Post – 2018-06-13

#विषयान्तर
किसानों की कर्ज_माफी

किसानों की कर्ज माफी के तीन पक्ष हैं- राजनीतिक, अार्थिक और मनोवैज्ञानिक। पहले से चुनाव जीतने की उम्मीद की जाती है, दूसरे से विकास की दूसरे मदों के लिए अपेक्षित धन राशि का अपयोजन होता है, और तीसरे से किसानों को आत्महत्या का रास्ता अपनाना पड़ता है।
कर्ज की राशि किसी न किसी अनुपात में जरूरतमंद किसानों को भी मिलती ही होगी परंतु अधिकांशतः चालाक, पहुंच वाले और हेराफेरी करने में कुशल लोगों को ही मिल पाती है। बात आज से 20 साल पहले की होगी जब मैं अपने गांव गया था। मेरे समवयस्क एक व्यक्ति के यहां कर्ज की राशि चुकाने का परवाना लेकर कोई कारिंदा मेरे सामने ही पहुंचा था, और उसे उन्होंने अपने तरीके से निपटा लिया था। मैंने पूछा, तुम्हारी आर्थिक हालत अच्छी है, विदेश से पैसा भी आता है, तुमने कर्जा क्यों ले रखा है और पीछे का कर्जा चुकाए बिना तुम्हें नया कर्ज मिल कैसे गया था। मेरी बात सुनकर वह हंसने लगा। कहा आप नहीं समझेंगे इस बात को। कर्ज लेने के तरीके हैं। इलेक्शन आ रहा है। माफ हो जाएगा।

कर्ज देते समय बैंक कर्मचारी और बिचौलिए इस बात का ध्यान रखते हैं कि उस आदमी की भुगतान की हैसियत है या नहीं। इसलिए यह अक्सर औसत से अच्छी आर्थिक दशा वाले लोगों को ही मिल पाता है। यह एक सच्चाई है।

दूसरी सचाई यह है कि यह कांग्रेस का पुराना, आजमाया हुआ, हथकंडा है। कर्ज कांग्रेस प्रशासन से बिचौलियों को पार्टी के प्रति निष्ठावान बनाए रखने के लिए दिया और माफ किया जाता रहा है । बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद और इंदिरा जी के शासन से असंतोष पैदा होने के साथ इस हथकंडे को अपनाया गया। दूसरे दलों के काडर किन्ही सिद्धांतों में निष्ठा रखने के कारण तैयार किए जाते हैं कांग्रेस का काडर खाने पीने के सिद्धांत पर पलता और पनपता रहा है। यह सिलसिला किसी न किसी रूप में स्वतंत्रता के बाद ही आरंभ हो गया था, जब नेहरू जी को अपने परिवार और नातेदार लोगों को कुछ न कुछ देते देखकर दूसरों को अपने अपने हिस्से की याद आई थी और पहली बार दुर्भाग्य से मंदी के सहयोग से कालाबाजारी आरंभ हुई थी। इंदिरा जी ने उसे तार्किक परिणति पर पहुंचा दिया और जैसा कि राजीव जी ने भोलेपन से स्वीकार किया था विकास के लिए केंद्र से चला हुआ एक रुपया अंतिम मुकाम तक पहुंचने पर 25पैसा रह जाता है। इसलिए, जब पंजाब के मुख्यमंत्री ने कर्ज माफी की घोषणा की मैं हैरान नहीं हुआ था। राहुल जी ने जब कहा कि वह मध्य प्रदेश के किसानों का कर्जा माफ कर देंगे तुम मुझे अविश्वास नहीं हुआ । जब गायब होने वाले पैसों पर पलने वाले लोगों ने कांग्रेस शासन का अंत देखकर हल्ला मचाना शुरू किया था तब भी मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। कांग्रेस का काडर अदृश्य होता है, अपनी हितबद्धता के कारण इतनी मजबूती से उसके साथ खड़ा होता है कि उसके सत्ता से बाहर होने के साथ ही अर्ध विक्षिप्त हो जाता है।

