#आइए_शब्दों_से_खेलें (5)
यहां आरंभ में ही हम यह स्पष्ट कर दें कि हमारी समझ से शब्द दो प्रकार के होते हैंः नैसर्गिक और कृत्रिम। जिन्हें हम नैसर्गिक कह रहे हैं उनके निर्माण में भी मनुष्य की भूमिका होती है। वह प्राकृतिक ध्वनि को जैसा सुनता है उसी रूप में उसका अनुकरण करना चाहता है। यह सुनना और उच्चारण करना दोनों उसकी बोली की ध्वनि व्यवस्था से नियंत्रित होता है। दोनों में इतनी निकटता होती है कि हम पहचान सकते हैं यह अनुकारी शब्द है। दूसरे में हम व्याकरण के नियमों से अथवा अनुकारी शब्दों से ही आगे बढ़ कर अपनी जरूरत के अनुसार नए शब्द गढ़ लेते हैं इनको हमने कृत्रिम कहा है। उदाहरण के लिए पद नैसर्गिक शब्द है जमीन पर पांव के पढ़ने से जो ध्वनि निकलती है उससे उस अंग की संज्ञा निर्धारित। परंतु पथ कृत्रिम है क्योंकि इससे कोई ध्वनि नहीं निकलती अपितु जिस पर हम चलते हैं पद रखते हैं उसके लिए पद में ध्वनि परिवर्तन करके संज्ञा सचेत रूप में बनाई गई है। देव वाणी में नैसर्गिक शब्दों की बहुलता थी क्योंकि मनुष्य की आवश्यकताएं स्वल्रप शब्दावली और उसमें परिवर्तन से ही पूरी हो जाती थी।
लोचन
आंख के लिए प्रयोग होने वाले शब्दों में एक शब्द ऐसा है जो न हो तो आलोचकों का कारोबार ठप हो जाए। यह है लोचन। यह हैरानी की बात नहीं है कि ऋग्वेद में लोचन का प्रयोग नहीं हुआ है, इसके स्थान पर रोचन का प्रयोग हुआ, जिससे रूचि, रुचिर, का भी संबंध हो सकता है। भोजपुरी मैं वहां भी र का प्रयोग मिलता है जहां दूसरी बोलियों में ल पाया जाता है फल>फर, तले>तरे, कवल>कौरा, मूसल>मूसर, बाल> बार, बेला> बेर । सुनीति कुमार चटर्जी अशोक के शिलालेखों में पूर्वी भाग में राजा की जगह लाजा (देवानां पिय पियदसि लाजिना लेखापिता) के हवाले यह समझाया था पूर्वी हिंदी में ‘र’ के स्थान पर ‘ल’ का प्रयोग होता था, इसका खंडन रामविलास जी ने करते हुए अपने तर्क और प्रमाण दिए हैं।
ऋग्वेद में ऋग्वेद में ऐसे अनेक शब्द हैं जिनमें र का प्रयोग हुआ है जबकि संस्कृत में उनको ल में बदल दिया गया है जैसे रघु रोका । ऋग्वेद के समय तक अधिकांश शब्दों में ‘र’ ‘ल’ में बदल चुका थाः
जठर> जठल, फर>फलम्, सरिर>सलिल, अरं>अलं, अररा कर या हरहराकर >अललाभवन्ती।अनेक शब्द ऐेसे हैं जिनके सांस्कृतिक स्तर को देखते हुए परवर्ती विकास से जोड़ सकते हैं या यह मान सकते हैं कि ‘ल’ की ध्वनि को देववाणी में स्थान तो प्रस्थान के समय तक मिल चुका था, परन्तु उसकी स्थिति दुर्बल थी। ये शब्द हैं वल, बिल, कलश, पलस्ति, लांगल, प्रकलवित्, आखण्डल, अलर्ति, उपलप्रक्षिणी, किल, अलंबु, शीपाल, लयन्ताम्, लक्ष्म आदि।
ऋग्वेद में लोचन तो नहीं है, इसके स्थान पर रोचनहै जिससे फा. रोशन और रोशनी की उत्पत्ति हुई है, परंतु भारतीय भाषाओं में यह लोचन में बदल गया। रोचन केवल गोरोचन मैं बचा रह गया। यहां संगत बात यह है रोचन का प्रयोग केवल प्रकाश (आकीं सूर्यस्य रोचनाद्, विश्वमा भासि रोचनम् ) और चमक के लिए हुआ है आंख के लिए एक बार भी इसका प्रयोग देखने में नहीं आता। ऐसा लगता है संस्कृत के आचार्यों ने प्रकाश से इसके संबंध को देखते हुए इसे आंखों के एक पर्याय के रूप में जोड़ लिया।
नयन
नयन या नैन भी देववाणी के शब्द नहीं हो सकते। इनका सीधा संबंध किसी नैसर्गिक ध्वनि से नहीं है। यह एक अवधारणा की उपज हैं, गो वह अवधारणा जल और उसकी गति से संबंधित हो सकती है। ऋग्वेद में नय का प्रयोग कई रूपों में देखने में आता है परंतु यह केवल राह दिखाने या बचा कर लेकर चलने के संदर्भ में क्रिया के रूप में प्रयोग में आया हैः
अग्निः नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं..
