#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया( (8)
‘ऋ’ ध्वनि के विषय में हम दो बातें जानते हैं, पहली यह कि इसका शुद्ध उच्चारण सामान्य बातचीत में कोई नहीं करता। सुशिक्षित लोग जब इसका शुद्ध उच्चारण करते हुए बात करते हैं तो वे सामान्य से कुछअलग और विचित्र लगते हैं। यह ध्वनि न तो प्रकृति में रही (उसमें इर्, रिर्, किर्,उर्, रुर्, कुर् जैसे नाद या अनुनाद संभव हैं), न ही भारत की किसी बोली में, न ही देशांतर में फैली उस भाषा परिवार की किसी शाखा में। स्वाभाविक ध्वनियों के साथ ऐसा नहीं होता। वे मरती नहीं हैं। इस तरह की स्थिति तभी उत्पन्न होती है, जब किसी ध्वनि के उच्चारण में किसी समुदाय को कठिनाई होती है और वह अपने पूरे आयास से जो उच्चारण करता है वह कामचलाऊ होता है और उसमें अस्थिरता बनी रहती है, पर शास्त्रीय विवेचन में उनके लिए कोई नियत स्थान और प्रयत्न सुझा दिया जाता है । इस दृष्टि से मेरी पिछली पोस्ट पर प्रचंड प्रद्योत जी की टिप्पणी दर्शनीय है। परंतु इस स्थिति में भी कम से कम उस भाषा में उसका सही उच्चारण अवश्य किया जाना चाहिए, जिसकी ध्वनि का अनुकरण किया जा रहा था। ‘ऋ’ के मामले में हम ऐसा भी नहीं पाते, जब कि ‘ञ्’, ‘ङ्’, के विषय में निराश हाथ नहीं लगती।
ध्वनि वैज्ञानिकों ने इसका एक और कारण सुझाया है। वे मानते हैं हैं कि हमारे काकु की स्थिति में परिवर्तन आया है। हमारे पुराने विभाजन कंठ्य, तालव्य. मूर्धन्य, दन्त्य और ओष्ठ्य, के स्थान पर वे इनका उच्चारण स्थान निम्न रूप में रूप में प्रस्तुत करते हैंः
दन्त्योष्ठ्य, फ. दन्त्य, त, थ, द, ध. वर्त्स्य, न, स, ज, र, ल, ळ. मूर्धन्य, ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष. कठोर तालव्य, श, च, छ, ज, झ. कोमल तालव्य, क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़. पश्च-कोमल-तालव्य … थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ – व्यंजन महाप्राण हैं। वर्गों के पहले, तीसरे और पांचवे वर्ण अल्पप्राण हैं। (विकीपीडिया)
इससे मिलते जुलते नतीजे पर अपने निजी तरीके राजवाडे भी पहुंचे थे। संस्कृत भाषेचा उलगडा में पाणिनि के सूत्र ‘ससजुषो रुः’ ८।२।६६ की व्याख्या करते हुए उन्होंने यह पता लगाने का प्रयत्न किया था कि वह कौन सी स्थिति हो सकती है जिसमें एक ही ध्वनि स‘, ‘‘ह‘, और र‘ तीन रूपों में परिवर्तित हो सके। वह संस्कृत पर दूसरी भाषाओं के प्रभाव की कल्पना नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने आर्यों के ही कई समुदायों के कई चरणों पर मिलने के तर्क से संस्कृत की ‘आंतरिक समस्या’ को सुलझाने का प्रयास किया था। उन्होंने कल्पना की कि बहुत पहले हमारे उच्चारण तंत्र में कंठ की स्थिति कुछ भिन्न थी। इसलिए एक ध्वनि ऐसी थी जिसका उच्चारण स, ह और र के बीच किया जा सकता था, या जिसे सुनते समय स् ‘, ह् ‘, या र् ‘ की श्रुति होती थी।
हम संस्कृत के विकास में दूसरे भाषा-भाषियों की भूमिका को निर्णायक मानकर चल रहे हैं, जब कि आधुनिक पाश्चात्य विद्वान भी भाषा के आन्तरिक ध्वनिनियम से ऐतिहासिक क्रम में हुए परिवर्तन की बात करते रहे हैं, इसलिए हमें उनके समाधान अग्राह्य प्रतीत होते हैं, फिर भी उनकी टिप्पणी का एक विशेष संदर्भ है।
हम आद्य भारोपीय की कल्पित ध्वनिमाला की ’बारीकियों’ को नहीं समझ पाते, न ही ही अपनी व्याख्या के लिए इनकी जरूरत समझते हैं।
वे दूसरी भाषाओं के प्रभाव की बात आक्रामकों द्वारा लाई गई भाषा के स्थानीय भाषा के ऊपर आरोपण और इस में आए परिवर्तनों को अधस्तर के प्रभाव के रूप में करते रहे हैं । कहें, बाहर से आई हुई भाषा को यूरोपीय अपेक्षाओं के निकटतम रखकर उसमें आए परिवर्तनों को इस अधस्तर के कारण घटित मानते रहे हैं जो कि सभी दृष्टियों से गलत है।
