Post – 2019-01-06

महालीला

संभव है यह मेरा भ्रम हो कि जिन दिनों दिल्ली दरबार के शायर भाषा को ऐसी बनाना चाहते थे जिसमें एक कहे तो दूसरा समझ जाय, उन्हीं दिनों ऐसे प्रयोग भी हो रहे थे कि या तो लिखने वाला अपने लिखे को स्वयं समझे या कोई समझ ही न सके, क्योंकि निश्चयात्मक ढंग से ऐसा दावा करने के लिए जैसे निर्णायक प्रमाण होने चाहिए वैसे मेरे पास नहीं हैं, यद्यपि पार्श्विक साक्ष्यों का अभाव भी नहीं है।

यह मात्र भाषा से जुड़ा प्रश्न नहीं है, मिजाज से जुड़ा प्रश्न है, इस भावना से जुड़ा प्रश्न है कि आप इस देश और समाज के साथ हैं, या इनसे अपने को ऊपर समझते हैं । आपकी भाषा देश के लोगों के लिए है, या नफीस महफिलों के लिए। विविध कारणों से दिल्ली के नाममात्र के बादशाह और लखनऊ के नवाब जितना मुसलमान रह सकते थे, उतना मुसलमान रहते हुए, जितना हिन्दुस्तानी बन सकते थे, उतना हिन्दुस्तानी बनने का प्रयत्न कर रहे थे। इसी का नतीजा था उस समय जब दिल्ली के बादशाह दूसरों की मर्जी से बनाए जाते थे, हिंदुओं ने भी 1857 बहादुरशाह जफर को बादशाह माना था। विदेशी मूल के मुसलमानों का धार्मिक अलगाव के होते हुए भी देश से जुड़ाव विदेशी शासकों के लिए खतरे की घंटी थी, इसलिए मुसलमानों को साथ लेने के लिए वे उनमें भी इस देश में बाहर से आए हुए विजेता का भाव उभारते हुए ‘पराजितों से ऊपर और अलग’ होने की चेतना को उभारने का प्रयत्न कर रहे थे।

इसी का सुदूर इतिहास में प्रक्षेपण करते हुए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अपने अधिकारों का क्रमिक विस्तार करने के लिए पूरे देश को एकजुट करने को तत्पर नेतृत्व को हिंदू और फिर हिंदुओं को आर्यों की संतान और आर्यों को स्वयं विदेशी आक्रान्ता और आदिम अवस्था से आगे न बढ़ पाए आटविक जनों को उनसे पहले से बसा, परंतु फिर भी बाहर से आया सिद्ध करने का महाजाल रचते हुए, इसका मूल निवासी निगरों या ठिगने कद के काले जनों को सिद्ध किया जाता रहा (जिनके लिए सुनीति बाबू ने नीग्रोवत (negrito) का प्रयोग किया था और प्रूफ की गलती से नीग्रोबटु हो गया था।) ये केवल अंडमान निकोबार में नाममात्र को बचे रह गए हैं। अंडमान निकोबार, कालापानी का दंड पाए हुए भारतीयों की आबादी के कारण, आज भले भारत का एक भाग है, पर भौगोलिक रूप में यह कभी भारत का हिस्सा रहा ही नहीं। अर्थात् भारत का आदिम निवासी वह है जो यहां है ही नहीं। यहां सदा आक्रमणकारियों का निवास और राज रहा है, इस तर्क से किसी को अंग्रेजी राज्य का विरोध करने का नैतिक अधिकार है ही नहीं।

इस तरह दो कुतर्कजालों को वे एक साथ साथ रचते रहे। इसमें विविध विशेषज्ञताओं के विद्वान और इनके कायल, अपना पाठ तैयार करने, और मंच पर उतरने वाले भारतीयों को हर तरह का संरक्षण, प्रोत्साहन और पहचान देते रहे, जिनमें से एक परदे का काम करता रहा और दूसरे को मंचित किया जाता रहा। परदे के पीछे के परदे एक दूसरे की काट करते थे, और जरूरत के अनुसार कभी-कभी उठा कर उपकथा को दिखा दिया जाता था। यह महालीला हमारी मनोरचना और राजनीतिक सक्रियता को नियंत्रित करती रही; आज भी करती है।