तीसरी बात, कर्ज सभी किसानों को न तो मिल सकता है नहीं मिलता है, इसलिए जो लोग इस तरह का कर्जा लेते हैं और मौज मस्ती में उड़ा देते हैं उनसे दूसरे किसान जिनकी संख्या बहुत अधिक होती है, भीतर ही भीतर जलते हैं। इसके बावजूद अपनी वाचालता और हैसियत का लाभ उठाते हुए कुछ सीमा तक जनमत को मोड़ने में भी इनकी भूमिका होती है। परंतु अकेले कर्जमाफी के बल पर कोई इलेक्शन न तो जीता जा सकता है, न जीता गया है। पंजाब में इसके बावजूद यदि सफलता मिली तो वह कर्जमाफी के कारण नहीं, बल्कि इसलिए मिली अकाली दल से लोगों का वैसा ही मोहभंग हुआ था जैसे मनमोहन सिंह सरकार से। अकाली दल के कारनामों और नशे के बढ़ते कारोबार के कारण लोग किसी अन्य को चुनने के लिए तैयार थे। दिल्ली में बिजली पानी की रियायत या रिश्वत काम आई थी क्योंकि उससे अधिकांश लोग लाभांवित हो रहे थे। आर्थिक प्रलोभन देकर चुनाव जीतने वाला व्यक्ति लिखित रूप में यह स्वीकार करता है उसके पास सत्ता में आने या बने रहने का न तो नैतिक अधिकार है, न प्रशासनिक दक्षता, और न ही भविष्य कोई खाका।

आर्थिक पक्ष यह कि कर्ज की पूरी रकम का एक हिस्सा बैंक कर्मचारियों और बिचौलियों के पास चला जाता है यह जानते हुए भी कर्ज लेने वाला इसलिए निश्चिंत रहता है कि अगले चुनाव में कर्ज माफी होगी और जब नहीं होती है या बैंकों की खस्ता हालत के कारण वसूली पर जोर दिया जाता है तो मोहभंग की वह नौबत आती है जिसमें किसानों को आत्महत्या करनी पड़ती और संचार माध्यमों को हाय हाय करने का नया मसाला मिल जाता है। बैंकों में भ्रष्टाचार बढ़ता है और उस के अनुपात में बैंकों की हालत लड़खड़ाने लगती है। विकास की राशि बर्बाद होती है। निठल्ले बिचौलियों का एक तबका खतरनाक रूप से बढ़ता है।

मनोवैज्ञानिक पक्ष यह कि राष्ट्रीय स्तर पर मनोबल गिरता है, आत्मनिष्ठता के अनुपात में राष्ट्रनिष्ठा और समाज की चिन्ता का ह्रास होता है, आत्माभिमान घटता है, नैतिक का प्रतिरोध क्षीण होता है लालच बेशर्मी से बढ़ती चली जाती है
नैतिक ह्रास के विस्तार के चलते आपराधिक तरीकों से जल्दी से जल्दी धनी और उससे भी धनी बनने की लालसा का निर्लज्जतापूर्ण विस्तार होता है जिसमें मिलावट, कमीनापन और जघन्य अपराधों की बृद्धि में तेजी आती है, दहेज की मांग, रिश्वत की मांग ही नहीं बढ़ती है, हरामखोरी के साथ कामचोरी भी बढ़ती है। देश कुलांचे भरना तो दूर सीधी चाल से जलना तक भूल कर रेंगते हुए सरकता है। नैतिक मनोबल का हास नैतिकता से जुड़े सम्मान को भी खत्म कर देता है जो कि अनेक कष्टों को सहते हुए भी मनुष्य को नैतिक बने रहने का आत्मबल देता है। । किसी भी कीमत पर सफलता श्रेष्ठता का मानदंड बन जाती है।