार प्राप्त करना था, इसलिए यह जाहिर करने के बाद कि उन्हें इलाही संदेश प्राप्त होने लगा है, दूसरों को अपना अनुयायी बनाने का अभियान शुरू करना ही था। ईश्वरीय संदेश उन्हें 40 साल की उम्र में मिलना आरंभ हुआ था।[[1]]
[[1]] The revelation of the Qur’an began in the laila al-qadr of Ramadan (one of the odd nights after the 21st till end Ramadan) after the Prophet Muhammad had passed the fortieth year of his life (that is around the year 610), during his seclusion in the cave of Hira’ on a mountain near Makka.

इसी के बल पर दूसरों को प्रभावित और धर्मांतरित करने का प्रयास कर रहे थे। सबसे पहले खादिजा को स्वयं यह नया मजहब अपना कर दूसरों के लिए उदाहरण पेश करना था। उन्होंने ऐसा किया भी। परंतु इसका परिणाम उनकी कल्पना के अनुसार नहीं निकला। बहुत कम लोग, सच कहें तो करीबी लोग ही इतनी विचित्र बात पर यकीन कर सकते थे।

अली उनके चाचा के पुत्र थे और किशोर वय के थे। उन्होंने मुहम्मद और खादिजा को सजदा करते देखा तो उन्हें यह कुछ विचित्र लगा। उन्होंने पूछा, आप लोग यह क्या कर रहे हो? मुहम्मद ने बताया अल्लाह ने अब इसे ही नए मजहब के रूप में चुना है। आओ, तुम भी शरीक हो जाओ । अली ने उसी समय या अगले दिन नया मजहब कबूल कर लिया। इसके बाद से वह आजीवन मुहम्मद के सबसे पक्के अनुयाई बने रहे। वह उनके लिए अपनी जान देने या किसी की जान लेने को तैयार रहते थे।

जैद बिन हरीथा बानी कल्ब नाम के एक ऊंचे कबीले में पैदा हुआ था। अभी बच्चा ही था जब अपनी मां के साथ किसी देवता का दर्शन करने जा रहा था। लुटेरों ने उसे लूट लिया। खादिजा को इसका पता चला तो उन्होंने उसे खरीद लिया। कुछ समय बादजब उसके पिता को इसकी खबर लगी तो वह आए। मुहम्मद साहब ने कहा यदि वह अपने पिता के साथ जाना चाहता है तो जा सकता है। उसने मुहम्मद साहब के साथ ही रहना चाहा। इसके बाद मुहम्मद साहब ने उसे गुलामी से मुक्त कर दिया और अपना दत्तक पुत्र बना लिया(This slave now became a free man, and was called Zaid bin Muhammad, ) । वह उनका दूसरा अनुयाई बना।

इस्लाम कबूल करने वाले तीसरे व्यक्ति अबू बक्र थे, जिनका ना्म अब्दुल्ला बिन उस्मान था। मुहम्मद से दो साल छोटे थे, वह उसी मुहल्ले में रहते थे जिसमें खादिजा रहती थीं, और संभवतः पहले से ही हनीफों (सच्चे धर्मनिष्ठों) के विचार के कायल थे।

सईद बिन अबू वक़्क़ास मुुहम्मद के मौसेरे भाई थे, और जुबैर बिन अल अव्वाम खादिजा का भतीजा था।

इस तरह प्रचार आरंभ होने के एक साल में पांच ही लोग ऐसे मिले जो उनके दावे के कायल हो पाए।

हम यहां जिस पक्ष पर जोर देना चाहते हैं वह यह कि इस्लाम की ओर आकर्षित होने वाले लोग न किसी वैचारिक पक्ष से उसके कायल हुए थे न ही आध्यात्मिक पक्ष से प्रभावित हुए थे। अल्लाह के हुक्म और डर के अलावा उनके पास अपनी कोई पूंजी नहीं थी। इस्लाम आज तक डरने वालों और डराने वालों का मजहब है। अकारण भी ‘ईमान खतरे में है’ से आरंभ होकर दुनिया के लिए खतरा बन जाने का दूसरा नाम इस्लाम है। इसे समझे बिना बात बेबात असुरक्षित होने की चिंता समझदार समझे जाने वाले मुसलमान भी क्यों उठाते रहते हैं और कम समझ के मुसलमान ही सीदी कार्रवाई पर क्यों उतर आते हैं इसे समझा नहीं ता सकता।

यह दावा भी कि वह अल्लाह के संपर्क में है, जो कुछ कह रहे हैं वह उसकी ओर से कह रहे हैं, काम न आया। जो डर पैदा करना चाहते थे वह डर पैदा नहीं हो रहा था। उल्टे इसके कारण ही लोग उनका मजाक उड़ाने, उन्हें झूठा, मक्कार, फरेबी कह कर चिढ़ाने लगे थे। रास्ता चलना मुश्किल हो रहा था। इस मोहभंग के बाद इल्हाम के नाम पर लोगों को अपने विचारों का कायल बनाने के नुस्खे से काम नहीं लिया गया। मुहम्मद साहब को इल्हाम आना बंद हो गया। इसे मुस्लिम धर्मनिष्ठा में फत्रा कहा जाता हैं और माना जाता है कि ऐसा एकाएक हुआ था ।[2]
[2]After the first message thus received, revelation ceased for a certain period (called fatra).

