#इतिहास_दुबारा_लिखो
पुराण और सामाजिक इतिहास
वादाखिलाफी ही सही, पुराणों में लिखे सामाजिक इतिहास की चर्चा से पहले यह बताना जरूरी तो है ही कि हम किस पुराण की बात कर रहे हैे।
जिन पुराणों से हम परिचित हैं वे पुराण के विकृत रूप हैं। इनकी भाषा से पता चलता है कि ये बहुत बाद में लिखे गए। जिन पुराणों से हम परिचित हैं वे किसी एक पुराण की नकल हैं इसलिए सभी के कुछ विवरण एक दूसरे से पूरी तरह मिलते हैं। उस सामग्री में अपने सांप्रदायिक आग्रहों के अनुसार काल्पनिक कथाएं भरी गई हैं। कुछ कथाएं ऐसी भी हैं जो ब्राह्मणों के अपने हित के लिए जोड़ ली गई हैं। जोड़-तोड़ करने के लिए पुरानी ज्ञान संपदा को एक ओर तो छोड़ा गया, दूसरी ओर बदलाव किए गए। जिस युग में इन पुराणों का लेखन हुआ उनमें सामाजिक मूल्य बहुत बदल चुके थे। पुराणों के लेखन का उद्देश्य भी बदल चुका था। प्राचीन काल के वे मूल्य या विवरण जो पुराणों के लेखन के समय के मूल्यों के विपरीत या उनसे अनमेल पड़ते थे, उन्हें इनमें स्थान नहीं दिया गया। इसे इतिहासकार संशोधनवाद कहते हैं। इनकी भर्त्सना की जाती है और की जानी चाहिए, परंतु हमारा दुर्भाग्य है कि हमें संशोधनवादी इतिहास ही पढ़ने को मिले हैं।
पुराणों में बाद में जोड़ी गई सामग्री को आसानी से पहचाना जा सकता है। उसे अलग करने के बाद जो सामग्री बची रहती है उसकी अलंकृति को हटाकर निर्वचन किया जाना चाहिए था। ऐसा नहीं किया गया। पश्चिमी आरोपों के दबाव में आकर उनकी अपेक्षाओं के अनुसार अपने को सही सिद्ध करने के प्रयत्न में हमारे पुराणकारों का परिश्रम व्यर्थ चला गया। उनका ध्यान राजवंशों पर रहा और वे वंशावलियां तलाश करते रहे। वंशावलियां इतिहास नहीं होतीं। इतिहास सामाजिक अनुभव का सार सत्य है जिसमें घटनाओं तक का महत्व नहीं होता। उनको वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना और समझना होता है।
पुराणों के विषय में यह बात अवश्य की जा सकती है कि उन्हें आज के अर्थ में विश्वकोश बनाने का प्रयत्न किया गया। इसका एक धनात्मक पक्ष है कि भारत में इतने पहले इस बात की चिंता की गई कोई ऐसा ग्रंथ होना चाहिए जिससे हमें पहले की ‘समूचे’ ज्ञान का पता चल सके। परंतु आज की अपेक्षाओं को देखते हुए यह निहायत बचकाना था और अपनी ज्ञान संपदा का परिचय तक नहीं करा सकता था। इसका ऋणात्मक पक्ष यह है कि इसने प्राचीन ज्ञान संपदा का बहुत बड़ा अंश खो दिया या सचेत रूप में नष्ट कर दिया।
जब हम पुराण की बात करते हैं तो प्राचीन ज्ञान की बात करते हैं। पुराण अट्ठारह नहीं हो सकते, ज्ञान अट्ठारह नहीं हो सकता, इतिहास 18 नहीं हो सकता। फिर भी इनकी शाखाएं और अभिव्यक्तियां अट्ठारह सौ रूपों में हो सकती हैं।
मैं उस पुराण की बात करता हूं जिसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है, परंतु जिस का पूरा परिचय हमें ऋग्वेद से नहीं मिल सकता। प्राचीनतम माने जाने के बाद भी ऋग्वेद बहुत बाद की रचना है। उससे हम अपने पुराण या इतिहास को नहीं समझ सकते। फिर भी वह जिस जिस पुराण की बात कर रहा है, जिस इतिहास की बात कर रहा है, उसके माध्यम से हम सामाजिक इतिहास, शासकीय इतिहास, और वैचारिक इतिहास के अंतर को समझ सकते हैं।
