Post – 2018-05-18

वर्णव्यवस्था

क्या आपने सोचा है वर्ण का अर्थ सामाजिक विभाजन कैसे हो गया?

इसके एक अर्थ से तो सभी परिचित हैं। वह है रंग। लंबे समय तक सुझाया जाता रहा, वर्ण का संबंध चमड़ी के रंग से है। स्थानीय लोगों का रंग काला था। इसमें गोरी चमड़ी के लोगों का प्रवेश हुआ और इस तरह समाज का विभाजन दो वर्णों में हो गया, एक आर्य वर्ण और दूसरा दास वर्ण। इन्हीं दासों को परास्त करके उन्होंने अपने अधीन किया – यो दासवर्णं अधरं गुहा कः।

परंतु यहां समस्या यह पैदा हो जाती थी कि वर्ण तो चार हैं। चार तरह रंगों में तीन तो आर्यों के ही थे। फिर जिन देशों में, वैदिक (उनके अनुसार भारोपीय) भाषा और संस्कृति का प्रसार हुआ उनमें से अनेक में वर्णव्यवस्था के अवशेष मिलते थे। इसके दो नतीजे निकाले जा सकते थे। पहला, वर्णव्यवस्था का जन्म भारत में हुआ। ऐसा मानने के पक्ष में यह बात भी जाती थी कि भले इसका प्रसार अन्यत्र भी हुआ पर अन्यत्र यह टिक नहीं पाई। भारत में इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि इसके विरुद्ध आन्दोलन भी किए गए, फिर भी इसको मिटाया नहीं जा सका।

यहां ईसाइयत के दुष्पप्रचार और अवसरवादी हुल्लड़बाजी के बीच यह याद दिलाना जरूरी है, कि ये आन्दोलन आज की शब्दावली के दलितों द्वारा नहीं, सवर्णों द्वारा ही किए जाते रहे और मध्यकाल में भी जब कबीर भर्त्सना में गालियां देते हुए और रैदास अपने मार्मिक तर्क द्वारा, नानकदेव अपने मानववादी आग्रह द्वारा अपना अभियान चला रहे थे तब भी् ब्राह्मणों सहित अन्य सवर्णो द्वारा कितने उत्साह से इसका समर्थन किया जा रहा था, इसका अनुमान सिख पंथ में वेदियों की उपाधि और रैदास की इस दर्पोक्ति में देखा जा सकता है कि वेदज्ञ ब्राह्मण तक उनको दंडवत करते थे। असाधारण आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचे या ऐसा भ्रम पैदा कर लेने वाले सिद्धों, संतों, योगियों, फकीरों, तांत्रिकों, सूफियों तक की भारतीय समाज के सभी वर्णों के लोग जाति सीमा को पार करके आदर करते रहे, इसे भुलाना और जो अभी कल तक मानवयातना के कारोबारी रहे हैं उनका क्रीतदास बन जाना, मानसिक दिवालियापन का सूचक है, और इसके शिकार क्रान्तिकारी कहाने को आतुर बुद्धिजीवी सबसे अधिक हैं।

यदि वे सचमुच बुद्धिजीवी हैं तो उन्हेो इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि इतनी प्रबल सामाजिक आकोक्षा के बाद भी यह क्यों बनी रह गई है।

खैर इसे भारतीय परिघटना मानते ही जिन्होंने आक्रमणकारी आर्यों की कहानियां गढ़ी और प्रचारित का थीं, उनका पूरा ताशघर जमीन पर आ जाता था। तब उनकी योजना से उलट यह सिद्ध होता था कि वैदिक भाषा और संस्कृति का प्रसार पूरे भारोपीय क्षेत्र में, किसी भी युक्ति से, भारत से बाहर जाने वाले लोगों द्वारा किया गया था। कालों के देश में काले गोरे काले का फरक भी समाप्त हो जाता था, इसलिए वे बौद्धिक अस्थिरता पैदा करके इसका मौके की नजाकत के अनुसार लाभ उठाते हुए हमारे बुद्धिजीवियों को जाहिलों की तरह इस्तेमाल करते रहे और आज भी कर रहे हैं।

हमारी समस्या यह है की वर्ण शब्द में विभाजन और रंग के दोनों अर्थ कैसे आए? पहले हम विभाजन को लें।

‘वार’ जिसका विकास ‘बाड़’ या ‘बाड़ा’ में हुआ उसके दो रूप थे। एक किसी समुदाय या परिवार के अटन क्षेत्र का निर्धारण करने वाली रेखा या भौगोलिक सीमा। दूसरा जंगली जानवरों के आक्रमण से अपनी रक्षा के लिए लगाई जाने वाली कृत्रिम घेराबंदी जिसे हम ‘चारदीवारी’ या ‘बाड़’ (फेंस) कहते हैं। आगे चलकर ‘दीवाल/दीवार’ या अंग्रेजी के ‘वाल’ का विकास इसी से हुआ। इसी ने बहुत बाद में नगर प्राचीर या प्राकार का भी रूप लिया।

