Post – 2018-05-15

द#संस्कृत_की_निरमाण_प्रक्रिया
दीवार से परिवार तक

एक बार यह तय हो जाने के बाद कि ’वरिव’, जिसका प्रयोग धन के लिए किया गया है, का आधार जलवाचक ‘वर’ है, हमें आगे बढ़ जाना चाहिए था, क्योंकि जल के पर्यायों से निकले धन संपदा सूचक बहुत से शब्द विचार के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। परंतु हम ’वर’ की विविध गतियों से निकली शब्दावली पर विचार करने के अपने प्रलोभन को रोक नहीं पा रहे हैं।

पिछली पोस्ट में हमने इसका कुछ संकेत भी कर दिया था। ’वर’ वैदिक समाज का अंग बने भिन्न भाषाई समुदायों की अपनी सीमा के कारण ’वर्’ , ’व्र’, ’वृ’, का रूप लेते हुए इतने अधिक शब्दों की सृष्टि करता है की सामान्यतः यह स्वीकार करने में भी घबराहट अनुभव करेंगे ये सभी शब्द उसी मूल से निकले हैं। इसका एक कारण यह है कि इनकी व्युत्पत्ति के लिए हम धातुओं का सहारा लेते रहे हैं और यह शब्दावली किन्हीं इक्की दुक्की धातुओं में सिमट नहीं पाती, इसलिए हमें यह विश्वास नहीं होता दूसरा कोई ऐसा स्रोत हो सकता है जिसमें सभी की व्याख्या किसी एक ध्वनि से की जा सके। यह भाषा पर अधिकार से जुड़ा प्रश्न नहीं है अपितु भाषा की प्रकृति को समझने की समस्या से जुड़ा हुआ प्रश्न है। हमें इसका दूसरा कोई समाधान दिखाई नहीं देता और धातु का सहारा लेने पर इन सभी का अर्थ बाहर से लगे ठप्पे जैसा प्रतीत होता है।

’वर्’ तो अपने अधिकार क्षेत्र में दूसरों के प्रवेश को रोकने अर्थात ’वारण’ के लिए सीमांकन चिन्ह या रेखा ’वार/ बार’ बनकर उसे चिन्हित करने वाली निर्मिति का बोधक बनता है, जिससे हमारी दीवार को नाम मिला है। हम इस ब्योरे में नहीं जाएंगे। संक्षेप में यह बता दें की वार के पहले जो दी लगा है वह उसी बिरादरी का है ने जिसको हम दिवस में पाते हैं। अर्थात चिन्ह, द्योतक। अंग्रेजी वाल में यह लुप्त है। प्रसंगवश यह भी बता दें सीमांकन की यह प्रवृत्ति जानवरों तक में पाई जाती है। गैडा अपने अधिकार क्षेत्र को जगह जगह लीद करके उसे पांवों से फैलाकर चिन्हित करता है। जब हम सप्ताह के दिनों के लिए ग्रहों के साथ ’वार लगाते हैं तो हमारा आशय दिवस या वासर से होता।

यह घेरा आच्छादन का अर्थ ग्रहण करता है और फिर बाल के लिए प्रयोग में आता है। ऊन के लिए प्रयुक्त ऊर्ण की व्याख्या ’ऊर्णु आच्छादने’ कह कर की जाती है, इसे आप जानते हैं, परंतु वार या बाल का भी अर्थ ’आच्छादित करने वाला’ है, इसकी ओर न तो आपका ध्यान गया होगा न ही यह किसी को कोश में मिलेगा यद्यपि वारण वाला आशय मिल जाएगा।

’आ-’ उपसर्ग के साथ ’आवर’ और आवरण का भाव स्पष्ट हो जाता है। नासदीय सूक्त में ’किं आवरीवः’ मैं यही आवर है। ’आवर्त’ बन कर यह लपेटने या लौटने अथवा चक्कर खाने का भाव ग्रहण करता है और फिर बार बार दोहराने या आवर्तन,आवर्तक, आवर्ती, आदि का जनन करता है। परंतु आवारगी के बारे में आप क्या कहेंगे? इसमें गति का भाव प्रधान है या गति के साथ निरर्थक चक्कर लगाने का भाव भी जुड़ा हुआ है, यह तो आप स्वयं तय कर सकते हैं ,परंतु मेरा ख्याल है कि इससे पहले इसका अर्थ इतने मूर्त रूप में आपके समक्ष उपस्थित नहीं हुुआ होगा।

जैसे प्रत्येक निजी क्षेत्र में अवांछित के वारण और निवारण के साथ, प्रिय के स्वागत का भी भाव रहता है वर का अर्थविकास वरण या चुनाव की दिशा में भी हुआ है, इससे वर अर्थात पति े होने की दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त, वरेण्य, वरणीय, वरुण आदि का विकास हुआ है. यहां वरुण का प्रयोग हम जल के देवता के आशय में नहीं कर रहे हैं जिनका भी उद्भव वर अर्थात् जल से ही हुआ है, अपितु उन वन्य अनाजों के लिए कर रहे हैं जिन्हें वरुण प्रघास की संज्ञा दी गई थी।

दूसरे उपसर्गों के साथ यह प्रवर, संवर(ण), विवर, विवर(ण), निवार(ण), का निर्माण भी इसी से हुआ है, इसे आसानी से समझा जा सकता है। परंतु इनमें सबसे रोचक है परिवार, जिसमें ’परि’ परिधि का द्योतक है और वार जो भी परिधि या सीमा का द्योतक था अब उस परिधि में आने वाले जनों का बोधक हो जाता है।
(इस चर्चा को कल भी जारी रखेंगे।)