Post – 2019-03-29

बहकी बहकी बातें
आत्मराग

संगीत कारों को इस राग का पता नहीं परंतु दुनिया के सभी रागों और रागिनियों में सभी से मधुर है यह राग। इसे गाना सज्जनों को शोभा नहीं देता, सुनना सभी को प्रिय लगता है । सज्जन होता तो मैं भी इसे न अलापता। परंतु सज्जन बने रहने के लिए जरूरी है कि आपको यह राग समय असमय दूसरों से सुनने को मिलता रहे। आप को सज्जन या दुर्जन बनाने में आप से अधिक आसपास के लोगों की भूमिका होती है जो आपको समय रहते पहचान लेते हैं।जहां कोई पहचान है ही नहीं, आपकी शादी में नाचने वाले न मिलें और नाचने गाने वालों को खरीदने के लिए साधन भी न हो तो खुद ही नाच लेना चाहिए। ऐसा मौका सूना कदापि नहीं जाना चाहिए, नहीं तो लोग समझेंगे या आप अपनी जोड़ी को भगा कर ले जा रहे हैं। पुलिस अलग परेशान करेगी।

आत्मराग है अपने बारे में बात करना; अपने काम के बारे में बात करना; अपनों के बारे में बात करना; अपने जैसों के बारे में बात करना और क्योंकि आप मुझसे बात करते हैं, आपके बारे में भी बात करना। यह उस दशा में यदि जरूरी हो जाता है, जब आप हों कुछ और लोग आपको कुछ का कुछ समझ रहे हों। पहचान के लिए प्रतीक्षा की जा सकती है, परंतु ग़लतफ़हमी यदि समय रहते दूर नहीं की गई तो लेने के देने पड़ सकते हैं। आ जाएं दोस्ती का प्रस्ताव लेकर और अगला आपको दुश्मन समझ कर गोली मार दे; या हों दुश्मन पिस्टल लेकर अगले की जान मारने जाएं और वो आप को दोस्त समझकर हंसता हुआ और आप को गले लगा ले और आप सचमुच उसके दोस्त बन जाएं और आपको अपने दुश्मन से हाथ धोना पड़ जाए। आप हों सितार वादक (भले अच्छा सितार न बजाते हों) और आपको डफाली समझ लिया जाए, हाथ में डफली पकड़ा दी जाए और बजाने का आग्रह इतना बढ़ जाए कि आप उस पर दो-चार हाथ जमा भी दें। दुर्गति के असंख्य रूप होते हैं, उन्हीं में एक गलत पहचान भी है।

मैं अध्यापन करना चाहता था। अनुसंधान करने चला तो एक ज्योतिषी ने बताया आपका अनुसंधान पूरा हो ही नहीं सकता। योग ऐसा है तुम्हारे जीवन में अनुसंधान का अवसर बाद में मिलेगा। विश्वास नहीं करता था, आज भी नहीं करता, परंतु मेरा हाथ देख कर मेरे घर, परिवार, वर्तमान और भविष्य के बारे में उस ज्योतिषी ने जितनी बातें बताई थीं वे सभी सही निकलीं। यह ज्योतिषी थे रीतिकाल के विख्यात आलोचक और गोरखपुर विश्वविद्यालय के आदि विभागाध्यक्ष पंडित रमाशंकर शुक्ल रसाल। जिसे अपने अनुभव में अकाट्य पाया उस पर कभी भरोसा नहीं कर सका, क्योंकि उसका तार्किक आधार मेरी समझ में नहीं आया।

मुझे पूर्वानुभूति होती है। जागृत अवस्था में भी और सपने में भी। मैं इसकी संकेत भाषा को जानता हूं, परंतु किसी को समझाऊं तो हास्य रस की सृष्टि होगी। परिणाम का अनुमान करने के बाद भी आचरण इस तरह करता हूं मानो इसका कोई मतलब नहीं । इसमें समय और धन की जो क्षति होती है उससे बचा जा सकता था। परंतु तब इतनी बड़ी क्षति होती है जिस की पूर्ति अन्य तरीके से हो ही नहीं सकती।

