पैगंबरी की पृष्ठभूमि
महान विभूतियों के साथ एक दुर्भाग्य जुड़ा होता है। किसी भी कारण से मातृ-स्नेह से वंचित रह जाना। यह अभाव किसी दूसरे की उदारता से पूरा नहीं हो पाता। इसकी दो विरोधी परिणतियां होती हैं। या तो ऐसा व्यक्ति अति संवेदनशून्य और निष्ठुर, (पत्थर दिल) हो जाता है , या इतना संवेदनशील कि पूरी दुनिया का दुख उसका अपना दुख बन जाता है।
एक दूसरी प्रवृत्ति यह पैदा होती है – अपने संपर्क में आने वाले लोगों के मनोभाव को बारीकी से देखने और समझने की, अपनत्व दिखाने वाला व्यक्ति सचमुच स्नेह करता है या दिखावा, इसे परखने की प्रवृत्ति। मोहम्मद साहब के पिता तो उनके जन्म से पहले ही चल बसे थे, जन्म से लेकर 5 साल की उम्र तक उन्हें अपनी मां के स्नेह से ही नहीं, नजर से भी दूर रहना पड़ा था। फिर मां के पास आए तो एक साल के भीतर उनका साया भी न रहा। दादा ने 2 साल तक पारिवारिक बांदी के माध्यम से पाला और फिर वह भी गुजर गए। चाचा ने उसके बाद देखभाल का भार संभाला और ऐसा लगता है कि उन्होंने उन्हें बहुत स्नेह से पाला-पोसा। मोहम्मद के कठोर परिस्थितियों में भी हार न मानने की प्रवृत्ति और जो कुछ सही लगता है उसे किसी भी कीमत पर करने को तैयार रहने की प्रवृत्ति को इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए समझा जाना चाहिए।
मोहम्मद साहब के पैगंबर बनने में जिस व्यक्ति की भूमिका सबसे प्रधान थी, वह थी वह महिला जिसे केवल बहुत धनी के रूप में याद किया जाता है, पर उसके अनुभव और कौशल की दाद नहीं दी जाती, जिससे वह महिला होते हुए इतना बड़ा कारोबार चलाती थीं ।
अपने चाचा अबू तालिब के कहने पर काम धंधे के सिलसिले में वह मिले उससे पहले उन्हें उनके बारे में सभी जरूरी जानकारियां प्राप्त थीं। कंकड़, पत्थर और हीरे में फर्क करने वाली इस जौहरी को पहली मुलाकात में पता चल गया था कि उसके हाथ क्या आया है और उसे तराश कर क्या बनाना है।
सामान्यतः यह माना जाता है कि मुहम्मद साहब ने एक धनाढ्य विधवा से विवाह किया। यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि उस महिला ने अपने शौहर के रूप में मोहम्मद साहब को चुना और उन्हें उन भूमिकाओं के लिए तैयार करना शुरू कर दिया जो मात्र संपदा से संभव नहीं थीं। अरब को अपने आत्मसम्मान और राष्ट्रीय एकजुटता के लिए एक नए नेतृत्व की जरूरत है, यह उसकी सूझ थी। अनुभव, ज्ञान, बुद्धिजीवियों से संपर्क और संवाद के मामले में वह मोहम्मद साहब से बहुत आगे थी। उनके माध्यम से ही वह भारतीय चितन से परिचित रही हो सकती हैं। मोहम्मद साहब उनकी तुलना में कम उम्र के ही नहीं थे, इन सभी दृष्टियों से उनके सामने किसी गिनती में नहीं आते थे। उनकी दौलत ने बाकी कमियों को पूरा कर दिया था। अपने सपने के अनुसार मुहम्मद साहब को तराशने का काम उनको करना था। यह दायित्व उन्होंने पूरी कुशलता से पूरा किया।
धार्मिक आस्था के लोग समझ से परहेज करते हैं, इसलिए वे मान सकते हैं मोहम्मद साहब को अल्लाह ने पैगंबर बनने के लिए भेजा था, परंतु एक इतिहासकार को कारकों, कार्यों और परिणतियों से बाहर जाने की छूट नहीं है, इसलिए उसकी विवशता के कारण वह सच्चाई सामने आ पाती है जो श्रद्धा के अतिरेक से हमारी नजर से ओझल रह जाती है। खादिजा के प्रति धर्मांध मुसलमान भी श्रद्धा रखते होंगे, परंतु उनकी वास्तविक भूमिका को समझने को वे कभी तैयार नहीं हो सकते क्योंकि इससे मोहम्मद साहब की महिमा पर आँच आती है। इतिहासकार के रूप में इस्लाम के विकास को समझने वाले यदि खादिजा की भूमिका को रेखांकित नहीं कर पाते हैं तो वे इतिहासकार नहीं है।
यह ध्यान रखना होगा क कि मोहम्मद साहब में पैगंबरी की संभावनाएं हैं, ऐसी कहानियां उस सौदागरी के साथ आरंभ होती हैं जिस पर मोहम्मद साहब को दूने माल-असबाब के साथ भेजा गया था। उस बीच ही एक सन्यासी या बौद्ध भिक्षु खादिजा को बताता है कि मुहम्मद पैगंबर बनने वाले हैं। हिरा पर्वत की गुफा में साधना के समय खादिजा मोहम्मद साहब के साथ मौजूद रहती हैं। वे विचित्र अनुभव जो उनको पहले इल्हाम के साथ हुए, और उनसे जुड़ी कहानियों के केन्द्र में खादिजा रहती हैं, मोहम्मद साहब निमित्त बने रहते हैं। यह खादिजा ही थीं, जिनका संपर्क हनीफों और ऐसे विद्वानों से था, जिनके सीधे संपर्क में मोहम्मद साहब न आ पाते। यह ध्यान रखना होगा कि उनके चाचा अबू तालिब जो मोहम्मद साहब को हर तरह के संकट से बचाते रहे, मरते दम तक, मोहम्मद साहब के इसरार के बावजूद, इस्लाम कबूल नहीं कर सके। खादिजा के संपर्क में मोहम्मद साहब न आए होते उनकी रुझान इस ओर होती, यह सोचना मुश्किल है।
खादिजा की एक अन्य भूमिका यह थी कि जब जब उनको यह घबराहट होती थी कि कहीं उन पर कोई जिन तो सवार नहीं हो गया है, या वह पागल तो नहीं हो गए हैं, वह उन्हें समझा-बुझाकर एक नई भूमिका के लिए तैयार करने का काम लगातार करती हैं।
एक अन्य पहलू की ओर भी ध्यान देना होगा कि खादिजा के जीवन काल में मोहम्मद साहब के व्यवहार या विचार में उग्रता, मनमौजीपन या हिंसात्मक उपायों का प्रयोग देखने में नहीं आता। उनका सारा प्रयत्न आत्मरक्षात्मक बना रहता है। इसके बाद तरीका बदल जाता है। इसके कुछ और भी कारण हैं, और निश्चय ही उनकी भी एक भूमिका रहती है, फिर भी आरंभ में बहुदेववाद और मूर्ति पूजाके विरुद्ध उन्होंने जो तरीका अपनाया था उसे सत्याग्रह कहा जा सकता है। इस्लाम के इतिहास को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि को समझना बहुत जरूरी है।