Post – 2019-06-08

इस्लाम: मजहब या राजनीति

इस बात का निर्णय करना आसान नहीं है कि मुहम्मद साहब एक राजनीतिक नेता थे जिन्होंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मजहब को हथियार बनाया या धार्मिक रुझान के नेता जिन्होंने राजनीतिक चुनौतियों की ओर भी ध्यान दिया।

उनके व्यक्तित्व के दोनों पक्ष स्पष्ट हैं, परंतु यह आसानी से तय नहीं किया जा सकता कि दोनों पक्षों में किसकी प्रधानता थी।

हमारे सामने एक बात बहुत स्पष्ट है। समाज को किसी विशेष दिशा में ले जाने वाला कोई भी कार्यक्रम आध्यात्मिक नहीं होता, सामाजिक होता है। संगठित धर्मों का एक निश्चित राजनीतिक और सामाजिक लक्ष्य होता है । प्राचीन काल में धर्मनिरपेक्ष चिंतन लगभग असंभव था, इसलिए आंदोलन कोई भी हो, उसको ईश्वर या तत्वज्ञान का सहारा लेना पड़ता था और यह विश्वास पालना पड़ता था कि ईश्वर उसके महान लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होगा। इसलिए आंदोलनकारी का भक्तिभाव भी पाखंड नहीं हुआ करता था। अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर, अपने समाज, देश या मानवता के हित की चिंता करना भी एक उपासना है, और इसलिए अपने आप में एक आध्यात्मिक कार्य है।

मुहम्मद साहब के इलहाम के समय होने वाले अनुभवों को अनेक यूरोपीय विद्वानों ने बीमारी सिद्ध करने का प्रयत्न किया, पर वे भी मानते हैं कि बीमारी के दूसरे लक्षण उनमें न थे। वे उन पर, उस युग में, विचार कर रहे थे, जिसमें जड़वादी भौतिकवाद की तानाशाही थी। मार्क्स का चिंतन और दर्शन भी उसी की उपज था। तब तक परमाणु की आंतरिक संरचना का पता न चला था, जिसका एक घटक इलेक्ट्रान या चालक घटक भी है। योग, दूरानुभूति, सम्मोहन, परानुभूति आदि की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।

जड़ विज्ञान के प्रकाश से वंचित पूर्वी देशों में इनके प्रति इतना व्यापक विश्वास था कि कोई इन पर संदेह नहीं कर सकता था। सच्चाई दोनों अतियों के बीच थी। यदि मुहम्मद साहब ने अपनी एकांत साधना में बिना किसी गुरु के निर्देशन के योग, या हठयोग की साधना आरंभ की हो तो, सुनते हैं, उसके परिणाम वही होते हैं जो मुहम्मद साहब के मामले में देखने आते हैं।

[[हम अरब संस्कृति को समझने के अपने प्रयत्न में बार-बार भारतीय सादृश्यों का सहारा लेते हैं, जिससे कुछ लोगों को हमारे दृष्टिकोण में भारत-केंद्रिता की सीमा दिखाई देती होगी। ऐसा विशेष रूप से उन लोगों के साथ होगा, जो आज तक इसी तरह के साम्य उल्टी दिशा से दिखाते रहे हैं। हम कोई नई बात नहीं कर रहे है। मात्र दिशा बदल दे रहे हैं या कहें वे सर के बल खडे़ थे; हम उन्हें सीधा खड़ा कर रहे हैं ।

