Post – 2019-06-11

एक का अमृत दूसरे का जहर

राजनीतिक संगठन और किसी विचारधारा से लोगों का बड़े पैमाने पर जुड़ाव नई चीज है। इससे पहले लोगों को जोड़ने का एकमात्र आधार मजहबी धार्मिक मान्यता हुआ करती थी। मकी सामाजिक भूमिका को प्रायः विचार के केंद्र में नहीं रखा जाता। फिर भी आध्यात्मिकता की तुलना में सामाजिकता के विषय में हम अधिक आश्वस्त हो सकते है।

खादिजा (मुहम्मद साहब) के सामने यह बात बहुत स्पष्ट थी की एक देवता में विश्वास 360 देवताओं की पूजा करने वाले और इसके कारण बिखरे, झूठी शान पर अकारण टकराते रहने वाले समुदायों को जोड़ने का महामंत्र हो सकता है।

सबसे ऊपर एक ईश्वर है, जिसने यह सृष्टि रची है और इसे चला रहा है, यह विश्वास अरबों के लिए नया नहीं था। उस सर्वोपरि सत्ता के लिए ‘अल्लाह’ शब्द का प्रयोग भी पहले से होता आया था। परंतु उसमें विश्वास उनके आराध्य देवों या देवियों में विश्वास में बाधक नहीं था।

मुहम्मद साहब के पहले से उनकी अपनी ही जमात के, अपने को हनीफ कहने वाले, परमेश्वर को छोड़ कर किसी अन्य देवता को नहीं मानते थे, इसलिए बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के विरोधी थे। उनसे पहले से यहूदी और ईसाई बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के शत्रु थे और उनसे अरबों का कोई विरोध न था, क्योंकि उन्होंने उनके देवों-देवियों को साथ या उनकी मूर्तियों के साथ छेड़छाड़ नहीं की थी, यहाँ तक कि मरियम को देवी मानने और पूजने पर भी आपत्ति नहीं की थी। जैसा हम देख आए हैं, इस मामले में, तब तक स्थिति भारत जैसी ही थी। परंतु जो लोग यह मानेंगे वे भी यह नहीं मान सकते कि इन सबसे पहले भारत में एक भागवत मत पैदा हुआ था जो सभी देवियों-देवताओं, तत्वचिंतन के सभी रूपों, कर्मकांड के सभी विधानो को हेय बताता हुआ,साधना की सभी विधियों , पूजा और उपासना की सभी रीतियों को तुच्छ सिद्ध करते हुए, अपने प्रति समग्र समर्पण की मांग करता था – सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।

यह शरणागत होना क्या था?

जो कुछ भी करो राग द्वेष से मुक्त हो कर करो। यह मानकर करो कि तुम जो कुछ भी कहते या करते हो, जो भी सोचते हो वह तुम नहीं मैे कह, कर और सोच रहा हूँ। इसके बाद अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य जैसा कुछ रह ही नहीं जाता। इस दशा में यदि कोई ऐसा काम किया जिसको पाप कहा जाता है तो उसके परिणाम (नरक भोग) से मैं मुक्त कता हूं , मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34 इसके पूरा होने पर ही यह “अहम्‌ त्वा सर्व-पापेभ्यः मोक्ष्ययिष्यामि, मा शुचः। 18.66” की छूट या इम्युनिटी मिल सकती है।

मैं यह नहीं कहता कि मुहम्मद साहब गीता से प्रेरित थे, क्योंकि हमें यह भी पता नहीं कि हनीफ, जो अरब के सबसे प्रबुद्ध माने जाने वाले लोग थे, और जिनके माध्यम से ही खाजिदा या मोहम्मद साहब को इसका ज्ञान हो सकता था, वे स्वयं गीता से या किसी ऐसे स्रोत से परिचित थे या नहीं, जिससे उसका सारतत्व अरब के सुशिक्षित समाज की चेतना का हिस्सा बना हो।

परंतु सादृश्य इतना प्रबल है, और पश्चिम में इसकी परंपरा दिखाई नहीं देती, इसलिए यह मानने का प्रलोभन होता हैं कि अदृश्य तार जुड़े हुए हैं। यदि आप चाहें तो कह सकते हैं कि इस्लाम के नाम पर, उसकी झक में जो कुछ सोचा और किया जा रहा था, वह गीता के दर्शन से अनमेल नहीं है, यद्यपि उसकी भावना के अनुरूप नहीं है।

किसी दर्शन या दार्शनिक निष्पत्ति का एक चिंता धारा में जो स्थान होता है वह उससे बाहर की चिंता धारा में उसी रूप में सुरक्षित नहीं रह पाता। उसका यांत्रिक अनुप्रयोग होने लगता है, और परिणाम उल्टे हो जाते हैं। उसकी भावना लुप्त हो जाती है, वह यांत्रिक अनुपालन और उससे तनिक भी विचलित न होने के संकल्प में बदल जाता है। धर्मयुद्ध उद्दंडता में बदल जाता है।

