#वैदिककविता
शब्द प्रयोग
वैदिक कविता के सौंदर्य पक्ष पर बात करने के प्रलोभन के बाद भी, अपने को इसलिए रोकना पड़ता है क्योंकि उसके चलते प्रस्तुत विषय से इतनी दूर चले जाने का डर है कि फिर भाषा के पक्ष पर वापसी हो ही न पाए। वे ऋचाओं, या अर्द्धालिओं में ही पूरा चित्र नहीं खड़ा कर लेते थे, अपितु कुछ कवि शब्दों में ही पूरा दृश्य उपस्थित कर देते थे। चित्रभानु – रंग बिरंगी रश्मियांं विकीर्ण करने वाला, पर्जन्यक्रन्द -वर्षा के घनगर्जना सी ध्वनि करने वाला, विश्वचर्षणी समस्त जगत का अवलोकन करने वाला, दशभुजी पृथ्वी- दसों दिशाओं के रूप में अपनी भुजाएं फैलाकर ब्रह्मांड को समाहित करने वाली भूदेवी, विश्वमिन्व – समस्त जगत को धन धान्य और आनंद से पूर्ण करने वाला/वाली, प्रातर्यावाना- प्रातः काल ही यात्रा पर चल देने वाले, उषर्बुध- उषा की रेखा के साथ ही नींद से उठ जाने वाले, विश्वपेशस् – बहुविधरूपयुक्तं, विश्वभानु – सर्वतः व्याप्ततेजस्क, विश्वभोजस – समस्त भोग्य पदार्थों से युक्त, विश्व भेषज- समस्त रोगों का निवारण करने वाला, समुद्रवासस- बादलों का वस्त्र पहने हुए (अग्निदेव), ज्योतिर्वसाना – ज्योतिका वस्त्र पहने हुए (उषा ), तविषीभिरावृतम् – ज्योतियों(शक्तियो) से आवृत, दुरोकशोचि- दष्प्राप्य तेज वाला, स्वर्दृशीक – स्वर्गोपम/ सूर्योपम, स्वाधी, विश्वधाय- समस्त विश्व को धारण (पालन) करने वाला, हिरण्यवर्तनी- अपने बहाव का मार्ग निरंतर बदलती रहने वाली या अपने प्रदेश को धन धान्य से पूर्ण करती रहने वाली,, सिषासु -धन जोड़ने की फिक्र में रहने वाला, शुक्रवास – श्वेत वस्त्र धारण करने वाला, , जिह्मबार – जिह्ममधस्ताद्वर्तमानतया वक्रं वारं द्वारं यस्य, समुद्रज्येष्ठ – समुद्रो अर्णवो प्रशस्तमो यासां मध्ये, जल भंडारों में सबसे विशाल (महासागर), समुद्रव्यचसं – समुद्र की गर्जना जैसा स्वर (इन्द्रं विश्वावीवृधन्त् समुद्रव्यचसं गिरः, जिसके लिए इसी से प्रेरित मेघमन्द्ररव गढ़ा गया।
शब्दों की नवीनता और सटीकता की तुलना भाषाविदों की सहायता से तैयार की गई शब्दावली से करें तो अन्तर स्पष्ट हो जाएगाः सत्यमन्त्रा, ऋजूयवः, अन्तरिक्षप्रां, मदच्युतं, संभृतक्रतु, बद्बधान, अद्रिदुग्ध, स्वतवस, रघुष्यदः, धनस्पृत, . इस गणना को और आगे बढ़ाते जा सकते हैं, परंतु उसका कोई लाभ नहीं। इतना ही पर्याप्त है कि हमारी तकनीकी शब्दावली के सवसे सटीक शब्द वे हैं जो ऋग्वेद से लिए गए हैं।
अधिक रोचक यह बात है कि वे शब्द निर्माण में कितनी छूट लेते थे और युक्तियों का प्रयोग करते थे। जाहिर है क्यों उनके बहुत से प्रयोग आगे चल ही नहीं पाए और इसका एक कारण यह था इसके बाद प्राकृतिक आपदा के लंबे दौर में नष्टप्राय हो चुकी सभ्यता में इनका कोई उपयोगिता नहीं रह गई थी। अभाव के कारण नागर सभ्यता से जुड़े हुए सभी लक्षण लगभग मिट्टी में मिल चुके थे और अगली पीढ़ियों को अपने नाखून से खोदते हुए टूटी फूटी विरासत को बचाना था, जिसमें उन्नत भाषा के लिए सबसे कम अवकाश था इसलिए जुटाए गए साहित्य में तो वे बचे रहे पर
कुछ शब्दों के बारे में यह शिकायत भी की जा सकती है कि उनके निर्माण में प्रयोगधर्मिता कुछ आगे बढ़ गई थी। इसमें छोटे शब्द भी आते हैं और दीर्घकाय शब्द भी। सर्वनाम के साथ सामान्यता संधि नहीं होती परंतु वैदिक प्रयोगशीलों के लिए कोई बंधन मान्य नहीं थाः सः+इमम्= सेमं, उपसर्ग धातुओं के साथ लगते हैं, संज्ञा के साथ नहीं, परंतु वेदिक कवियों को इसकी चिंता नहीं थी – आ+इंद्र = ऐन्द्र, उपसर्ग धातु से पहले लगते हैं वैदिक कवि पूरी पंक्ति में आगे पीछे शब्दों के अंतराल के बाद कहीं भी रख सकते थे ‘आ तू न इन्द्र शंसय‘ में संशय से दो शब्द पहले ही उपसर्ग को रख दिया गया। आगमत की जगह आ घा गमत् , आ स्वश्व्यं दधीत = स्वश्व्यं आदधीत आदि. अपनी कल्पना से वे तरह-तरह के नए संयोजन कर रहे थे अकामकर्षण, अकृत्तरुक, परंतु सबसे मजेदार है आ+इत+अ+याम+उप = एतायामोप. इहेहमातरा = इह+इह+माता – सर्वत्र माता ययोस्तादृशौ स्थः, सास्युक्थ्यः = सः+असि+उक्थ्यः, स्वेदुहव्यैः = स्व+इत्+उ+ हव्यैः, सचोतेधि = सचा+उत+एधि;।
वैचित्र्य का एक कारण भाषा का व्यवहार कई भाषाई पृष्ठभूमियों से आए हुए और देव भाषा सीखने के प्रयत्न में लगे हुए लोगों के प्रयोग की विचलनें हैं जिन्हें संभवतः वे स्वयं लक्ष्य भी न कर पाते रहे हों, इसलिए सः> स्यः (यः स्यः दूतो न आजगन् ), स्वयं – स्वेन (स्वेना हि वृत्रं शवसा जघन्थ ), कुण्वैते, ब्रवैते, वितन्तसैते, इयत्तक/इयत्तिका; जैसे प्रयोग देवभाषा के लोगों द्वारा किए जाते रहे हो सकते हैं, परंतु इसके लिए जितना विस्तृत ज्ञान होना चाहिए उसके लिए मेरे पास समय नहीं है परंतु इत्ता सा, इत्ती सी जैसे प्रयोग भोजपुरी में चलते हैं। देभुः, वन्दारु, सनेरु, जबारू, कुणारु, निचेरुः,अभ्यारुः, तितिरुः, कारु,पेरुः,शरुः, विभंजनु, वंकू में भोजपुरी प्रत्यय साफ देखा जा सकता है।