Post – 2018-05-27

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया( (6)

हमारे सामने यह बात बहुत स्पष्ट होनी चाहिए की जिसे हम भारोपीय क्षेत्र कहते हैं उसमें जिस भाषा का प्रसार हुआ वह संस्कृत नहीं थी, न ही इसका प्रसार एक झटके में हुआ था। इसमें एक लंबा समय लगा था जो कृषि के आरंभ से लेकर वाणिज्य के चरण तक, जिसे हम परिपक्व हड़प्पा काल कहते हैं, फैला है। बाहर जाने वालों में भी अलग-अलग कारणों से अलग अलग चरणों पर विभिन्न भाषा भाषी समुदायों काे भारत से प्रस्थान करना पड़ा था। इनमें से कुछ का संपर्क भारत से बना रहा, कुछ वहीं बस गए और कुछ के मन में वापसी की लालसा तो बनी रही परंतु वापसी के दरवाजे बंद थे। इसलिए इस विशाल क्षेत्र में कुछ ऐसे अंचल हैं जिनमें आर्य भाषा के अतिरिक्त, आज की शब्दावली में मुंडा और द्रविड़ भाषाओं के सघन प्रभाव लक्ष्य किए गए हैं। इनमें कुछ तो अपने अंचल में अपना दबदबा कायम करने में भी सफल रहे थे।

जिस चरण पर उस संपर्क भाषा का प्रसार हुआ जिसे वैदिक भाषा के बोलचाल का रूप कह सकते हैं, उस समय अपनी उन्नत अर्थव्यवस्था के कारण इसका प्रभाव एक साथ बहुत विशाल क्षेत्र पर पड़ा और भारत से लेकर यूरोप तक और दक्षिण में ईरान और मिस्र तक इसने समस्त क्षेत्रों को आप्लावित कर दिया। उनकी अपनी भाषाएं इसके अनुसार समायोजित होने का प्रयास करती हुई अलग-अलग भाषाओं के रूप में प्रकट हुईं। इनसे पारिवारिकता का भ्रम पैदा होता है, परंतु यह सभी भाषाएं अनेक भाषा परिवारों की थीं ।

स्वयं भारत में संस्कृत का विकास मुंडा और द्रविड़ भाषाओं से कितनी गहराई तक प्रभावित है इसका सही आकलन करना एक स्वतंत्र अध्ययन की अपेक्षा रखता है। उदाहरण के लिए यह संभव है कि अनुनासिक ध्वनियां ङ्, ञ् किसी ऐसी बोली से आई हों जिसे आज मुंडा परिवार में और न् तथा म् किसी अन्य से जिसे द्रविड़ परिवार में रखना अधिक न्याय संगत होगा। यह बात शब्द के अंत में न् और म् ध्वनियों के प्रयोग के विषय में अधिक आश्वस्त होकर कही जा सकती है। ण् ध्वनि का स्रोत क्या है यह हम तय नहीं कर सकते।

ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि ङ और ञ से आरंभ होने वाला कोई शब्द संस्कृत में नहीं मिलता जब कुछ मुंडा भाषाओं में ऐसा प्रयोग होता है। द्रविड़ मैं तमिल और मलयालम में नाम के साथ आज भी म् और न् ध्वनियों का अंत में प्रयोग किया जाता है।

संस्कृत में जिन शब्दों के अंत में म् या न् लगा होता है, संबोधन में इन ध्वनियों का लोप हो जाता है। एक वचन प्रथमा में फलम्, परन्तु संबोधन में हे फल, ब्रह्मन् , हे ब्रह्म।

संस्कृत में वैयाकरणिक लिंग तो निश्चित रुप से या तो सीधे मुंडा से या किसी द्रविड़ भाषा या बोली के माध्यम से लिया गया है और इसीलिए संस्कृत में लिंग को लेकर खासी अराजकता पाई जाती है। बहुवचन के रूप दूसरी भाषाओं से बहुत अधिक प्रभावित हुए हैं । यह प्रभाव ध्वनिकेंद्रों के पारस्परिक संपर्क में रहने के कारण नहीं आए हैं, अपितु अपने क्षेत्र विस्तार के क्रम में भिन्न भाषा समुदायों के अंचलों से गुजरते हुए और उन्हें अपने समुदाय का अंग बनाते हुए जो लोग सारस्वत क्षेत्र में पहुंचे थे उनमें स्वयं ही अनेक जातीयताओं के लोग मिले हुए थे। यदि इन सभी को आर्य कहा जाता था तो केवल इसलिए वे कृषि कर्मी बन चुके थे और स्वयं को भी आर्य कहने लगे थे । जाहिर है कि वे वह भाषा बोलने लगे थे जिसे आर्य भाषा या किसानों की भाषा कहा जा सकता था, परंतु आरंभ में पूरी भाषा का ज्ञान न होने के कारण जहां-तहां अपनी भाषा के पदों का भी प्रयोग करते थे और यह छूट भाषा की ध्वनि प्रकृति के कारण उनके उच्चारण को प्रभावित करती थी और इस तरह इस विकासमान भाषा में नई ध्वनियां भी जुड़ जाती थीं।

