Post – 2019-01-01

खयालों में समूचा आसमां है पर जमीं गायब

(यह लेख माला भारतीय मुसलमान पर है। इसके लिए मुस्लिम समाज की बात प्रायः आती है। इसका उद्देश्य उन तत्वों की पहचान करना है जिन्होंने एक समुदाय के रूप में मुस्लिम चेतना को प्रभावित किया है।)

हम सभी में बहुत सी बातें दूसरों से अलग होती हैं। इनसे हमारा व्यक्तित्व (indiduality) निर्धारित होता है। निजी विशेषताओं में प्रेरणा का हाथ होता है जिसके कारण हम अपने परिवार, पड़ोस या समाज के व्यक्तियों की अपेक्षा दूसरे देशों, कालों, या संस्कृतियों के कतिपय लोगों से अधिक निकटता अनुभव कर सकते हैं, जबकि हमारे बीच कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जो अपने परिवार,समुदाय, समाज या मजहबी लोगों से मेल खाती हों, और इस मामले में हम दूसरे परिवारों समुदायों या समाजों से हम अलग पड़ते हों।

ऐसा इसलिए होता है कि हम अपने संपर्क विस्तार के साथ इन विविध संस्थाओं का प्रभाव ग्रहण करते हैं। हमारा इतिहास यदि दूसरों के इतिहास से अलग है, तो हमारे प्रेरणा के स्रोत उन लोगों से मिलेंगे जो उसे अपना इतिहास मानते हैं। यह इतिहास भी अपने व्यापक रूप में विश्व इतिहास और संकुचित रूप में वंश परंपरा तक आ सकता है और हम सचेत हों या नहीं, परंतु हमारे ज्ञान के अनुरूप सभी स्तरों पर हमें बदलता है।

इतिहास से भी अधिक गहरा असर पुराणकथाओं और पौराणिक चरित्रों, यहां तक कि काल्पनिक चरित्रों का होता है। इतिहास वह नहीं है जो किसी समय का सच रहा है, अपितु वह है जिसे हम सही मानते हैं और इसलिए हमारे निजी और सामूहिक चरित्र के निर्माण में मिथकों की भूमिका अधिक प्रधान होती है।

समान इतिहास होते हुए भी धर्म और विश्वास के कारण हम अपने इतिहास को नकार देते हैं। सभी धर्मों के लोग अपने इतिहास में उसके प्रवर्तक से पहले के इतिहास को अपना इतिहास नहीं मानते, या उसमें रुचि नहीं रखते। उसकी जानकारी होती है तो उसकी व्याख्या भिन्न रूप में करते हैं।

इस तरह व्यक्तित्व, पारिवारिकता, कुलीनता ( कुल-परंपरा), जातीयता, और राष्ट्रीयता के अनेक समान लक्षणों वाले समावर्ती कुलक और संकुल बनते हैं। ये हमारे चित्त के आवर्त हैं।

इनका एक अन्य रूप दिक् से अर्थात् भौगोलिकता से निर्मित होता है। यह ग्राम, जनपद, अंचल, प्रदेश, देश, और महादेश के रूप में पहचाना जाता है, और इसके साथ भी गुणों दोषों को जोड़ लिया जाता है। यह विशिष्टों की पहचान पर निर्भर नहीं करता, समग्र के औसत पर निर्भर करता है ।

इन सभी आवर्तों और चक्रों में कुछ यांत्रिकता रहेगी इसे मानने के बावजूद, इनके महत्व को कम नहीं किया जा सकता। यह दोष सभी वैज्ञानिक वर्गीकरणों में होता है।

भारत से बाहर के देशों में आज भी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के निवासी हिंदी हैं, उसके बाद या तो हिंदू हैं, या मुसलमान। मुसलमान हैं तो उनसे कुछ नियमों का कठोरता से पालन करने की मांग की जाती है।

यूरोपीय देशों के लिए यह सीमा और फैल जाती है। एशिया के निवासी जो पीछे रह गए हैं, एशियाई रूप में पहचाने जाते हैं, उसके बाद देश और धर्म भी आता है, अन्यथा कुछ देशों में भारतीयों को वीजा की छूट न होती और कुछ में हिंदुओं के लिए जो छूट है, उसे मुसलमानों के लिए अधिक कठोर न किया जाता।

यह हमारा सामाजिक यथार्थ है। जो इसे नहीं मानता, नहीं जानता, और सब कुछ एक जैसा, सभी भले, सभी बुरे, सभी ऐसे-वैसे के रूप में सोचता है वह अपने यथार्थ से कटा हुआ मनोरोगी है, भले यह मनोरोग सदाशयता के कारण हो। सच तो यह है कि अपने अतिरेकी रूप में सदाशयता और प्रेम अपने विरोधी दुर्गुणों से अधिक खतरनाक हो जाते हैं, और यह भी मनोव्याधि ही माने जाते हैं। जो इसे नहीं समझते, और सदायतावश बचकानी बातें करते हैं, उन्हें अपने डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए, कि ‘वयस्कता के बाद के बाद भी मेरा भावात्मक विकास क्यों नहीं हो रहा है?’