देवा यज्ञं नयन्तु नः
नयन्ति दुरिता तिरः
यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा ।
अभि सूयवसं नय न नवज्वारो ध्वने ।
इनमें न तो कहीं प्रकाश का भाव है और ना ही दृष्टि से सीधा संबंध। यह भी कृत्रिम शब्द है और किंचित अनावश्यक भी। किसी वस्तु या क्रिया के लिए यदि पहले से कोई संज्ञा उपलब्ध है तो उसके लिए नए शब्द गणना व्यर्थ का आडंबर है। इससे भाषा बोझिल होती है और उसकी गतिशीलता बाधित होती। संस्कृत पंडितों ने पर्याय गढ़ने के शौक को झक तक पहुंचा दिया। यह दूसरी बात है कि यह उन थोड़े से शब्दों में है जिनकी पहुंच लोकभाषा तक हो सकी।
नेत्र
जोमाटो जो बात नयन के विषय में कहीं गई है वही नेत्र पर भी लागू होती है इसका भी मूल वही है। जिस नी/नय से नयन बना है उसी से नायक नेता नेत्री आदि भी बने हैं और नेत्र शब्द भी गढ़ लिया गया। जहां इस मूल से नायक नेता अभिनेता अभिनय विनायक सन्नय प्रणय, परिणय, आनय आदि बहुत ही सार्थक और आवश्यक शब्द निर्मित हुए हैं वहां नेत्र किंचित अनावश्यक बोझ है क्योंकि यह अन्य शब्दों से भिन्न या किसी विशेष अर्थ को व्यक्त नहीं करता। जो भी हो ऋग्वेद में नेता और नेत्री दोनों का प्रयोग हुआ है परंतु नेत्र का नहीं। इसकी आवश्यकता भी न थी । नेता का प्रयोग ले आने वाले (यो अपां नेता स जनास इन्द्रः) आगे चलने वाले (नेता वृषभ चर्षणीनाम् )और बचाने वाले (अयं हि नेता वरुण ऋतस्य) तीनों अर्थों मैं हुआ लगता है। भूमिका कोई अलग है परंतु प्रयोग तो अभिनेता का भी हुआ है (विश्वानरः समिधेषु प्रहावान् वस्वो राशिं अभिनेतासि भूरिम् ) इन्द्र तुम सर्वोपरि योद्धा हो, समरभूमि में प्रहार करते हो, अपार धनराशि प्राप्त कराने वाले हो।
उषा के लिए नेत्री का प्रयोग कई बार हुआ हैः
भास्वती नेत्री सूनृतानां दिवः स्तवे दुहिता गोतमेभिः।
यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरर्कैः ।
गवां नेत्री वाजपत्नी न उच्छोषः सुजाते प्रथमा जरस्व ।
एषा नेत्री राधसः सूनृतानामुषा उच्छन्ती रिभ्यते वसिष्ठैः ।
परंतु एक बार भी द्रष्टा के रूप में या चमकने वाले के रूप में नेत्री का प्रयोग नहीं हुआ सर्वत्र नेतृत्व करने वाली के रूप में हुआ है। इसलिए हम सोच सकते हैं कि नेत्र शब्द नयन की भांति गढ़ा हुआ शब्द है और इसकी सृष्टि बहुत बाद में हुई है।
दृग
हम ऊपर दृष्टि और दीठि पर विचार कर चुके हैं। वास्तव में दृष्टि दृग की ही नैसर्गिक शक्ति का नाम है। यह जल की तर/तिर/दर/दिर/थर/थिर आदि रूपों में श्रुत और अनुनादित शब्दों की विशाल श्रृंखला से जुड़ा हुआ एक शब्द है जिसमें, तिल से लेकर तरु तक, तृप्ति लेकर तृषा, त्रास और संत्रास तक, तिल से लेकर तिलक तक, तरीका से लेकर तड़प तक, तीर्थ से लेकर तिरस्कार तक, तरंग से लेकर तुरंग तक, तर्पण से लेकर दर्प और दर्पण तक इतने शब्द आते हैं कि इनकी नाम गणना के लिए कई पन्ने जरूरी होंगे। पानी में चमक होती है और उसी से प्रकाश और प्रकाश का स्रोत अर्थात आंख के लिए दृग शब्द निकला है। इस श्रृंखला के ट्री, ट्रिप, ड्रा, ड्राप, ड्राट, ड्रेन, थर्स्ट, थ्रिल आदि बहुत से शब्द अंग्रेजी तक पहुंचे हैं परंतु देखने या देखने से संबंधित कोई शब्द दिखाई नहीं देता, जबकि भारत में बोलियों से लेकर संस्कृत और वैदिक तक ऐसे शब्दों का बाहुल्य है।
ऋग्वेद में संदृक्षसे, अदृक्षत, दृशे, दृशेयं, दृशये, ददृश्रे, दृशीकं, मिथूदृशा, भ्राजदृष्टयः, अदृश्रम,संदृग्, सुसंदृशं, सदृङ्ङसि, अदृप्तो, ददृशे, विसदृश, ददृशान, अप्रदृपितः,अदृपिताय, दिदृक्षेण्यः,दिदृक्षेयः, दूरेदृशः, अदृष्टा, विश्वदृष्टा, प्रत्यदृश्रन्, दृशानम्, दृश्यान्, ददृश्वानः, यादृक्, तादृग्, दृशि, दृशतिः, दृशीकम्, सुदृशी, सदृशीः, सुदृशीकरूपः, चित्रदृशीक, दर्शतम्, दर्शता, ददर्श, दर्शनाय, सुदर्शतरः, आदि प्रयोग देखने में आते हैं। परन्तु हम अभी तक यह तय नहीं कर सके हैं कि देववाणी में इसका कोई पूर्वरूप था या नहीं और यदि था तो क्या। क्या यह तिक था जो टीका, टकटकी, ती्क, प्रतीक, तिग्म था? देववाणी का आदि इकार सारस्वत में ऋकार में बदलता तो है, पर इसे हम अभी दूर की कौड़ी ही कहेंगे।