Post – 2019-02-17

#इतिहास_दुबारा_लिखो
इतिहास हाजिर है

इतिहास वर्तमान के लिए जरूरी है, जैसे आपका पांव शरीर को खड़ा रखने के लिए जरूरी है; जैसे आप का मेरुदंड आपके तन कर खड़ा रहने के लिए जरूरी है, जैसे आपकी स्मृति आपको होश हवास में रखने के लिए जरूरी है। जो अपने इतिहास को नष्ट कर देता है वह अपने अतीत का गुलाम हो जाता है। वह अपने ही अतीत के किसी दरबे में पूरे समाज को घेर कर रखने वाले आतताइयों के आगे निरुपाय अनुभव करता है। यह कटु सत्य पोपतांत्रिक ईसाइयत, और उसकी दबोच में छटपटाने वाले यूरोप के विषय में भी सच है और उसके दबाव में, उससे मुक्त होने की कोशिश में, उसका अनुकरण करने वाले इस्लाम के विषय में भी सच है।

यूरोप का नवजागरण उस मोड़ पर होता है जब उसे ईसाइयत से पहले के अपने इतिहास का ज्ञान अरबों के साथ टकराव में लगातार मात खाने और उसका शिष्य बनने के बाद पैदा होता है। आत्मोद्धार का मार्ग शत्रुओं के शिविर से भी निकलता है, परंतु तभी जब आप शिष्य भाव से उसके सम्मुख उपस्थित होते हैं।

पुनर्जागरण का अर्थ है अपने विस्मृत अतीत का याद आ जाना, हम कभी जिंदा थे, और दुबारा जिंदा हो सकते हैं, इसका विश्वास पैदा होना।

ईसाई यूरोप ने जो पाठ अरबों के माध्यम से सीखा था , उसे अरब इस्लाम के प्रभाव में स्वयं भूल गए, कि उनका भी एक इतिहास था, भले वह बद्दुओं का इतिहास न रहा हो।

इतिहास विस्मृत पोपतांत्रिक यूरोप एक अर्धविक्षिप्त भूभाग था। अतीत से जुड़ने के बाद उसने आत्मज्ञान और इस ज्ञान से अपना पुनर्जन्म पाया, आधुनिकता के पथ पर अग्रसर हुआ और अपने इस्लामपूर्व के इतिहास से अपने को जोड़ न पाने के कारण, उससे प्रेरणा न ले पाने के कारण मुस्लिम समाज का आचरण आज भी अर्ध विक्षिप्त सा बना रह गया है। अर्ध विक्षिप्त का अर्थ है, उद्विग्न, बेचैन।

जो कहना था उसके लिए क्या यही भूमिका हो सकती थी? मेरा भी इलाज नहीं। कहना यह था, कि यह आरोप लगाया जाता रहा है कि भारत के पास इतिहास नहीं था। मिल ने तो यह भी जोड़ दिया कि किसी समाज के सभ्य होने का प्रमाण है उसका अपना इतिहास होना। भारत के पास इतिहास था ही नहीं, इसलिए भारत असभ्य था। अब आप यह समझ सकते हैं कि सभ्यता का आरंभ भारत में 1817 में हुआ जब पहली बार जेम्स स्टुअर्ट मिल ने भारत का इतिहास लिखा। दहशतगर्दी का इतना बड़ा समर्थक और प्रचारक इतिहास में ढूंढे न मिलेगा। उसने एक ही प्रहार से भारत को जो अपने को विश्व सभ्यता का जनक मानता आया था उसे धूल में मिला दिया। असभ्य सिद्ध कर दिया। हमें इस पर आश्चर्य नहीं है, आश्चर्य इस बात पर है कि भारतीय विद्वानों ने उसके इस कथन को न-न-नचु करते हुए स्वीकार भी कर लिया।

हम यह याद दिलाना चाहते हैं कि यूरोप के पास इतिहास का अंतिम पन्ना हाथ आ गया, उसकी किताब में पीछे के पन्ने ही गायब हैं। कृतज्ञता अनुभव करने, स्वीकार करने, और अपने गुरुजनों के प्रति विनय से पेश आने की तमीज तक भूल गया है। सफलता चढ़ न गई होती गुरुजनों के प्रति अदब से पेश आते, और यदि ऐसा नहीं कर सकते तो अपने को सभ्य नहीं कह सकते थे।

मिल के इतिहास में इतिहास वहां से शुरू होता है जहां इतिहास को नष्ट किया गया था, ईसाइयत के आरंभ से। उससे पहले के इतिहास को जानते हुए भी वह उसके प्रति अवज्ञा से पेश आता है, वह रोमन हो या ग्रीक, क्योंकि वे पैगन थे और उनके पास जो कुछ था इसलिए निंदनीय था, क्योंकि वह बहुदेववादी था, ईसाइयत की नजर में गर्हित था, इसलिए वे इतिहासबोध से वंचित थे।

इतिहास अतीतबोध और आत्मबोध का दूसरा नाम है, और इसलिए यह वहां से नहीं आरंभ होगा जहां से सम्राट अपने को अमर बनाने के लिए अपने कीर्तिगान अंकित कराते हैं, जहां से तिथि वार घटनाओं दर्ज किया जाना आरंभ होता है। इस इतिहास ने ही इतिहास निर्माताओं को इतिहास से वंचित कर दिया। यह सभ्यता का इतिहास हो ही नहीं सकता क्योंकि इसमें सभ्यता की नींव का भी पता नहीं है।

घटनाओं का क्रमबद्ध होना लाभकर है। यह कार्य और कारण को, पूर्वापर संबंध को समझने में सहायक होता है, इसलिए इसका उपहास नहीं किया जा सकता, परंतु इससे हमें बहुत छोटे काल खंड का, एक पक्षीय विवरण मिलता है, जिससे समाज ही गायब होता है। इसके पीछे के विवरण तो हासिल हो ही नहीं पाते।