सारस्वत अंचल के लोग भी, भरसक सही भाषा बोलने का प्रयत्न करते थे, परंतु उनकी भाषा में सघोष ध्वनियां तो थीं परंतु सघोषमहाप्राण ध्वनियों का अभाव था। यदि अकेली सघोषमहाप्राण ध्वनि आती तो वे प्रयत्न करने पर उनका उच्चारण कर लेते। एक साथ दो सघोषमहाप्राण ध्वनियों के होने पर पहले अक्षर का महाप्राणन हटाने के बाद ही उसका उच्चारण कर पाते। पुरानी भाषा में भूतकालिक क्रिया बनाने के लिए क्रियापद की आवृत्ति की जाती थी और उसका संक्षेपण करने के लिए पहले आए क्रियापद था पहला अक्षर ही परवर्ती पद से जुड़ता। चर – चल, चार – चला, *चारचार.> चचार – चला था । कर – करो, कार – किया, *कारकार> *ककार – किया था । सारस्वत जनों को ककार का उच्चारण करने में कठिनाई होती थी इसलिए वह इसका उच्चारण चकार करते थे। इसका अर्थ है, उनकी ध्वनि माला में क की ध्वनि नहीं थी संभव है कंठ्य ध्वनियोंका का ही अभाव रहा हो। सघोष महाप्राण ध्वनियों का अभाव इसी का परिणाम रहा हो सकता है। ऋग्वेद में कवर्ग और च वर्ग की ध्वनियों की आवर्तिता निम्न प्रकार हैः
क 1885 च 2443
ख 67 छ 49
ग 1695 ज 3602
घ 512 झ 0
अमहाप्राणित ध्वनियों के मामले में चवर्गीय ध्वनियों की आवर्तिता अपेक्षाकृत अधिक हैं, महाप्राणित अघोष ध्वनियों के मामले में कम, और घोष महाप्राण चवर्गीय ध्वनि का सर्वथा अभाव। कृषिकर्मी समुदाय का सरस्वती क्षेत्र में प्रवेश आज से लगभग आठ साढ़े आठ हजार साल पहले हुआ था। ऋग्वेद की उपलब्ध ऋचाओं का रचनाकाल हम आज से पांच साढ़े पांच हजार साल पहले से आरंभ माने तो यह स्थिति लगभग 3000 साल तक लगातार भाषाई समीभवन के बाद की है, जिस बीच बाहर से आने वालों की संतानों को भी आपना इतिहास लगभग भूल चुका रहा होगा। सभी एक ही भाषा बोलने का प्रयत्न कर रहे थे। इसके बाद भी अकेली सघोषमहाप्राण ध्वनियां लगभग सुरक्षित थीं। वर्णमाला में उनका प्रवेश हो चुका था। परंतु स्थानीय प्रभाव के कारण जहां सघोष महाप्राण ध्वनियाँ एक साथ आती थीं उनका उच्चारण कष्टसाध्य होता था और इसलिए पहले अक्षर का महाप्राणन हटा दिया जाता थाः भू – होना, भूव – हुआ. * भूवभूव >बभूव।

पूर्व की बोली में महाप्राण ध्वनियों के लिए विशेष अनुराग दिखाई देता और इसलिए इनकी आवर्तिता से वहां कोई समस्या नहीं है, वे अघोष हों या सघोष ः
खखाइल, छछाइल, ठठावल, थथमथाइल, फफाइल
घाघ, झोंझ, ढिढोरा, धधाइल, भभाइल
प्रमाणों का विस्तार किया जा सकता है परंतु उसका कोई लाभ नहीं।

हमारे प्रयोजन के लिए इतना ही पर्याप्त है कि सारस्वत क्षेत्र के अन्य लोग घोष महाप्राण भाषा को बहुत उत्सुकता से यथासंभव शुद्ध रूप में सीखने का प्रयत्न कर रहे थे. परंतु घोष महाप्राण ध्वनियों के कारण उन्हें कठिनाई अनुभव हो रही थी और वे उनका महाप्राणीकरण हटाकर सघोष बना लेते थे। इसके बाद भी यह प्रक्रिया पूरी नहीं हुई थी। इसे ऋग्वेद और बाद के प्रतिरूपों को एक साथ रख कर समझा जा सकता है धा – दा, घर्म – गर्म, घ – ह, अद्रोघ -अद्रोह, घस – ग्रस, मघत्त- महत्व, दभन् – दबाना, आभर-आहर।