मुस्लिम समाज को शिक्षित, प्रेरित और नियंत्रित करने वाले चार तत्व रहे हैं-

पहला, उनकी किताब, जिसके सामने पड़ने पर दूसरे सारे ग्रंथ, ग्रंथागार, शिक्षा संस्थान, यहां तक की विज्ञान तक व्यर्थ हो जाता है।

दूसरा, धर्म गुरु या मुल्ला, जिसने किताब की व्याख्या करने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रख रखा है और जिसके बल पर वह मध्यकालीन जहालत में बादशाहों तक को गुलाम बनाता आया है। वह अपना अधिकार छोड़ नहीं सकता। आधुनिक बनने के लिए, अपने दिमाग से काम लेने के लिए, उससे पंगा ले कर ही दूसरे मुसलमान उससे अपना दिमाग और अपनी समझ वापस पा सकते हैं। आदमी बनने के लिए सबसे पहले उन्हें अपनी गुलामी की बेड़ियों को पहचानना, उनको तोड़ना और अपनी आंतरिक स्वतंत्रता प्राप्त करनी होगी।

तीसरे, राजनीतिक नेता, जो उन्हें दहशत में रखते आए हैं और आज भी यही कर रहे हैं। भारत में अल्पसंख्यता के असंख्य रूप हैं, जिनकी अपनी समस्याएं हैं। वे अपनी समस्याओं के समाधान के लिए संघर्ष करते हैं, जब तक वे सुलझ नहीं जातीं, अपना असंतोष व्यक्त करते हैं। संघर्ष इसलिए करते हैं, क्योंकि वे देश में थे, इसे अपना मानते हैं, इससे भाग नहीं सकते, इसलिए यहीं रह कर अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा। दुर्गति में रहते हुए भी वे निरंतर दहशत और असुरक्षा में नहीं रहते। यह भावना केवल मुस्लिम नेतृत्व ने पैदा की है। उसने लड़ने की जगह भागकर जान बचाने का रास्ता चुना, जो भाग नहीं सकते थे उनको उनके रहम और करम पर छोड़ कर जिनसे वे असुरक्षित अनुभव करते थे। विभाजन इसी भगोड़ेपन की अभिव्यक्ति थी। नेतृत्व ऐसा मिला जिसने अपने घर में ही आग लगा दी, अलग घर बसाने के लिए। यह उसका रईस तबका नहीं था, वे अपनी जमीन जागीर छोड़कर भागने के लिए तैयार नहीं थे। यह धर्मांतरित कामकाजी मुसलमानों का तबका भी नहीं था जिनमें से अधिकांश को यह समझ भी नहीं थी कि राजनीति होती क्या है। यह मोहम्मद इकबाल के प्रभाव में आंदोलित शिक्षित मुस्लिम मध्य वर्ग था जिसने अपनी सही भूमिका का निर्वाह नहीं किया, लोगों को गुमराह किया, भाग खड़ा हुआ, पर दूसरों को उसी जले हुए घर में रहने के लिए मजबूर किया ।

चौथा है, इतिहास और जीवन शैली। इन्हीं के प्रभाव के कारण पूरे समुदाय का व्यवहार दूसरे समुदायों से अलग होता है। सामान्य जनों की जीवन शैली को उस समाज का भद्र वर्ग प्रभावित करता है (यत् यत् आचरति श्रेष्ठ: तत् एव इतरे जना:, स यत् प्रमाणं कुरुते लोक: तत् अनुवर्तते), जो स्वयं राजाओं की जीवन शैली से प्रभावित होता है। इस पर अंकुश केवल आर्थिक सीमाएं लगाती हैं। आकांक्षा में गरीब आदमी भी अपने बच्चे को राजा या राजकुमार बनाना चाहता है और अपने अतिथि को सोने की थाली में जेवना परोसना चाहता है। सूखी रोटी खिलाते समय भी 64 प्रकार के व्यंजनों की बात करता है।

इन विविध कारणों से हम जिस सामाजिक यथार्थ का सामना करते हैं उसे अपने शब्दों में न रखकर एक इतिहासकार के शब्दों में रखना चाहेंगे और उसी के माध्यम से आज की कुछ विडंबनाओं को भी सामने लाना चाहेंगे। परंतु पाठकों के धैर्य का ध्यान रखते हुए यहां हम उसका केवल एक अंश देंगे और एक अन्य पोस्ट में उसके दूसरे निष्कर्षों को प्रस्तुत करना चाहेंगे।
What the Mughals were, was what the rich and powerful everywhere in India aspired to be. In customs and manners, dress and cuisine, architecture and gardening, Language and literature, art and music and dance, the standards of excellence for a long time thereafter would be Mughlai….

What changed was lifestyle, not life, and that too only of a minuscule elite…There was no transmutation of civilization. Behind the Mughal facade, lay the immense body of Hindu culture ancient and torpid, but still breathing. The Hindu world did not change under Muslim influence, nor did the Muslim world change under Hindu influence, despite their 600-odd-year coexistence…

लेखक को यह भी बताना चाहिए था, कि मुस्लिम अभिजात वर्ग आज तक मुगल काल में जीवित रहा, मुग़लों के संपर्क में आने वाले दूसरे जन अकबर के उत्तरकालीन सर्वजन समावेशी मानसिकता से अभिभूत होने के कारण, चेतना के स्तर पर बहुत पहले से ही धर्मनिरपेक्ष थे, जिससे मुसलमानों को चिढ़ थी, जब कि वे अपनी धर्मनिरपेक्षता के बावजूद उन मुसलमानों से ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक निकटता अनुभव करते रहे क्योंकि अपने जातिभेद और अस्पृश्यता के कारण परंपरावादी हिंदू उन्हें परंपरावादी मुसलमानों से अधिक पिछड़ा प्रतीत होता था, जो एक सच्चाई भी है, और इससे हिंदुओं को और ब्राह्मणों को स्वयं भी शिक्षा लेनी चाहिए थी। मध्यकालीन ब्राह्मण दुनिया का सबसे पिछड़ा हुआ व्यक्ति है जो अपनी परंपरा से भी कटा हुआ है और अपने आप से भी। तीन कनौजिया 13 चूल्हा का मुहावरा मध्यकालीन भारत की उपज है।