गीता के मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ 7.7 (धनंजय! मुझसे ऊपर कोई नहीे है , और मुझसे अलग कुछ नहीं है। जैसे माला के धागे में मनके पिरोए रहते हैं उसी तरह सब कुछ मुझसे जुड़ा हुआ है), में आप चाहे तो ‘ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुन रसूलुल्लाह’ का मूल स्वर सुन सकते हैं।

प्रश्न यह नहीं है इस्लाम के रूप में क्या नया आया जो पहले नहीं था, प्रश्न यह है कि जो मुहम्मद साहब से पहले से जो कुछ विद्यमान था, उसको उनके द्वारा किस रूप में उपयोग में लाया गया, किन परिस्थितियों में उसका चरित्र बदला और विश्व सभ्यता पर उसका क्या प्रभाव पड़ा।

खादिजा/मुहम्मद साहब के साथ समस्या यह थी अल्लाह को सबसे ऊपर मानने के साथ यदि अपने अपने आराध्य देवों/ देवियों की उपासना चलती रहे, जो आज तक चलती आई है, तो सामाजिक बिखराव तो बना ही रहेगा। इसलिए अल्लाह की श्रेष्ठता के साथ दूसरे सभी देवों का निषेध एक मात्र उपचार था, जिसके लिए आध्यात्मिक श्रेष्ठता, उसके लिए जरूरी साधना, और सिद्धि तक पहुंचने का दावा तीनों की जरूरत थी और इसी का प्रबंध रमजान के पाक महीने में की जाने वाली एकांत साधना के रूप में आरंभ हुआ था।

इसमें कहीं कोई पाखंड नहीं था। साधना करने वाले कठिन साधना से, परमब्रह्म का साक्षात्कार कर सकते हैं, अलौकिक शक्ति पा सकते हैं, जो चाहें, कर सकते हैं, इस विश्वास से हम परिचित हैं (अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा | प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः ||) ऐसी कठिन साधना से सिद्धि कितने लोगों को मिली इसका हमें ज्ञान नहीं। परंतु ऐसे अनेक लोगों से हम परिचित रहे हैं, जो साधना के चक्कर में अर्धविक्षिप्त हो गए। तपभ्रष्ट योगी शब्द से हम सभी परिचित हैं।

इस्लाम में धार्मिक निष्ठा रखने वालों को यह समझने में कठिनाई हो सकती है कि मैंं अपने विवेचन में मोहम्मद साहब की तुलना में खादिजा को इस पूरे अभियान में प्रधानता क्यों दे रहा हूं। कारण यह है कि आयु में, अनुभव में, एकेश्वरवादी सोच रखने वालों से परिचय और अपने साधनों के कारण, अरब के विद्वत वर्ग के निकट संपर्क में आने के कारण वह अधिक प्रबुद्ध थीं । वह उस कारोबार की स्वामिनी और संचालिका थीं, जिसमें मोहम्मद साहब को एक ऊंचा स्थानपति के रूप में चुने जाने के कारण मिल गया था अन्यथा इन सभी दृष्टियों से वह खादिजा से न्यून पड़ते थे। वह उनकी योजना को क्रियान्वित करते हुए ही अपनी शक्ति और महत्व प्राप्त कर सकते थे। एक बड़े व्यापारी के रूप में उन कठिनाइयों से उन्हें ही गुजारना पड़ा होगा जिन्हें व्यापारिक आवागमन में कबीलों के बंटे होने के कारण सहना पड़ता था। अरब को एक करने का स्वप्न और संकल्प केवल उनका हो सकता था।

मोहम्मद साहब की साधना में व्यवधान के कारण उनकी अपनी विक्षिप्तता, प्रेतबाधित होने के उनके भय, और उनको इस बात का कायल करने के लिए कि उन्हें प्रेत ने नहीं जिब्रील ने आगोश में लिया था, खादिजा द्वारा अपनाया गया तरीका, और उनमें पैगंबर होने का विश्वास जगाने का प्रयत्न उनकी सूझ, संकल्प और विषम परिस्थितियों को भी संभाल कर उनका मनोवांछित उपयोग करने की क्षमता को प्रकट करता है।
[[When Mohammed awoke from his trance he was much alarmed. Then Khadija Knowing What had happened, and hearing him say that he feared that he was mad, took him to Waraqa bin Nauful and said, ‘O cousin, Listen Mohammad and here what is saying.’ Waraqa replied, ‘ O my brother’s son, what hast thou seen? 10 Muhammad told him what had happened. Waraqa On hearing the account said, ‘This was Namus, which God sent down upon Moses.’ ]]

यही कारण है कि यह मानने की बाध्यता होती है उनके जीवन काल में वह जो कुछ करते रहे उसकी पूरी योजना खादिजा की थी। सूत्रसंचालन उनके हाथ में था और मोहम्मद साहब तब तक उनकी कठपुतली की भूमिका में थे, यद्यपि दुनिया की नजर में नेतृत्व वही कर रहे थे।