आत्मगाथा
आपने इस बात पर गौर किया है कि मशीन एक ओर तो हमारी शक्ति का विस्तार कर दी गई है और दूसरी ओर इंसानों की जगह कम करती चली गई है; मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों और यहां तक कि उसके दिमाग को कमजोर करती चली गई। पहले आदमी दौड़ता था, अब पहिया दौड़ता है, पहेली मनुष्य सोचता था आज कंप्यूटर सोचता है। पहले आंख देखती थी, आज कैमरा देखता है। मशीन पर हमारी निर्भरता अनुपात में हम पहले से कमजोर और दयनीय होते चले गए है। पहले आदमी लड़ता था अब आदमी को बचाने के लिए रोबो रोबो से लड़ने जा रहे हैं। मशीन आदमी के काम को छीनती जा रही है। मशीन के बढ़ने के साथ आदमी हाशिए पर खिसकता चला गया है। आदमी को काम नहीं मिल रहा है, और मशीन का काम फैलता जा रहा है।
हमारा इरादा बिल्कुल नहीं था कि हम एक ऐसे दौर में, एक ऐसी समस्या पर विचार करें, जिसमें निर्वाचन आयोग की नजर पड़े तो वह जवाब तलब कर ले कि आचार संहिता के लागू होने के बाद तुम ऐसा लेख कैसे लिख सकते हो, जिसका लाभ वह राजनीतिक दल उठा सकता है जिससे जवाब तलब किया जा रहा है, उसके राज में पहले के काम धंधे इतने कम हो गए हैं। दलील दूं कि अपनी ही तर्क श्रृंखला के चपेट में आकर इस समस्या से टकरा गया कि एक ऐसे देश में रोजगार की समस्या का समाधान कोई नहीं कर सकता, जिसमें हर 10 साल में एक नया देश पैदा हो जा रहा हो।
कोई देश अपनी समस्त मानव ऊर्जा का उपयोग न कर सके वह निकम्मों और बेरोजगारों की जमात तैयार करने से अपने को रोक नहीं सकता। जो देश ऐसे कामों के लिए जिन्हें मनुष्य विक्रम और कौशल से पूरा कर सकता, मशीन का सहारा लेता है, वह अपने देश के इंसानों का पेट भरने की जगह मशीनों का पेट भर रहा है, मशीनों के मालिक का
मशीनीकरण के बढ़ने के साथ-साथ संगठित क्षेत्र में एक एक मशीन कई कई आदमियों को बेकार करती चली जाएगी। जब कि असंगठित क्षेत्र में अच्छी मशीनों और औजारों के साथ एक एक आदमी कई गुना काम कर सकता है। किसी काम को करने के लिए जितने लोग जरूरी है से अधिक लोग लगाए जाएं तो काम पहले से कम होता है,
हर काम में विलंब तो होता ही है, और फिर होकर भी नहीं होता है, भ्रष्टाचार भी पैदा होता है। अब कोई काम नहीं करता है, जिसका काम है उसे गरज हो तो करा ले। लोग यह मान बैठते हैं कोई काम बिना लिए दिए हो ही नहीं सकता । लेना एक आदत बन जाती है देना एक लाचारी।
He explains this growth by two forces: (1) “An official wants to multiply subordinates, not rivals” and (2) “Officials make work for each other.” He notes that the number employed in a bureaucracy rose by 5–7% per year “irrespective of any variation in the amount of work (if any) to be done”.
मैं इसे एक निजी अनुभव से स्पष्ट करना चाहूंगा। मैंने सरकारी नौकरी डाक-तार महानिदेशालय में वरिष्ठ अनुसंधान सहायक के रूप मेंं आरंभ की। वहां एक वरिष्ठ अनुसंधान सहायक पहले से काम कर रहे थे। उनके साथ एक सहायक अनुसंधान सहायक था। हिंदी को सरकारी कामकाज में लागू करने के लिए पोस्ट ऑफिस मैनुअल, टेलीग्राफ गाइड हिंदी अनुवाद भी होना था। ओवरटाइम खटने के बाद भी काम संभल नहीं पा रहा था। संभालने का एक ही उपाय था कि वरिष्ठ अनुसंधान सहायक का एक और पोस्ट तैयार हो। पद तैयार किया गया और उस पर ता रूप में उसकी नियुक्ति भी हो गई। यह पद यूपीएससी से भरना था। इसी पर मेरा चयन हुआ था। विभागीय विशेषज्ञ पहले से वचनबद्ध थे, परंतु उनकी एक न चली। उन्होंने वरीयता क्रम पर उसे दूसरे नंबर पर रखवाने में सफलता पाई। यूपीएससी का चुना हुआ व्यक्ति यदि किन्हीं कारणों से नियत तिथि तक पदभार ग्रहण नहीं करता तो वह उस पद पर नियमित हो जाता। ग्रहण करने पर उसे निचले पद पर लौटना था। मेरे उपस्थित होने पर स्वागत की जगह मातम का जो दृश्य उपस्थित हुआ, उसके वर्णन का कोई लाभ नहीं। आनन फानन में सीनियर रिसर्च असिस्टेंट का एक नया पद सृजित किया गया, उस पर नियुक्ति के लिए प्रतीक्षा सूची में दूसरे व्यक्ति को रखने की व्यवस्था की गई, और उसे संजीवनी मिल गई। जो काम इतने दिनों से संभल नहीं रहा था और जिसके लिए यह पद तैयार किया गया था, मुझे दिया गया। मैंने 2 महीने के भीतर अनुवाद करके असिस्टेंट डायरेक्टर जनरल, हिंदी के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया ।
से बचा न हीं जा सकता और आगे बढ़ते हुए सभी को रोजगार नहीं दिया जा सकता। लोगों को अपना रोजगार स्वयं तलाशना होगा, जैसे आज भी असंगठित क्षेत्र के लोग अपना काम तलाशते और उसकी योग्यता पैदा करते हैं। तभी उनकी समझ में आएगा जनसंख्या को नियंत्रित करने में उनकी क्या भूमिका हो सकती है। कोई शासक