इसके बाद भी चेतना में यह बहुत गहरे समाया हुआ हे कि जो अवश्यंभावी है उसे साधारण प्रयत्न से बदला नहीं जा सकता। इस नियतिवाद ने मुझे निकम्मा भाग्यवादी नहीं बनाया अपितु कठिन परिश्रम से नियति को बदलने का निश्चय पैदा किया किया। हानि-लाभ, यश-अपयश, भय और अपमान की चिंता से मुक्त होकर जो जैसा दिख रहा है वैसा कहने, जो न्याय संगत है उस पर यथाशक्ति अडिग रहने का संकल्प और साहस पैदा किया। जो कुछ मैंने किया वह किए बिना रह ही नहीं सकता था, वह मुझसे हुआ, इस विश्वास ने नम्र भी बनाया, और इतना दृढ़ भी कि अहंकारी होने का भ्रम पैदा हो जाय।

पेशा अध्यापन ही पसंद था। सरकारी नौकरी में जितनी पराधीनता होती है, उसमें स्वतंत्र चिंतन हो ही नहीं सकता। अच्छा अधिकारी अहंकारी हो सकता है स्वाभिमानी नहीं। यह सोच कर कुछ भी करने को तैयार था परंतु सरकारी नौकरी नहीं। वैदिक गणना के अनुसार डेढ़ युग तक जिंदा रहने के लिए जितने तरह के पापड़ बेले जा सकते हैं, उतने तरह के पापड़ बेलता हुआ प्रतीक्षा करता रहा आज नहीं तो कल, अध्यापन का काम मिल जाएगा, इसलिए सरकारी नौकरी से बचता रहा । आप जिससे बचना चाहेंगे उससे टकराने से बच नहीं सकते। साइकिल चलाना सीखने के क्रम में अर्जित इस शाश्वत सत्य के दबाव में 35 की उम्र में सरकारी नौकरी के अंतिम अवसर को लपकना पड़ा।

काम से काम रखने वालों की बीच काम पूरा करने के बाद भी बचे समय का उपयोग पढ़ने लिखने में करने वाले से शिकायत काम टालते रहने वालों की ऐसे आदमी से शिकायत स्वाभाविक है कि इनका मन काम में लगता ही नहीं। पढ़ने लिखने वालों से दूर, किताबों और पुस्तकालयों से दूर, अपनी जुगत से आधी अधूरी सामग्री से जुटाई गई सूचनाओं के आधार पर जो संभव हुआ वह किया। इसलिए मुझे न अपने किसी काम से संतोष हुआ, न कोई काम पूरा हुआ। पिछले काम के अधूरेपन को पूरा करने के सिलसिले में एक शोध के बाद दूसरा चलता रहा जो आज भी जारी है।

मैं राइटर नहीं फाइटर हूं। टूटी तलवार भांजता हुआ तोपों का मुंह मोड़ने की कोशिश करता अपने समय का Don Quixote. परंतु इस हास्यास्पद व्यंग्य का यथार्थ यह भी है कि कागजी तोपों के मुंह मोड़े ही नहीं तोड़े भी जा सकते हैं।

आज के विपक्षी दलों को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग की विभूतियां उन्हीं में से किसी न किसी के खूंटे से बंधी हैं। इस खूंटाबंदी को संस्कृत भाषा से परहेज के बावजूद एक सुसंस्कृत नाम दिया गया था जिसे प्रतिबद्धता कहते हैं। अंग्रेजी में इसे कमिटमेंट कहते हैें। मुझ जैसे अंग्रेजी की राहचलती जानकारी रखने वाले इसका मतलब लगाते है “गलती पर गलती करते रहने का और किसी गलती को गलती न मानने का संकल्प।” अपने कारनामों से इन्होंने कभी यह संदेह तक पैदा नहीं होने दिया कि इस अर्थ में कहीं कोई खोट है। मुझे ऐसे बुद्धिजीवियों की तोपों का ही सामना करना पड़ा।

ये बुद्धिजीवी गुलामी के मूल्यों में पले-बढ़े और उन्हीं की बदौलत अपनी कुर्सियों पर चढ़े होने के कारण भारतीय समाज को और स्वतंत्र भारत की अपेक्षाओं को समझ ही नहीं सकते, उन्हें पूरा करना तो दूर रहा। वे आज भी औपनिवेशिक मुहावरों में सोचते और बात करते हैं।

अन्य बातों में असहमति के बावजूद वे सभी एक बात पर सहमत रहे हैं वे मानवसमुद्र के मंथन से उत्पन्न झाग हैं, इसलिए समाज से ऊपर हैं। समाज का कर्तव्य है कि वह उन्हें शिरोधार्य करे। समाज के प्रति उनका कोई कर्तव्य नहीं है। उसे समझना भी जरूरी नहीं क्योंकि उसमें युगों पुरानी तरह तरह की विकृतियां भरी हुई हैं। समुद्र को चाहिए कि वह झाग बन जाये।