#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया( (7)
टवर्ग की -ट्, ठ्, ड्, ढ् -चार ध्वनियां पूर्वी बोली में ही सक्रिय रही लगती हैं। ‘ट‘-कार तो किसी अन्य भाषा की तुलना में असमी में अधिक प्रबल दिखाई देता है, बांग्ला में भी इसकी उपस्थिति स्वाभाविक है। महाप्राणीकरण का अतरिक्त आग्रह केवल भोजपुरी की विशेषता है । इसके कारण बांग्ला का ‘टि‘/‘टा‘ भोजपुरी में ‘ठो‘ हो जाता है। पूर्वी बोलियों में घोष अल्पप्राण ‘ड‘ के अतिरिक्त ‘ड़‘ ध्वनि अपना रखी थी। ‘ड‘ का महाप्राणीकरण इसने ‘ढ‘ के रूप में कर रखा था और ‘ड़‘ महाप्राणीकरण करते हुए ‘ढ़‘ की एक अलग ध्वनि बना ली थी। यह अकेला वर्यग है जिसमें एक की जगह दो सघोष महाप्राण ध्वनियां हैं। यह इस बात का प्रमाण है की जिस भी बोली के कारण हो भोजपुरी मैं पहले से ही इतनी सक्रिय थी कि इसके ‘ट‘-वर्ग में छह वर्ण थे , और वह भी इसके बावजूद कि इसमें ‘ण‘ की अनुनासिक ध्वनि नहीं थी।
‘ड़‘, ‘ढ‘ और ‘ढ़‘ का उच्चारण सारस्वत वासियों के लिए कष्टसाध्य था, इसलिए वे आयास पूर्वक ‘ड़‘ का उच्चारण ‘ळ‘ और ‘ढ़‘ का ‘ळ्ह‘ के रूप में करते थे। ‘ण‘ ध्वनि सारस्वत बोली में अवश्य विद्यमान थी, जो भोजपुरी में ही नहीं पूरब की किसी भी बोली में आज तक अपनी जगह न बना सकी। इस गड़बड़ी को रामविलास जी के इस सुझाव से समझा जा सकता है कि यदि किसी भाषा में किसी वर्ग की कोई या कुछ ध्वनि/ ध्वनियां मिलती है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसमें उस वर्ग की सभी ध्वनियां पाई जाएंगी।
यह विचार कि पश्चिम की जिन बोलियों में ‘ण‘ ध्वनि इतनी सक्रिय है कि वे ‘न‘ को अनिवार्य रूप से ‘ण‘ मैं बदल लेती हैं, उनकी बोलियों में ‘ट‘-वर्ग की दूसरी ध्वनियों का अभाव था कुछ चौंकाने वाला लग सकता है। हमें स्वयं भी यह बात कुछ अविश्वसनीय लगी इसलिए हमने इन ध्वनियों की आवर्तिता को समझने का प्रयत्न किया जिसके परिणाम निम्न प्रकार हैंः
ट – 2, ट्- 50, ठ 40, ठ् -0, ड- 2, ड् – 12, ड़ – 0, (ळ – 135) ढ – 0, ढ़ – 0 (ळ्ह – 34), ण – 1334, ण् – 537, (ण्व- 231, ण्ट – 0, ण्ठ – 0, ण्य – 306)
यहां हम ‘त‘- वर्ग की ध्वनियों से इसकी तुलना करें तो अंतर है इतना चौकाने वाला मिलेगा कि हमें विश्वास न होगाः
त – 9003, त् – 1625, थ – 736, थ्- 17, द- 5240, द् – 1353 ( द् -937, द्य – 416), ध – 1742, ध् – 1003 ( ध् – 3, ध्य -200, ध्या – 211, ध्यै – 70, ध्व – 475, ध्वा -47) , न – 7523, न् – 5710 (न् -2066, न्य – 577, न्व – 515, न्म -345, न्त 1264, न्द – 370, न्न – 573)।
परंतु यह एक विवादास्पद तुलना होगी, क्योंकि यह कहा जा सकता है हिंदी और संस्कृत के रूपों में भी ट-वर्गीय ध्वनियों की आवर्तिता बहुत कम है। हम मानते हैं हिंदी और संस्कृत दोनों का विकास पश्चिमी क्षेत्र में हुआ है जहां ण के अतिरिक्त अन्य ट-वर्गीय ध्वनियों के लिए उपेक्षा का भाव था। इसके कारण इनकी संख्या इतनी कम दिखाई देती है पूर्व की बोलियों में ऐसे शब्दों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत अधिक पाई जाती है। तवर्गीय ध्वनियों के दबाव में इनकी अपनी शब्दावली का बहुत बड़ा अंश लुप्त हो गया और नए शब्दों की सर्जना बंद हो गई। परंतु सभी को संतुष्ट नहीं कर सकता इसलिए हम केवल ‘ट‘-वर्ग की अन्य ध्वनियों की तुलना में ‘ण‘ आवर्तिता की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे और इस तथ्य को रेखांकित करना चाहेंगे कि पूरे वर्ग की समस्त ध्वनियों की तुलना में अकेले ‘ण‘ की आवर्तिता कई गुना है। यदि दूसरी ध्वनियां इसकी अपनी होती तो उनकी आवर्तातिता अपेक्षाकृत अधिक होती।
यहां हम याद दिला दे कि हमने मात्राओं के साथ इन ध्वनियों को नहीं लिया है और उस दशा में अनुपात में मामूली अंतर भी दिखाई दे सकता है परंतु वह एक अधिक बोझिल और नीरस काम होता, इसलिए पुस्तकाकार प्रकाशन उसका स्थान जरूरी हो सकता है, प्रस्तुत लेख में नहीं।
एक दूसरी समस्या एक ऐसी ध्वनि जुड़ने की है जिसके उच्चारण के विषय में, न तो यह कहा जा सकता है कि कभी कोई इसका सही उच्चारण करता था, न ही यह कि आज कोई करता है। परंतु वैदिक में और संस्कृत में ही यह इतनी लोकप्रिय ध्वनि हो गई कि इसका दीर्घ भी कल्पित कर लिया गया जिसका प्रयोग किसी एक दो शब्द में (जैसे निर्ऋृति) हुआ हो तो हुआ हो, अन्यथा नहीं। यह है ऋ ध्वनि। इसके अनुकरण पर लृ की भी एक ध्वनि कल्पित कर ली गई, जिससे न कोई शब्द आरंभ होता है, नही इसका शब्द के मध्य या अंत में प्रयोग देखने में आता है। हम यह मानते हैं, कि इसकी उत्पत्ति के पीछे किसी अन्य ध्वनि के उच्चारण की अशक्यता का हाथ है । इसके लिए हमें कुछ विस्तार में जाना होगा इसलिए इसे हम आज नहीं उठा सकते।