बहुबंसे निर्बन्स
ऋग्वेद के जिस सूत्र का उल्लेख हम ऊपर कर आए हैं, उसका एक भोजपुरी संस्करण है – बहु बन्से निर्बन्स। इसका ज्वलंत उदाहरण है मुगल वंश जिसका कोई नामलेवा नहीं रह गया। मध्यकालीन भारत का सबसे चमकीला, रोबीला वंश, जिसे उस दुनिया की बादशाहत का गुमान था, उसका कोई नामलेवा नहीं!
सैकड़ों हजारों की संख्या में पुश्त-दर-पुश्त बसने वाले हरम। कितनी सन्तानें पैदा हुईं? उनका क्या हुआ? इसकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। लखनऊ के नवाब का वंशधर होने का दावा करने वाले हजारों में हैं। उनमें से कुछ कभी तांगा चलाया करते थे, आज भी कुछ करते होंगे। हो सकता है, वजीफे की रकम का धेला पाने के लिए सजते हुए रुपया खर्च करते थे, उन पर दया करते हुए इंदिरा जी ने राजाओं का प्रीवीपर्स बंद करते हुए उनका वजीफा भी बंद कर दिया हो। ऐसा ही हाल टीपू सुल्तान की बच्चों का जो, सुना, रिक्शा चलाया करते हैं। तंगहाली में ही सही, कोई तो होता इस दिल्ली शहर में, जो अपने को मुगल खानदान का उत्तराधिकारी घोषित करता!
जवाब मुश्किल नहीं है। 1857 के दमन में अंग्रेजों ने बर्बरता से मुगल खानदान का ही नहीं दिल्ली के मुसलमानों का भी सफाया करने का प्रयास किया था। वे जीवित रह ही नहीं सकते थे।
हमारे सामने जो प्रश्न है वह यह कि जब मुगल सल्तनत कायम थी, जब बादशाहों की कई तरह की औलादें हुआ करती थीं, जब उनकी कुछ ही बीवियों की संतानों को उनका जायज पुत्र माना जाता था और उनमें सत्ता का संघर्ष होता था, तब उन्हीं के हरम से, उन्हीं की एक रात की सुहागनों और असंख्य रखैलों से पैदा हुई संतानों की नियति क्या होती थी? इसे समझने में इतिहासकार हमारी मदद नहीं कर पाते।
दिल्ली के लोगों का एक मनोरंजन मुग़ल बादशाहों के अंत:पुर की कहानियों को सुनना और सुनाना था । सैकड़ों सुंदरियों से भरे हुए हरम पर बंदिशें जितनी ही लगाई जाएं, कुछ किस्से तो बाहर निकलेंगे ही। परंतु इन शगूफों में भी उन अभागों को शायद ही जगह मिलती हो, जो शाही औलाद होने के दावेदार तो थे, पर जिनकी हालत महल के नौकरों से भी बुरी थी। सवाल खानदानी इज्जत का था। भीतर का सच बाहर न जाने पाए, इसलिए उनको रहने के लिए किले के भीतर एक जेलनुमां घेरा बनाकर बंद कर दिया जाता था, भले उसे जेल न कहा जाता हो। उर्वरता में कोई किसी से कम न था। सूफीमिजाज बहादुर शाह जफर के 31 संतानें थी।
पूरा मुगल वंश लाल किले में ही रहता था। यह कुनबा नाजायज या जायज समझे जाने वालों का था, यह मुश्किल सवाल है, क्योंकि जायज माने वाले जाने वाले लड़कों में से एक बादशाह बनता था, जो दूसरे भाइयों को खत्म कर देता था। यदि जीवित रह भी गया तो अपनी जिंदगी जैसे भी गुजारे उसके वंश का वही हाल होना था जो उपेक्षित लड़कों का। विवाह भी आपस में ही करते रहे होंगे। इनको सलातीन के नाम से जाना जाता था। इनकी दशा क्या थी इसे एक इतिहासकार (विलियम डालरिंपल, दि लास्ट मुगल, 2008) के शब्दों में रखना चाहेंगे :
Life for the senior princes could be extremely comfortable and Zafar’s own children had a fair degree of freedom to live their own lives and follow their own interests and amusements, whether these lay in scholarly and artistic directions, or in hunting, pigeon flying and quail fighting. But the options open for junior salatin or Palace-born princes and princesses could be extremely limited. Besides the senior princes, there were over 2000 poor princes and princesses – and grandchildren, and great grandchildren and great great grandchildren of previous monarchs- most of whom lived a life of poverty in their own walled quarter of the palace, to the southwest of the area occupied by Zafar and his family. This was the darker side of the life of the Red Fort, and its greatest embarrassment; for this reason many of the salatin were never allowed out of the Gates of the Fort, least of all on so ostentatious an occasion as the very public festivities in Daryaganj. according to one British observer:
The salatin quarter consists of an immense high wall so that nothing can overlook it. Within this are numerous mat huts In which these wretched objects live. When the gates were opened there was a rush of miserable half naked, starved beings who surrounded us. Some men apparently nearly 80 years old were almost in a state of nature. (Major George gunningham, quoted in T.G.P. Sapir. The Mughal family and court in 19th century Delhi, journal of Indian history Volume 20, 1941 page 40.