पहले वाले ‘वार’ या ‘वारित भूभाग’ देश की अवधारणा और उसकी सीमा रेखा में विकसित हुआ। ‘वर्ण’ या ‘वारणसीमा के भीतर और बाहर के लोगों का विभाजन’ था। यह एक तरह से स्वजन या भीतर के अपने ‘ज्ञात जन’ और ‘वृजन या अज्ञात वर्ण’ का विभाजन था। ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में परिणत नहीं हुई थी, या इसमें कठोरता नहीं आई थी, परंतु चातुर्वर्ण्य व्यवस्था कृषि के आरंभ से ही जडें जमा चुकी थी। इतना समय बीत जाने के बाद भी पुराना वर्ण विभाग या अपने-पराये का भेद पूरी तरह विस्मृत नहीं हुआ था अथवा उसका एक व्यापक अर्थ में अब भी प्रयोग हो रहा थाः
दूरे अज्ञाता उषसो बबाधे, 4.23.7 (अज्ञात जनों को उषाएं रोक कर हमसे दूर रखें।)
मा नो अज्ञाता वृजना दुराध्यो माशिवासो अव क्रमुः, 7.32.27 (अज्ञात, बाहरी, उद्दंड और अनिष्टकारी हमारे ऊपर धोखे से हमला न कर दें)।

हमें ऐसा लगता है कि जाति व्यवस्था ज्ञात और अज्ञात, जाति के भीतर और बाहर, का भेद थी। जाति से बहिष्कार एक तरह का देश निकाला था। इसने आनुवंशिक जाति का रूप बाद में ग्रहण किया।

जो भी हो, आहार संग्रह के चरण पर अपने और पराये भूभाग की मर्यादा का निर्वाह सभी करते थे। इसका संकेत करने वाली दो कथाएं रामायण में मिलती है। एक है सुग्रीव और बालि की शत्रुता की कथा, जिसमें यह ध्वनित है कि बालि जितना भी बलवान हो, वह सुग्रीव के क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता था और सुग्रीव यदि उसके क्षेत्र में पहुंचा तो उसके जीने मरने की समस्या आ जाएगी। दूसरी है लक्ष्मण रेखा। यह वही सीमा रेखा है जो किसी भी समुदाय के निवास के लिए निर्धारित होती थी। बाहर का कोई व्यक्ति इसमें प्रवेश नहीं कर सकता था। यदि इस सीमा में रहने वाला व्यक्ति स्वयं ही इसका उल्लंघन कर देता है तो वह सुरक्षित नहीं रह सकता। सीता के साथ यही हुआ।

बाड़ की बात तो समझ में आ गई होगी परंतु बांड़ा का अर्थ समझने में तो एक कठिनाई अब भी बनी रह गई है। बाणभट्ट की आत्मकथा में द्विवेदी जी ने इसकी बड़ी रोचक व्याख्या की है। वह संस्कृत के मर्मज्ञ थे, और उनकी व्याख्या का अपना आनंद है। बांड़ा का प्रयोग ऐसे जानवर के लिए किया जाता है जिसका कोई अंग काटकर कहीं गाड़ दिया जाए और उसे खुला छोड़ दिया जाए। अपनी बंधन सीमा से वह मुक्त हो जाता है पर अपने क्षेत्र से संबंध बनाए रहता है।

भोजपुरी में एक कहावत है, बांड़ा बांड़ा जाय, चार हाथ पगहो ले जाय। अर्थात यदि उसे बांध कर रखने का प्रयत्न किया गया तो वह उस रस्सी को भी लेकर चला जाएगा, जिससे उसे बांधा गया था। बांड़ा या तो उस कुत्ते के लिए प्रयोग में आता है जिसकी दुम का एक हिस्सा काटकर गाड़ दिया जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि वह उस इलाके को छोड़कर दूर नहीं जा सकता, दूसरा प्रयोग सांड के लिए आता है, जिसकी पहचान के लिए उसका कान आदि कुछ हिस्सा काट दिया जाता था। वह किसी तरह का बंधन नहीं मानता, किसी के खेत में घुस कर चरने लगे तो भी उसे हांकते समय मारा पीटा नहीं जाता । बाणभट्ट का नामकरण यदि उनके मुक्त स्वभाव के कारण किया गया हो तो आश्चर्य की बात नहीं, बाणभट्ट का आशय यदि धनुर्विद्या में पारंगत रहा हो तो भी हैरानी की बात न होगी, और यदि वाणी का ही भोजपुरी उच्चारण बाणी करते हुए उनका नामकरण वाग्भट के आशय में माता पिता ने किया हो तो भी आश्चर्य की बात नहीं। परंतु बाड़ा का अर्थ कटा हुआ या अलग किया हुआ ही है, यह कहने का दुस्साहस हम अवश्य कर सकते हैं।

हम हैं यहां केवल स्मरण दिलाना चाहेंगे कि सभी रंगों के लिए संज्ञा जल के किसी न किसी पर्याय से मिली इसलिए इसका सीधा संबंध रेखा से नहीं, जल की चमक से है।