हम ट्रेडविंड और व्यापारिक मार्गों का अनुसरण करते हुए के केवल यह समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि व्यापार के साथ एक देश का माल ही दूसरे देश में नहीं जाता, भाषा और संस्कृति भी जाती है, विचार और संस्कार भी फैलते हैं। जब मुहम्मद साहब कहते हैं पूरब से मीठी हवाएं आती हैं , या जब अरब भारत को जन्नतनिशां ( स्वर्गोपम) कह कर याद करते हैं तो यह आने वाले माल से पैदा होने वाली समृद्धि का प्रतीकात्मक आख्यान है। भारतवासियों का अपना विश्वास, ‘धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे’ पश्चिम के नव-अर्जित आत्मविश्वास से कुछ ऊँचा ही पड़ेगा और यह आत्मविश्वास कई हजार साल तक बना रहा है जबकि पश्चिम को यह अवसर 4 दिन पहले मिला है। जैसा कि हमने अन्यत्र दिखाया है गीता के भक्ति योग के सूत्र वाक्यों का लगभग जैसे का तैसा कुरान में उल्लेख मात्र संयोग नहीं है। सजदा में अल्लाह के सामने दंडवत बिछ जाना, जानुपात, नमाज की मुद्राएं जिस परंपरा से जुड़ी हैं, वह सामी मजहबों की नहीं है।]]

व्यापारिक यात्राओं पर किशोरावस्था से ही आते-जाते, दूसरे समाजों और मत-मतांतरों के अनुभव और ज्ञान का मुहम्मद के मन पर गहरा असर पड़ा था और वह अपने देश और समाज को उन विकृतियों से मुक्त कराना चाहते थे। यह संकल्प निरंतर इतना दृढ़ होता चला गया था कि इसके लिए कठिन से कठिन संघर्ष करने और कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे। इस सचाई को मजहबी रुझान के लोगों ने मसीहाई अंदाज में पेश करने का प्रयत्न किया है।

धार्मिक विश्वास को औजार बनाने का एक कारण यह लगता है कि अरबों की कबीलाई सीमाओं को देखते हुए वैचारिक आग्रह काम का नहीं हो सकता था, उनको धार्मिक विश्वास और अंंधविश्वास के बल पर ही समझाया जा सकता था। हो सकता है आरंभ में उनकी कोई राजनीतिक आकांक्षा न रही हो; यह धार्मिक सुधार के क्रम मैं जागृत हुई हो, पर इस विषय में मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूं क्योंकि उनके सामने अरबों की राजनीतिक अस्थिरता और विदेशियों (रोम, अबीसीनिया और फारस) का बढ़ता हुआ दबाव, और धार्मिक मोर्चे पर सामी – यहूदी और ईसाई – और मज्दावादी अग्निपूजकों – का दबाव था जिसमेे अरबों के कुछ कबीले ईसाई, यहूदी या मज्दावादी हो चुके थे, यद्यपि अपने देववादी स्वभाव के अनुसार उन्होंने इन धर्मों को जिस रूप में अपनाया था, उनमें उनका मूल चरित्र बदल गया था (“Their Christianity was weak and gave place to Judaism.” Cannon Sell, p.2)। बात यहीं तक सीमित नहीं है। वे कुछ आस्था प्रतीकों को देवी या देवता मान कर पूजने और उनकी प्रतिमा मनाने लगे थे, और इनको देववादियों ने भी देवी या देवता मान लिया था, जिसका एक उदाहरण मरियम हैं। [[1]]

[[1]] A national movement required in central authority, a commanding personage, and a religious basis. The tribal sections, the lack of leadership, and the idolatry of Kaaba precluded the realization of these conditions.
The position of the affairs then was such that, If the political existence of Arabia to be saved, a change had to take place. The hour was right for it. A leader was needed who could unite the Arab tribes on religious basis and still preserve their conservative superstitious reverence for the Kaaba and the Hajj or the annual pilgrimages to Mecca. such was the position, when Muhammad was of an age to understand it, and it is no discredit to him that he was a patriotic Arab, desirous see his native land free from the enemies, and thus made united and strong. ib, 5]]

यदि हमारा अनुमान सही है तो यह प्रश्न विचारणीय रह जाता है कि इस आंदोलन की योजना किसकी थी और नेतृत्व का काम किसके हाथ में था और कौन इसमें निमित्त बना?

एक दूसरा प्रश्न, कि यदि राष्ट्रीय सरोकार मोहम्मद साहब के प्रेरक थे तो उनसे भारतीय मुसलमान क्या सीख सकते हैं। देश के प्रति उदासीनता या राष्ट्रनिष्ठा ?