दुनिया में दो तरह की इतिहास देखने में आते हैं। एक लेखन के आविष्कार के बहुत बाद, अपनी महिमा दर्ज कराने के लिए शासकों द्वारा प्रायोजित इतिहास है, दूसरा, वह, जिसके पास लेखन पूर्व के दसियों हजार साल का परंपरालब्ध विवरण है, जिसमें सामाजिक अतीतबोध किसी न किसी रूप में सुरक्षित है, जिसमें लेखन के बाद सैद्धांतिक ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का पुरातन संघर्ष सुरक्षित है, और तीसरा जो विचार की परंपरा से जुड़ा हुआ है। भारत में तीनों तरह के इतिहास पुस्तकालयों और संग्रहालयों के विध्वंस के बाद भी बचे रहे हैं। राजाओं का कीर्ति गान और उनका इतिहास निश्चय ही यहां नहीं पाया जाता। मार्क्सवादी इसे इतिहास मानते ही नहीं । लेकिन आश्चर्य होता है कि वे जनता का इतिहास खोजने की जगह उस इतिहास के स्रोतों को ही नकार देते हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो, विशद मानवीय इतिहास बोध उनके पास सुरक्षित रहा है जो किसी क्षेत्र में बहुत प्राचीन काल से बसे हुए हैं, अधूरा उनका जो कहीं अन्यत्र से आकर किसी भूभाग में बसे हुए हैं। पहले का इतिहास 30,000- 40,000 वर्ष का है जिसे वह कल्पनातीत दीर्घता के कारण सृष्टि के आदि से जोड़ कर लाखों वर्षों का इतिहास मानता रहा है।

यह इतिहास उस धूमिल अतीत तक जाता है जब न राजा थे, न मनुष्य का स्थाई निवास। देश के नाम पर एक विचरण क्षेत्र था, इसमें उत्पन्न होने वाले आहार के स्रोतों का उसे ज्ञान था। यह इतिहास तब से आरंभ होता था जब मनुष्य के पास अभिव्यक्ति और संचार के विकसित साधन नहीं थे। अंग चेष्टा से इतर कोई संकेत प्रणाली नहीं थी। इस विशेष स्थिति के कारण, इस इतिहास को:-
(1) सामाजिक इतिहास होना था;
(2) इसको मौखिक परंपरा से हस्तांतरित करना था;
(3) इसकी रक्षा के लिए मौखिक विवरणों को रोचक बनाने की आवश्यकता थी;
(4) रोचकता के लिए अतिरंजना आदि का सहारा लिए जाने के कारण, इतिहास को बचाए रखने के बावजूद उसे विश्वसनीय रूप में बचाया नहीं जा सकता था;
(5) मौखिक परंपरा से सीमित अनुभवों और घटनाओं को ही बचाया जा सकता था;
(6) काल की दीर्घता को देखते हुए, पुराने वृत्तों को बचाने की चिंता के कारण नई घटनाओं को इसमें तभी स्थान मिल सकता था जब वे सामाजिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्वपूर्ण हों;
(7) इतिहास का यह अंतरण किसी योजना के अनुसार नहीं था इसलिए अलग-अलग अंचलों में, अलग-अलग समुदायों में भिन्न विरासत के कारण, अधिकाधिक स्रोतों से उपलब्ध जानकारी का स्तर दूसरों की अपेक्षा बहुत ऊंचा हो जाता था;
(8) लेखन का आरंभ होने से पहले तक, सच कहें तो हजारों साल बाद तक, जब लिखित ज्ञान भंडार बहुत सीमित था, ज्ञानी व्यक्ति को बहुपठित नहीं सुश्रुत, बहुश्रुत, श्रुतज्ञ और श्रुतवान कहा जाता था;
(9) इतने विराट इतिहास में अतिरंजना के कारण असाधारण क्षमता वाले नेताओं और राजाओं के सम्मुख व्यक्तियों का, वे शासक ही क्यों न हो, कोई महत्व नहीं था;
(10) राजाओं की तुलना में साधकों और चमत्कारी पुरुषों का महत्व अधिक था जो समाज को नई दिशा देने और बदलने में राजाओं की तुलना में अधिक समर्थ थे और अपना महत्व प्रकट करने के लिए अपने विषय में भी अतिरंजित दावे करते थे;
(11) ऐसे समाज में लेखन के बाद भी गाथाओं और साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से प्राचीन काल में हुए व्यक्तियों के चरित्र का समावेश आरंभ हुआ;
(12) भारत में जो मूल्य प्रणाली विकसित हुई उसमें आत्मप्रदर्शन, दंभ और भौतिक सुख हेय माने जाते रहे, इसलिए राजाओं ने भी अपनी मुद्राओं पर ना तो अपना नाम अंकित कराया, न ही की मूर्तियां स्थापित कीं, न ही प्रशस्तिगान को प्रश्रय दिया, फिर भी उनसे दान दक्षिणा पाने वाले कवि उनका विरुद गान करते रहे और ताम्र पत्रों आदि पर लिखे गए अतिरंजित विरुद मामूली जमीदारों को भी महाराज के रूप में याद कर सकते थे।
जो भी हो हमारी जानकारी के अनुसार भारत अकेला देश है जिसमें सामाजिक इतिहास के अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध हैं। ये समाधान विकास के विविध चरणों से संबंधित है और इतने विश्वसनीय हैं कि इनका खंडन नहीं किया जा सकता। इनकी और दूसरे चरण की जो सूचनाएं हमें अपने प्राचीन साहित्य में मिलती हैं उनकी चर्चा हम कल करेंगे।