मुगलों ने बादशाहत की, अपने को दुनिया का बादशाह समझते रहे। उनसे नसीहत लेकर अंग्रेज दुनिया के बादशाह बनने की चाह पाल बैठे और एक ऐसा साम्राज्य सचमुच स्थापित किया जिसमें सूरज कभी डूबता नहीं था, और जब डूबा तो भी इस तरह नहीं डूबा की ब्रिटेन कहीं दिखाई ही न दे। यह मुगल थे जो अपने विशाल हरमखानों की छाया में अपना ही सर्वनाश करते रहे और सल्तनत रहते हुए भी जब दूसरे अच्छी भली हालत में थे, वे अपने महल के नौकरों से भी दयनीय थे और कंगाली की दशा में पहुुंच गए थे और अंततः उनका कोई नाम लेवा तक न बचा। बादशाहों ने यतीम पैदा किए, अपनी संतानों को अपने ही भाइयों को, अपने ही कुनबे को, यातनाएं देते रहे। उनके एक हाथ में बादशाहत थी दूसरे हाथ में अपना ही सर्वनाश। 57 के दमन में यदि अंग्रेजों ने उनके पूरे वंश का सफाया कर दिया तो यह उनकी योजना नहीं थी, इसकी पूरी तैयारी मुगलों ने खुद कर रखी थी।
हमें इसका ध्यान नहीं आता यदि एक नई सुगबुगाहट की ओर ध्यान न जाता। यह है मुसलमानों में नितांत गरीबी की स्थिति में रहने वालों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी। ईसाइयों में सुना अविश्वसनीय तरीके अपनाकर कुछ को नितांत विपन्नता में पहुंचाने का प्रयत्न किया जा रहा है। मुसलमानों और ईसाइयों में भी यह दावा कि वर्णव्यवस्था तो उनमें भी है इसलिए उनको भी संरक्षण दिया जाना चाहिए बहुत महत्वपूर्ण। सभी मतों के अपने आधारभूत सिद्धांत होते हैं। भारत में कोई ऐसा मत नहीं है जो वर्ण व्यवस्था का समर्थन करता हो, परंतु एक अर्थव्यवस्था है जिसका प्रवेश समाज व्यवस्था में हो गया है, और इसे केवल हिंदुओं का लक्षण माना जाता है, जिसके लिए सबसे अधिक गालियां ब्राह्मणों को दी जाती हैं और उन्हें दी भी जानी चाहिए, परंतु ब्राह्मणों ने ही इसके विरोध में विद्रोह भी किया है । जो भी हो केवल इस बुराई या लक्षण को हिंदुत्व से जोड़ा जाता है। यदि यह दोष मुसलमानों और ईसाइयों में भी है, तो ऐसे मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू मानना चाहिए, उन्हें हिंदू धर्म, रीतिनीति अपनानी चाहिए और उसके बाद आरक्षण का दावा भी करना चाहिए। इससे पहले नहीं। यह पद-व्याघात है।
ध्यान भले इस कारण आया हो, पर इसका दूसरा पक्ष है कि यह बताया जाता है हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था से प्रताड़ित व्यक्तियों ने इस्लाम या ईसाईयत स्वीकार किया, जब कि सच्चाई यह है कि हमारे पास इसको समझने का कोई भरोसे का जमीनी अध्ययन है ही नहीं, और हम खयालों को हकीकत में बदलने की आदत डाल चुके हैं। मजहब बदल भी जाए तो भी रोटी की समस्या मजहब की समस्या नहीं है । सभी लोग हिंदू धर्म अपना लें और उनकी प्रवृत्ति न बदले, पूरा देश हिंदुओं का देश हो जाए तो क्या समस्या का समाधान होगा।
गरीबी नई चीज नहीं है परंतु वह रफ्तार, जिससे विभिन्न धार्मिक समुदायों में सबसे गरीब तबके में आबादी का अधिक तेजी से विस्तार हुआ है, नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए ।
जो लोग अभागे, गरीब, और आत्मसम्मान के लिए अपनी धार्मिकता पर विश्वास करते हुए मुल्लों की पकड़ में आ जाते हैं जनसंख्या उनसे बढ़वाई जाती है, राजनीतिक लाभ इनको मिलता है। यह एक ऐसी त्रासदी है जिसका बोध सताए हुए लोगों में पैदा तक नहीं किया जा सकता।