इसके बाद मुहम्मद साहब ने अपना तरीका बदल दिया परंतु अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। वह इक्के दुक्के लोगों से सीधे संपर्क साधने लगे । इसमें पहले तरीके से अधिक सफलता मिली और वह उनमें से कुछ को अपने मत में ढालने में कामयाब हुए। कुछ वृद्धि बाद में भी रिश्तेदारों के कारण हुई। जैसे, अपनी बहादुरी के लिए मशहूर उस्मान बिन अफ्फान ने मुहम्मद साहब की बेटी रुकैया से शादी की। इस तरह धीरे धीरे यह संख्या 40 तक पहुंच गई।

नया मजहब अपनाने वाले दूसरों की तंज से बचने के लिए छुप-छुपकर मिला करते थे। इनमें से एक था अल अरक़म जिसका घर शहर से एक छोर पर सुनसान से इलाके में था। मुहम्मद साहब ने प्रचार के लिए इसी को अपना गुप्त ठिकाना बनाया। इस बार उन्होंने अपनी धाक जमाने के लिए उस तरीके को अपनाया जिसकी सलाह कौटल्य ने मिथ्या प्रचार के लिए छद्मवेशधारी साधुओं के संदर्भ में दी है।[[2]]
[[2]] मुण्डो जटिलो वा वृत्तिकामस्तापसव्यञ्जनः ॥ स नगराभ्याशे प्रभूतमुण्डजटिलान्तेवासी शाकं यवमुष्टिं वा मासद्विमासान्तरं प्रकाशमश्नीयात्, गूढमिष्टमाहारम् ॥ वैदेहकान्तेवासिनश्चैनं समिद्धयोगैरर्चयेयुः ॥ शिष्याश्चास्यावेदयेयुः – “असौ सिद्धः सामेधिकः” इति ॥
समेधाशास्तिभिश्चाभिगतानामङ्गविद्यया शिष्यसंज्ञाभिश्च कर्माण्यभिजने अवसितान्यादिशेत्- अल्पलाभमग्निदाहं चोरभयं दूष्यवधं तुष्टिदानं विदेशप्रवृत्तिज्ञानम्, “इदमद्य श्वो वा भविष्यति, इदं वा राजा करिष्यति” ॥

मुहम्मद साहब ने कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़कर अपना तरीका नहीं निकाला था। कौटल्य भी अपना प्रभाव जमाने के लिए और लोगों से अपनी बात मनवाने के लिए जिस तरीके का इस्तेमाल लोग किया करते हैं, उसी का सहारा लेने की सलाह दे रहे थे। इस में महत्वपूर्ण बातें वह है (1) सन्यासी या सिद्ध योगी का बाना धारण करना, (2) किसी ऐसे एकांत स्थल की तलाश करके, जहां लोगों का बहुत कम आना जाना हो अपना आसन जमाना; (3) वेश-भूषा तथा खान-पान में निरालापन पैदा करना जिसे सुनकर लोग हैरान रह जाएं; (4) अपने माहात्म्य के प्रचार के लिए शिष्यों या भक्तों को जहां-तहां भेजकर अपना यशोगान कराना; (4) उत्सुकता में आने वाले लोगों को किसी न किसी अनिष्ट की आशंका जता कर उनमें भय पैदा करके उद्धारक के रूप में अपनी भूमिका में विश्वास पैदा कर के समर्पण का मानसिकता पैदा करना।

जो भी हो, इस पृष्ठभूमि में ही हम मुहम्मद की नई योजना को समझ सकते हैं। परंतु इसका ख्याल उन्हें चौथे साल में किसी व्यक्ति या पुस्तक के माध्यम से नहीं, इलहाम के माध्यम से ही आया[3]:

[3]Narrated Jabir bin ‘Abdullah Al-Ansari while talking about the period of pause in revelation reporting the speech of the Prophet, ‘While I was walking, all of a sudden I heard a voice from the heaven. I looked up and saw the same angel who had visited me at the Cave of Hira’ sitting on a chair between the sky and the earth. I got afraid of him and came back home and said “Wrap me (in blankets)” and then Allah revealed the following holy verses (of the Qur’an): O you covered in your cloak, arise and warn (the people against Allah’s punishment) … up to “and all pollution shun”.’
After this revelation came strongly and regularly. [Bukhari, I, end of No. 3.]

मोहम्मद साहब ने इस बार अपनी पूरी जीवन शैली उसी तरह बदल ली जैसी कौटिल्य ने सलाह दी है। इसे हम अपने शब्दों में बयान न करके सेल के शब्दों में रखना चाहेंगे:
It is said that the order of the God ‘arise and warn’ now and that the missionary propaganda took a more active form and wider form. The believers met, though as yet as a secret Society In the house of al-Arqam, a recent convert. It was situated on the slope of Mount Saf, Muhammad removed to it about the fourth year of his mission, as a place where he could carry on his work peacefully, end without interruption. It was far more suitable for meetings for which publicity was not required than the rooms in the crowded city would have been. All who were inclined to Islam were brought there and received teachings. there seems to have been a certain amount of mystery kept up by Mohammad. it is said that he habitually wore a veil, and this practice may I have begun at the time of these mysterious seances, of which It served to enhance the solemnity. Scrupulous care was bestowed by him on his person; every night painted his eyes and his body was at all times fragrant with perfume. His hair was suffered to grow long till it reached his shoulders.
मुसलमानों की खास जीवनशैली की बारीकियों को मुहम्मद साहब की इस जीवनशैली के विना नहीं समझा जा सकता।