भूला हुआ रास्ता
भारत के सामने, और सच कहे तो दक्षिण एशिया के सामने, आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपने समय में पहुँचना चाहता है या बीते हुए समय में कहीं न कहीं लौट कर, अपने आप से टकराता, टूटता-बिखरता रहना चाहता है। पश्चिमी देशों से तुलना करने पर लगता है कि उनका पिछड़ा से पिछड़ा देश इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहा है, जब कि तीसरी दुनिया के देश उनकी अठारहवीं शताब्दी में भी नहीं पहुंचे हैं और उससे पीछे ले जाने वाली समस्यायें उनके सरोकार के केन्द्र में है।
कुछ भी अकारण नहीं होता। आज की दुनिया, जिसमें प्रचार हथियार से अधिक मारक क्षमता रखता है, बाजार का माल भी हमारी सोच को बदलने में शिक्षा संस्थाओं से अधिक कारगर भूमिका निभाता है, आपका कोई निर्णय केवल आपका निर्णय नहीं होता। हमारे मन में पलने वाले आग्रह और आवेग पूरी तरह हमारे नहीं हैं। उन्हें प्रेरित और उत्तेजित करने वाली ताक़तों के बारे में हम सतर्क तक नहीं रह पाते। चुनौतियाँ जितनी ही बड़ी हों, हमारी स्वतंत्रता को बाधित करने वाली शक्तियाँ जितनी ही प्रबल हों, उनके दबाव से बाहर निकलने का हमारा संकल्प उतना ही दृढ़ हो तो ही हम अपने लिए हितकर दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
कालक्रम की दृष्टि से आगे या पीछे होना, हमेशा प्रगति या पिछड़ेपन का सूचक नहीं होता। अरब की विरासत पर गर्व करने वाला मुस्लिम जगत, अपने मध्यकाल से भी पीछे उस युग में जा चुका है, जिसे वह जाहिलिया कहा करता है, जिसमें फसाद होते रहते थे, पर हार या जीत नहीं होती थी। वह अपने भविष्य के रूप में उस चरण को देखता है जो इस्लाम का आरंभ है । हिंदू समाज पश्चिम की समकक्षता में आने की चुनौती का सामना करना चाहता है और मध्यकाल से बाहर निकलने का प्रयत्न तक नहीं करना चाहता।
हमें यह भ्रम है कि हम अग्रणी देशों द्वारा तैयार नए से नए माल का उपयोग और उपभोग करते हैं, जिनका वे करते हैं, इसलिए हम उनसे नाममात्र को ही पीछे हैं। जब कि यदि किसी भी युक्ति से ऐसे माल के उत्पादन का तरीका सीख कर स्वयं उसका उत्पादन करने तक इससे अपने को रोक रखते तो यह सचमुच उनसे स्पर्धा का सही तरीका होता।
हम इस पिछड़ेपन को पहल, मनोबल, अध्यवसाय, जिजीविषा, और जीवन मूल्यों के मानक पर रख कर देखना चाहते हैं न कि केवल उपभोक्तावादी विलासिता के स्तर की कसौटी पर। आज के भारत के भविष्य पर कब्ज़ा जमाने वाले पतनशील मुगलकालीन रास्ते पर चल रहे हैं। औरंगज़ेब के अवसान काल का चित्रण करते हुए इराली लिखते हैं :
Outwardly, the Mughal Empire still glittered mesmerizingly, but within the golden, jeweled Chrysalis, the flesh was rotting the spirit was dead. The land was desolate, the empire crumbling, it’s economy shattered, its government inefficient, and irredeemably corrupt,… its culture effete, its people broken and spiritless. only the Marathas displayed any vitality. But there was no future with the Marathas either. They could have seized the Imperial scepter: it was theirs to take. But they had no vision. India seemed to be a land where the future had died.
आज की अवस्था से साम्य इतना अधिक है कि एक दो अपवादों के साथ, जहां तहां से संज्ञा बदलने की जरूरत पड़ेगी।
मुगल काल का सब कुछ नकारात्मक नहीं था। शहरीकरण और मुद्रा का चलन बढ़ा था। राज्य विस्तार के साथ मुद्रा का मानकीकरण, माप तोल में सुधार से व्यापार को बढ़ावा मिला था। इससे किसानों को राहत नहीं मिली थी। परंतु इन सब के बावजूद भारत यूरोप से ही नहीं चीन जापान और प्राचीन रत से भी पीछे था। और इसका सबसे दारुण पक्ष नैतिक स्खलन थाः
Most shocking of all was the debasement of the character of man in Mughal India. From the highest amir, indeed from the emperor himself, down to the man in the street there was a near total absence of civic morality and personal integrity. “No one ever says a word to be relied upon,” writes Manucci . “ it is continuously requisite to think the worst and believe the contrary of what is said… They deceive both the acute and the careless.” … Adds Pelsaert, “Everything in the kingdom is uncertain: wealth, position, love, friendship, confidence, everything hangs on a thread.”
Hypocrisy and sycophancy where the characteristic traits of the Indian ruling class. ….The amir probably viewed sycophancy nearly as good manners, a formal courtesy, and had therefore no feelings of personal degradation in being a sycophant, especially as the practice was universal. But sycophancy was not just good manners. Lack of earnestness in speech – using words to dress up and disguise thoughts and feelings – rather than to reveal them led to lack of earnestness in thought and action, corrupted values and perverted both individual characters and social process.
