Post – 2018-06-25

#आइए_शब्दों_से_खेले (6)

शरीर के अंगों पर आगे बात करने से पहले हम एक गंभीर समस्या के समाधान का प्रयत्न करेंगे, क्योंकि उसका विचार इस चर्चा के दौरान ही पैदा हुआ है।

लगभग सभी भाषा विज्ञानी इस विषय में एकमत रहे हैं कि भाषा का आरंभ परिवेश की ध्वनियों के अनुकरण से अर्थात अनुकारी, अनुनादी, प्रतिनादी कहे जाने वाले शब्द भंडार से होना चाहिए, परंतु वे अनुकारी ध्वनियों से आगे निर्मित होने वाली शब्दावली के प्रति सचेत नहीं रहे और फिर उन्हें इस बात की आशंका बनी रही कि भाषा का इतना जटिल ढांचा केवल अनुनादी शब्दों के द्वारा तैयार नहीं हो सकता।

इस जटिल है तंत्र में संज्ञा, क्रिया और विशेषण के लिए शब्द तो अनुनादी स्रोत से उत्पन्न किए जा सकते थे परंतु समस्या उपसर्गों, कारक चिन्हों और विभक्तियों को लेकर थी। हम पहले यह दिखा आए हैं कि उपसर्गों के लिए घटक जल की ध्वनियों और विविध क्रियाओं से प्राप्त हुए है। यहां हम केवल एक विभक्ति चिन्ह के बारे में बात करना जरूरी समझते हैं।

हम जल के लिए प्रयुक्त इख>इष के अर्थ विस्तार >रस>सोमरस> गति (इष्यति/एषति)> इच्छा (एषणा)> का संकेत भी पहले कर आए हैं। पिछली पोस्ट में हमने देखा कि भविष्य काल के लिए पहले कोई विभक्ति नहीं थी। यदि राजवाडे ने इस विषय में कुछ स्थापनाएं न की होती तो मेरा ध्यान इस ओर नहीं जाता । देववाणी में जिसे वह रानटी या जंगली (भदेस) भाषा कहते थे, लिंग, वचन, विभक्ति आदि का विधान नहीं था। वचन का काम वास्तविक संख्या से चल जाता था भाषा समास प्रधान थी। उसे हम रूप में समझ सके हैं वह निम्न प्रकार है
राम मारा।
राम रावण मारा।
राम दस रावण चारबाण मारा।
उन्होंने एक लंबा समस्त पदवाला वाक्य रचा था जिसमें सभी विभक्तियों का समावेश हो जाता है और अर्थ संचार में कोई बाधा नहीं पड़ती। हम उनके विश्लेषण की कतिपय बारीकियों को नहीं समझ पाते।

जो भी हम पाते हैं कि भूतकाल का बोध क्रिया के दोहराव से व्यक्त किया जाता था (कार-कार चकार, दर्श+दर्श> ददर्श =देखा ( को ददर्श प्रथमं जायमानम्- सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले को किसने देखा), ) और वर्तमान के लिए (ददृशे = दिखाई देता है (ददृशे न रूपम्- रूप दिखाई नहीं देता, रुशद् दृशे ददृशे नक्तया चिद् -देखने में जगमगाता सा है और रात को भी दीखता है। (दृशेयं पितरं मातरं च, अपने माता पिता को देखूं; ज्योक् च सूर्यं दृशे – देर तक सूरज दिखे)। जहां, भविष्यसूचक विभक्ति का भ्रम होता है, वहां भी क्रिया वर्तमान की हैः क्षेति पुष्यति – पाता, और पालता है; वनुयाम वनुष्यतः – जो हमारा वध करते हैं उनका वध हम करें (वनुयाम)। परन्तु एक स्थल है जहां आकांक्षा भविष्यकालिक अर्थ रखती दिखाई देती है – न जातो न जनिष्यते- न पैदा हुआ, न पैदा होगा।

वर्तमान में हम काम करते हैं, इसलिए क्रिया रूप आना जरूरी है। भूत में क्रिया हो चुकी, कुछ करने को नहीं है, इसलिए इसको क्रिया को दुहरा कर काम के पूरेपन को प्रकट किया जाता था। भविष्य में हम कुछ कर नहीं सकते, केवल उसकी इच्छा या योजना होती है, इसलिे उसी इष से क्रिया की इच्छा जुड़ गई। इसे अधिक स्पष्ट रूप में अंग्रेजी के ’विल’ में देखा जा सकता है। मैं जाने की इच्छा करता हूं = मैं जाऊंगा। कहें हम यहां भविष्यसूचक विभक्ति को जन्म लेते देखते हैं।