ऋग्वेद में एक स्थल पर गाथा और पुराण का प्रयोग हुआ है। इसमें गाथा या व्यक्ति केंद्रित आख्यान को ही आधुनिक इतिहास का आदि रूप कहा जा सकता है। इसके पूरक पुराण में सामाजिक अनुभवों के भंडार की ओर संकेत है। ऋग्वेद की एक दूसरी ऋचा है, कि मैंने पितरों से दो परंपराओं का ज्ञान प्राप्त किया है। इनमें से एक सृष्टि और विश्वप्रपंच से संबंधित है और दूसरा मानव से संबंधित है। इनके भीतर ही समस्त ज्ञान समस्त मानसिक ऊहापोह चलता रहता है। इन्हीं की परिधि में हमारे पूर्वजों का इतिहास भी है- द्वे स्रुती अशृण्वं पितृणां अहं, देवानां उत मर्यात्यानां। ताभ्यां इदं विश्वमेजति समेजति। तदन्तरा पितरा मातरा च। इसी को लक्ष्य करके मैने सामाजिक इतिहास और वैचारिक इतिहास का अंतर बताया।
यहां मैं ऋग्वेद में आए पुराण को रेखांकित करते हुए याद दिलाना चाहता हूं कि ऋग्वेद की रचना मैं पौराणिक प्रतीकात्मक ता और आख्यान का उपयोग तो हुआ है पर उसमें पौराणिक सामग्री बहुत कम है। उसकी तुलना में ब्राह्मणों में कथाओं में महीकाव्योंं में और जो बचा रह जाता है वह पुराणों में अधिक पुरानेपन के साथ सुरक्षित रहता है। हम इस बात को दोहराते हैं कि पुराणों में बहुत कुछ मिलावट की गई है इसके बाद भी उनमें उपलब्ध कुछ सामग्री प्चीानतम अवस्था को समझने में सहायक होती है।
सामाजिक इतिहास के मामले में भारत से अधिक सजग दुनिया का कोई देश दिखाई न देगा क्योंकि इसमें आधुनिक इतिहास के बीज भी अधिक विवेक से सुुरक्षित किए गए हैं। गाथा का अर्थ है श्लाघ्य व्यक्तियों का यशोगान। जिस प्रशस्तिलेखन से इतिहास आरंभ हुआ, उसमें राजाओं के लिए स्थान था, परंतु समाज को प्रभावित करने वाले महान पुरुषों के लिए स्थान न था। गाथा में सभी के लिए स्थान था।
जब हम आरंभिक चरणों की बात कर रहे हों तो उन कालों की सीमाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए, यदि आप ऐसा नहीं कर पाते तो आप इतिहासकार नहीं हैं। परंतु मैं तो स्वयं इतिहासकार नहीं हूं, मैं कैसे कह दूं कि जो इतिहासकार माने जाते रहे हैं इतिहासकार थे ही नहीं। वे नोट तैयार करने वाले और उन नोटों को अपने ढंग से पेश करने वाले मुसाहिब थे। फिर भी मुझे यह मानने का अधिकार तो है ही कि उनकी कुर्सी का काठ उनके दिमाग में घर गया था। वे दिमाग से नहीं कुर्सी से काम ले रहे थे और इतिहास का लकड़धोंधों पाठ रहे थे ।
यह अच्छी आदत नहीं है। मैं स्वयं भी यह मानता हूं, कि मेरा तरीका बहुत सही नहीं है। बार बार पुराने लोगों के पूर्वाग्रहों को सामने लाकर अपना पक्ष रख कर, उनसे बड़ा बनने की चेष्टा यदि कहीं है तो यह मेरे कद को छोटा बनाती है। मैं स्वयं नहीं जानता कि मुझ में यह प्रवृत्ति है या नहीं, संदेह होता है कि मेरे प्रयत्न के बाद भी यह बनी रह सकती है इसलिए मेरी आलोचना करते हुए मुझे पढ़ें। परंतु जब हम प्राचीन मूर्तियों को देखते हैं और पाते हैं उनका मुंह तोड़ा गया है और फिर इतिहास पर नजर डालते हैे और पाते हैं इसे प्रयत्नपूर्वक विकृत किया गया है तो दरिंदगी के दोनों रूपों में अभेद दिखाई देता है।