Post – 2018-06-14

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया

शीर्षक के दोनों शब्द कुछ भ्रामक है। देववाणी, देव समाज द्वारा बोली जाने वाली एक अविकसित भाषा की और इसका व्यवहार उस समाज में सभी के द्वारा होता था और उसके बाहर के लोगों के लिए वह बोली या समझी नहीं जाती थी। जिसे हम जनवाणीकरण कह रहे हैं, वह एक विकसित भाषा में रूपान्तरण है, जिसका मूल आधार देववाणी भले रही हो, परंतु कई बोलियों के सोपर्क से अपना रूप बदलते हुए सारस्वत क्षेत्र में पहुंची थी और केवल उस वर्ग द्वारा बोली जाती थी जिसका उत्पादन के साधनों पर अधिकार था और दूसरे कई भाषाई पृष्ठभूमियों के जो लोग उनकी सेवा में लगे थे, वे अपने दायरे में अपनी बोली बोलते थे और दूसरों से संपर्क के लिए उस भाषा का व्यवहार करते थे जिसे उन्हीं की तरह अनेक भाषाई समूह व्यापक संपर्क के लिए अपना चुके थे। जिसे हमने कामचलाऊ रूप में जनवाणी की संज्ञा दी है वह इसी अर्थ में ग्राह्य है कि एक बहुत बड़े दायरे में यह लोक व्यवहार की भाषा थी जब कि उस पूरे क्षेत्र में अनेक प्रकार की बोलियां लोग अपने आपसी कामकाज में बोलते थे।

कहें, हम साहित्य की ओर यह स्पष्ट करने के लिए मुड़े थे कि यह भाषा कई चरणों पर विकसित होते हुए आदि देववाणी से क्रमशः आगे बढ़ते हुए उस ऊंचाई तक पहुंची थी जिसमें रची हुई रचनाओं को ऋग्वेद में पाते हैं परंतु साहित्य रचना की एक लंबी परंपरा रही होगी जो इस अवस्था से पहले के चरणों पर साहित्य का माध्यम बनी होगी, भले वह साहित्य हमारे लिए दुष्प्राप्य हो। साहित्य के अनुपलब्ध होने के बाद भी हम मान सकते हैं की अनेक मिथक और प्रतीक जो उस काल में रचे गए होंगे वे बाद में भी प्रयोग में आते रहे होंगे और ऋग्वेद की रचनाओं में भी इनका प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद का कवि जब कहता है, कि मैं इंद्र के उसे पराक्रम की बात कर रहा हूं जो उसने बहुत पहले (प्रथमानि- पहले पहल) किए थे। उस पराक्रम में वह यह बताता है कि उसने जल को चुरा कर भागने वाले बादलों को मार कर जल की वर्षा कराई और नदियों के द्वारा पर्वतों को विदीर्ण कर दिया। निश्चय ही वैदिक कवि युगों युगों से चली आई रूपकथा का अपनी रचना उपयोग कर रहा था। यह दूसरी बात है कि इतने बड़े और जटिल भूभौतिक कार्य व्यापार का सजीव चित्रण वह दो पंक्तियों में उपस्थित करने की क्षमता अपनी भाषा और काव्य संस्कार में पैदा कर चुका थाः
इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री ।
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम् ।। 1.32.1

इस परिघटना को अनेक तरह से बार बार दोहराया गया है,
त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरुं वज्रेण वज्रिन् पर्वशश्चकर्तिथ ।
अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः सत्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः ।। 1.57.6.58
इन्द्रो स्य दोधतः सानुं वज्रेण हीळतः ।
अभिक्रम्याव जिघ्नतेऽपः सर्माय चोदयन्नर्चन्ननु स्वराज्यम् ।। 1.80.5
स धारयत् पृथिवीं पप्रथच्च वज्रेण हत्वा निरपः ससर्ज ।
अहन्नहिमभिनद्रौहिणं व्यहन् व्यंसं मघवा शचीभिः ।। 1.103.2
सद्येव प्राचो विमिमाय मानैर्वज्रेण खान्यतृणन्नदीनाम् ।
वृथासृजत् पथिभिर्दीर्घयाथैः सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ।। 2.15.3
भिनद् गिरिं शवसा वज्रमिष्णन्नाविष्कृण्वानः सहसान ओजः ।
वधीद् वृत्रं वज्रेण मन्दसानः सरन्नापो जवसा हतवृष्णीः ।। 4.17.3
त्वमध प्रथमं जायमानोऽमे विश्वा अधिथा इन्द्र कृष्टीः ।
त्वं प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण मघवन्वि वृश्चः ।। 4.17.7
मैं इस परिघटना का उल्लेख दो कारणों से कर रहा हूं एक तो यह इसी के आधार पर आर्यों के आक्रमण का और अनार्यों के नगरों के ध्वंस का इतिहास खड़ा किया जाता रहा। इतने बड़े पंडितों का इतनी नासमझी भरी व्याख्या का प्रतिवाद करने के लिए ऋग्वेद में प्रचुर सामग्री थी, इसके बाद भी जिन विद्वानों के संस्कृत ज्ञान पर हमें भरोसा है वे इसका प्रभावशाली प्रतिवाद नहीं कर सके या उनकी बात उसी तरह नहीं सुनी गई जिस तरह मेरी अपनी, जिसने 1973 में प्रतिपादित किया था कि भारतीय भाषा और संस्कृति का निर्माण आदिम अवस्था से आगे बढ़ते हुए कई भाषाओं और नस्लों के सहयोग से हुआ है और नागर अवस्था के बाद तथा व्यापारिक प्रसार के क्रम में इसका विस्तार समूचे भारोपीय जगत में हुआ था।

