#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(
अर्थ की दिशाएं
किसी नैसर्गिक ध्वनि पर विचार करते समय हमारी स्मृति में उससे संबंधित बहुत थोड़े से शब्द ही आ पाते हैं जबकि हम उसके विकास की दिशाओं का भी सही आकलन नहीं कर पाते। कुछ मामलों में हम इस विषय में पूरी तरह आश्वस्त भी नहीं हो सकते कि विचाराधीन शब्द का विकास निश्चित रूप से इसी ध्वनि से हुआ है। उदाहरण के लिए वार या सीमा रेखा, जो अपने अधिकार क्षेत्र के लिए तय की जाती थी, उसका प्रहार और युद्ध के लिए प्रयुक्त ‘वार‘ शब्द से सीधा संबंध है या नहीं। ऐसा लगता है की यह अनुमान सही है। कारण, अपने क्षेत्र की निर्धारित भौगोलिक या कृत्रिम सीमा के लिए ‘मर्यादा’ शब्द का प्रयोग होता था। ‘मर्यादा’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ही है, जिसका रक्षा के लिए जान दी जा सके। सामाजिक व्यवहार में मर्यादाओं की स्थापना बाद की बात है या आहारसंग्रह के चरण पर यह विधान भी था यह हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते, यद्यपि वरुण के पाश में भी यह ध्वनित है। अतः प्रहार और युद्ध के आशय में प्रयोग होने वाला ‘वार‘ शब्द इससे संबंधित हो यह स्वाभाविक ही है । वारण से भी यही ध्वनित होता है।
इसलिए याद दिलाते रहना जरूरी लगता है कि मैं जब कोई सुझाव रखता हूं तो उसका आधार मात्र तार्किक संगति होती है, जिसमें यदा-कदा चूक भी हो सकती है। इस मामले में हमारी स्थिति परंपरागत आचार्यों से अधिक भिन्न नहीं है। वे यह बता रहे थे कि किसी शब्द का निर्माण किस मूल ध्वनि से हुआ है, और उस ध्वनि का क्या अर्थ था और इस विधि से इन युक्तियों को काम में लाते हुए नई परिस्थितियों में कैसे सटीक शब्द गढ़े जा सकते हैं। धातु का अर्थ काफी खुला हुआ था। अतः पुराने शब्दों का प्रयोग कुछ बदले आशय में किया जा सकता था, और किया जाता रहा। संविदा, निविदा, संसद, परिषद, समिति आदि शब्दों को हमने ऋग्वेद से लिया, परन्तु उनका जिस आशय तब प्रयोग किया जाता था, उससे कुछ भिन्न आशय में करते हैं, फिर भी वे इतने सटीक प्रतीत होते हैं, मानो इन शब्दों का निर्माण इन संस्थाओं और भावों के जन्म के साथ हुआ हो।
हम भाषा की उत्पत्ति को समझने के क्रम में यह भी जानते हैं कि किसी शब्द को हम जिस, आशय में प्रयोग करते हैं, वह अर्थ आया कैसे। पर हम नई अपेक्षाओं के अनुरूप नया शब्द गढ़ने का कोई नियम, यह जानते हुए भी कि लोग नई परिस्थितियों में भाषा के सहज बोध से शब्द गढ़ लिया करते हैं, कोई युक्ति, अपनी ओर से नहीं सुझा सकते। हमें केवल यह लाभ है कि हम धातुओं की मदद से कार्यसाधक रूप में समझ में आने वाले अर्थ की तुलना में उनका अर्थ अधिक पारदर्शी रूप में समझ लेते हैं,और साथ ही हमारी पहुंच उस विशाल शब्दभंडार तक भी हो सकती है जिसे देसी कहा जाता रहा है। सच कहें तो यहां आकर देसी, तद्भव और तत्सम का भेद मिट जाता है और विदेशी प्रतिरूपों को समझने में भी मदद मिलती है।
उदाहरण के लिए वार/बार को लें जिसके लिए हम शरीर के बाल का प्रयोग करते हैं । यहां दो तथ्य ध्यान देने योग्य हैं। पहला यह कि इसका प्रयोग वैदिक साहित्य में जानवरों के बाल के लिए हुआ है। कीटज अर्थात् मकड़ी के धागे या रेशम के तार के लिए ‘ऊर्ण‘ का प्रयोग होता था, और मनुष्य के शरीर के बाल के लिए ‘लोम‘ या ‘रोम‘ का और सिर के बाल के लिए केश का, इसलिए कुछ भाषाओं में बाल का हीनार्थक प्रयोग रूढ़ हो गया, कुछ में यह पूंछ के अर्थ में प्रयोग में आने लगा।
दूसरा वार से व्युत्पन्न बारीक, अर्थात् बाल जैसा पतला भाव है जिसका अर्थविस्तार किसी चूर्ण की या पिसी हुई चीज के सन्दर्भ में तो होता ही है सूक्ष्मता के कतिपय अन्य आशयों में भी होता है जैसे नजर, नोक या धार के लिए, पर वार को छोड़ कर दूसरे प्रयोग बोलियों तक सीमित हैं? संस्कृत में इनके लिए तनु, सूक्ष्म, तीक्ष्ण का प्रयोग होता दिखाई देता है । अंग्रेजी में संस्कृत का तनु > टेंडर और थिन बनकर पहुंचता है, भेड़ के बाल के लिए वार या बाल नहीं ऊर्ण या वूल। बाल का अर्थ किसी तर्क से मुड़ा हुआ से आगे बढ़कर गोल या गोलाकार हो जाता है। थिन या तनु पर हम पीछे विचार कर आए हैं कि जलार्थक तन कैसे तन्वन, तन्तु, तांत और तंत्र, तान्त्रिक, तन्त्रिका आ दि का जनन करता है और तर (पानी,आर्द्र) >तार, तर्क, तारक, तारिका, तरीका, तरतीब, आदि का। हर हाल में हमें सूक्ष्मता और महिमा के लिए जल की ओर लौटना पड़ता है। पर हैरानी बारीक के दूरे पर्याय, ‘महीन’, को लेकर होती है जिसका मूल मह है जो महत के लिए प्रयोग में आता है।#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(