यूरोप के कतिपय विद्वानों को (Kuiper)बहुत विलंब से यह स्पष्ट हुआ कि आर्य भाषा के विकास क्रम में ही तीन भाषा समुदायों का योगदान है, परंतु इसे स्वीकार करने के बाद भी वे पहले से चली आ रही अवधारणाओं में अपेक्षित बदलाव नहीं कर सके, न कर सकते हैं, क्योंकि यह उस योजना के ही किए कराए पर पानी फेरने जैसी कृतघ्नता होगी, जिसके लिए उनकी कई पीढ़ियों ने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। इसलिए अपनी गलती का आभास हो होने पर भी उन्होंने कभी खुलकर अपनी गलती मानने या इसे सुधारने का प्रयत्न नहीं किया। भारतीय अध्येता भी उन्हीं के निर्देशन में काम करते रहे, इसके कारण पुरानी लीक को पीटते रहे हैं।
किसी अन्य भाषा की ध्वनियों का उच्चारण कठिन होता है और कुछ का उच्चारण तो प्रयत्न करने के बाद भी सही नहीं हो पाता। अंग्रेजों जैसी फर्राटेदार अंग्रेजी सीखने का प्रयत्न करने वाले अंग्रेजों की तरह नहीं बोल पाते । मुझे इस तरह की कठिनाई तमिल के उस वर्ण के उच्चारण में होती है जो तमिल में ‘ल’ के रूप में अंकित है। बहुत प्रयत्न से कई संभव रूपों में उच्चारण करने के बाद भी कोई उच्चारण, सही उच्चारण सिखाने वालों को सन्तुष्ट नहीं कर सका। समस्या केवल मेरे साथ नहीं है, इस ध्वनि का सही उच्चारण उत्तर भारत के व्यक्तियों के लिए लगभग असंभव है और इसलिए इसके उच्चारण की दुष्करता के प्रभाव से इससे पहले की ध्वनियां तक प्रभावित हो सकती है। संस्कृत के विद्वान तमिझ़ को द्रविड़ लिखते थे, अज्ञेय जी ने इस ध्वनि के लिए ‘ष़’ चिन्ह चलाया था। वर्धा की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने इसके लिए ’ऴ’ का चिन्ह सुझाया था और मैंने अभी ‘झ़’ लिखा है। इनमें से कोई उसके सही उच्चारण में सहायक नहीं हो सकता। ये सुझाव विफलता के अलग अलग रूप हैं, और किसी नई भाषा की ध्वनि से उत्पन्न समस्या की गंभीरता को प्रकट करते हैं।
अब इस पृष्ठभूमि में ही हम यह कल्पना कर सकते हैं की वास्तविकता क्या रही हो सकती है। पूर्वी बोली में ‘र’ हलंत तो हो सकता है, पर दूसरी ध्वनियां हलंत हो कर ’र’ से नहीं मिल सकती। हम जहां से इस समस्या को समझने के लिए अलग हुए थे वहां लौटते हुए कहें कि पूर्वी में बर्फ हो सकता है परंतु ब्रफ नही, बर्न/ वर्न (वर्ण) चल सकता है, व्रण नहीं। ऋग्वेद की मात्र एक ऋचा है जिसमें पूर्वी प्रभाव बहुत स्पष्ट हैः
सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतू नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका ।
उदन्यजेव जेमना मदेरू ता मे जराय्यवजरं मरायु ।। 10.106.6
परंतु इस ऋचा में पहला शब्द ही उसकी प्रकृति के अनुरूप नहीं है। हम इसकी आगे छानबीन करने से पहले यह बता दे कि नई ध्वनियां – य, व, श, ण – आदि सीखना उस भाषिक परिवेश में रहने के कारण कुछ पीढ़ियों के बाद समस्या नहीं पैदा करती थी, परंतु असवर्ण संयोग समस्या पैदा करता था। ‘वर’ का ‘विर्’ और यहां तक कि ‘विर्र’ उसकी प्रकृति मैं है (बिरावल, बिर्रावल, घिर्रावल, कर्र्हावल, फर्राटा) ‘व्री’ आज भी उसकी प्रकृति के अनुरूप नहीं है। ऐसे प्रयोग केवल सीखी हुई भाषा संस्कृत हिंदी या अंग्रेजी वह सीखने और बोलने वाले ही करते हैं।
भोजपुरी में ‘र’ की दो तरह की ध्वनियां है यही स्थिति तमिल और तेलुगु की भी है। एक सामान्य जिसे हम मूर्धन्य करते हैं और दूसरा कंपित ‘र‘ जिसका उच्चारण उसी तरह प्रतिध्वनित होता था, जैसे तारवाद्य या तंत्री वाद्य ( तांत) के छेड़ने पर कुछ देर तक होता रहता है। व्री, क्री जैसी ध्वनियों को बहुत प्रयत्न के बाद वे उसी कंपित ‘र’-कार से युक्त करके बोलते थे जो सारस्वत जनों के लिए एक पहेली थी। मेरे अनुमान के अनुसार ‘ऋ‘-कार का आविर्भाव इसी असमंजस की देन था और इसलिए केवल संस्कृत और वैदिक वैदिक तक सीमित रह गया। इससे बोलियां प्रभावित नहीं हुई न ही देशांतर की भाषाएं।