उपेक्षा यदि तार्किक या प्रामाणिक आधार पर की गई होती तो और बात है, परन्तु इसे मानने से इन्कार इसलिए किया जाता रहा कि हमने ज्ञान और विज्ञान तक का सांप्रदायीकरण कर रखा था। ऐसा सांप्रदायीकरण हिंदुत्ववादियों के बस का नहीं था। ऐसा कारनामा हमारे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी ही कर सकते हैं और करते रहे। इसीलिए मेरा यह आरोप है कि भारत में सांप्रदायिकता की खेती करने वाले वे रहे हैं जो अपने को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं और इसका दोष सबका साथ सबका सम्मान करने वालों, सभी मतों और विश्वासों को पूरी छूट देने वालों के सिर मढ़ते रहे हैं। 1987 और 1995 में भाषा, साहित्य, पुरातत्व, नृतत्व, देवशास्त्र, जीनविज्ञान सभी के निर्णायक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए जब मैंने सभी को निरुत्तर कर दिया उसके बाद भी पिछले दरवाजे से उसी इतिहास को बचाने का प्रयत्न करते रहे। जिन्हें निरुत्तर करने के बाद भी मैं यह नहीं समझा सका कि आर्यों का आक्रमण एक फरेब था, उन्हें यह समझा पाना तो संभव ही नहीं कि पहली बार राष्ट्र निर्माण के संकल्प, और दूर दृष्टि को लेकर इतने क्षेत्रों में कितने तरह के काम और प्रयोग हो रहे हैं जिनके सामने उनकी आंखे चौंधिया जाती है, इसलिए उन्हे दिखाई कुछ नहीं देता, आंखों में चुभन अवस्य पैदा होती है, पर यह चौंध और चुभन उस चश्में के कारण है जिसे वे उतार दें तो अपनी ही नजर से उतर जाएंगे।

राजनीतिप्रेरित दबाव से प्रेरित विषयांतर के लिए क्षमा याचना सहित यह याद दिलाना चाहूंगा ऋग्वैदिक साहित्य हजारों वर्षों की साहित्यिक गतिविधियों का उत्कर्ष है तो उसकी भाषा में भी दसियों हजार पीछे के अनेक भाषाओं से लिए गए तत्व मौजूद हैं। इसी परिपेक्ष्य में हम देववाणी के वैदिक भाषा में रूपांतरण का आभासिक चित्र प्रस्तुत कर सकते हैं।

यह निवेदन किया था देववाणी में अंतस्थ ध्वनियों में केवल संघर्षी ऱ था, ल के विषय में हम पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो सकते। ऋ, लृ, ए, ऐ. औ, ण, य, व, श, ष दुनिया निश्चित रूप से नहीं थी। ऐसी स्थिति में जिस वर शब्द पर हम विचार कर रहे थे वह तो उसमें हो ही नहीं सकता था। इसका देववीणी का रूप बऱ था। यह घर्षी ऱ ही ळ, ड़, का जनक था। अब हम दो समानांतर रूपों को रखते हुए इस अंतर को या विकास को समझने का प्रयत्न करेंगे।
बर>वर, बड़ > वरं, बार/बाल > वार, बराअल/बरावल > वारण, बाड़-वार/वाल. बाड़ा >वर्त, बाट> वर्त्म/ वर्ति/ वृत, बर/बिर/बारि/बरि >बर/वृ/विर/वारि, बरस>वृष > बरखा>वृष्टि आदि। ये मेरे अनुमान है जिनमें से कुछ दूसरे विद्वानों के सुझाव के बाद बदले भी जा सकते हैं परंतु इतना स्पष्ट है शब्दसंपदा में वृद्धि एक तो ध्वनि परिवर्तन के कारण समानांतर हुआ, कुछ पुराने शब्दों में, जैसे बल, बलि, बली, बिल को रहने दिया गया। यद्यपि बाद में बिल को भी विवर बना दिया गया परंतु ऋग्वेद में बिल बचा हुआ है और उसी का दूसरा रूप वल पैदा हो चुका है।
कल की कल।