मुगल मौज मस्ती और वैभव प्रदर्शन की पतनशील प्रवृत्ति स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले केवल अमीरों, राजाओं, नवाबों, जमींदारों, में संक्षेप में कहें तो गुलाम मानसिकता के लोगों में बनी हुई थी। कांग्रेस ने, विशेषत: गांधी के प्रवेश के बाद, सचेत या अचेत रूप में, मर्यादावादी हिंदू मूल्यों को अपना आदर्श बनाया था। यह था साध्य की पवित्रता के साथ, साधन या तरीके की पवित्रता का निर्वाह। नफीस विदेशी माल की जगह स्वदेशी का उत्पादन और उपभोग। यह एक किसान की स्वाभिमानी सोच है जो अपने रूखे सूखे उत्पाद की जगह बाजार से उम्दा किस्म के चावल आदि खरीदने को अपनी तौहीन समझता था। इसे राष्ट्रवादी सोच भी कह सकते हैं और चाहें तो प्राचीन भारतीय दृष्टि भी कह सकते हैं।
इसकी ओर, इस प्रसंग में, इराली ने ही ध्यान दिलाया है। उसने मध्यकाल की भारत की तुलना यूरोप के अंधकार युग से की है:
The jungle itself of course antedated the Mughals. It in fact antedated even the establishment of the first Muslim Empire in India at the end of the twelfth century for then the Dark Ages in India, which roughly coincided with a similar epoch in Europe, were already some 500 years old.
इससे बाहर निकलने की कोशिश अकबर ने अवश्य की थी, पर यह कोशिश उनके शासनकाल में विलंब से आया और उनके बाद ही समाप्त हो गया। अकबर का सच्चा उत्तराधिकारी दारा शिकोह था और ‘यदि’ के लिए इतिहास में जगह होती तो भारत का उससे बाद का इतिहास क्या होता, इसकी जुगाली की जा सकती थी। नहीं है, इसलिए जो सचमुच था और जिसे हमने मध्यकाल में खो दिया और जो पश्चिमी जगत में भी नहीं था, जिसे उसने भारतीय जीवनमूल्यों से परिचय के बाद आत्मसात करके अपना कायाकल्प किया, उसकी ओर ध्यान अवश्य दे सकते हैं।
उनकी आगे की टिप्पणी इस संदर्भ में रोचक हैः
The decline of India’s position relative to the rest of the civilized world, especially Europe is reflected in the contrasting perceptions of travelers in ancient and medieval India. Some 2000 years before Mughal times Megasthenes, the Greek envoy in the Mauryan Court, said of Indian character: “ truth and virtue they hold alike in esteem.” seven hundred years after Megasthenes, Fa Hsien, A Chinese Traveler add about the same thing to say of Indians as did Hsuan Tsang In the seventh century, who wrote: “ they do not practice deceit, and they keep their sworn obligations … they will not take anything wrongfully, and they yield more than fairness requires.
These are no doubt sweeping generalizations, expressions of sentiment rather than statement of fact – and this is equally true of the blanket condemnations of Mughal India by European travelers. Yet undeniably they contain substantial elements of truth.
Abraham Eraly, The Mughal Throne, 2004, pp. 517-21.
गांधी उन्हीं स्रोतों अपनी शक्ति ग्रहण करते थे जिन्हें मध्यकाल में ध्वस्त कर दिया गया। मध्यकालीन जीवन मूल्य मुग़लों की देन नहीं थे, मध्य एशियाई बर्बरता की देन थे, जिनमें हिंसा, छल, फरेब, विश्वासघात, रिश्वत, वादाखिलाफी, सब कुछ जायज था, क्योंकि सही और गलत का फैसला सफलता से तय होता था। दारा शिकोह को पराजित करने के लिए औरंगज़ेब द्वारा ईश्वर की और मुहम्मद की कसम खाते हुए, सहयोग के लिए मुराद को लिखा गया संधि पत्र और उसके बाद उसके साथ किया गया सलूक, इसका कुछ आभास दे सकता है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ देना ही पर्याप्त होगा:
As soon as the idolater is routed out and the bramble of his tumult has been weeded out of the garden of the empire – in which work your help and comradeship is necessary – I shall without the least delay give you leave to this territory. As to the truth of this desire I take God and the prophet as witness.
अन्यथा कुछ मामलों में औरंगज़ेब गांधी जैसी सादगी का परिचय देता है।
इस्लाम से केवल सादगी और भाईचारा ग्रहण किया जा सकता है जो हिंदुओं के लिए भी उतना ही जरूरी है जितना मुसलमानों के लिए। प्राचीन भारत से जीवनमूल्य जो मुसलमानों के लिए भी उतना ही जरूरी है जितना हिंदुओं के लिए। इनका किसी धर्म से कोई संबंध नही। ईसाई होते हुए भी पश्चिम ने इसे अपनाया, हम अपने ही घर का रास्ता भूल गए। यह एशियाई जरूरत है।
सामुदायिक सौहार्द की तात्कालिक आवश्यकता है मुगलकालीन खुमार से मुक्ति। इसी में सामाजिक सौहार्द की संभावना भी छिपी है। अभी तक राजनीतिक दल अपने स्वार्थ साधन के लिए मुसलमानों की चापलूसी करते हुए उनकी सामाजिक विकृतियों का समर्थन करते हुए, प्रतिगामी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रहे हैं और उसी के समानान्तर हिंदुओं में मध्यकालीनता को उत्तेजित किया जा रहा है। दोनों राष्ट्र के लिए अहितकर हैं।