#विषयान्तर
एक स्पष्टीकरण
श्री सिंहल ने पिछली पोस्ट पर कुछ आशंकाए कीं। उसका जो उत्तर मुझे सूझा संभव है उसमें दूसरों की भी रुचि हो, अतः
गांधी को मनोयोग पूर्वक पढ़ें। एक दिन में एक या दो पन्ने से अधिक नहीं। एक साल तक। सोचते हुए। सभी सवालों का जवाब मिल जाएगा।
पर यदि आप संघी हैं या कम्युनिस्ट हैं तो आप पढ़ेंगे भी तो समझने के लिए नहीं, कमी तलाशने के लिए । दोनों का दिमांग छोटा होता है। एक के लिए मानवता मानवता ऋण हिन्दू है. दूसरे का मानवता ऋण मुसलमान है। एक के लिए गांधी से अधिक सार्थकता जिन्ना की है जिनकी समझ यह कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ शान्ति से नहीं रह सकते। दूसरे के लिए गांधी से अधिक सार्थकता गोलवल्कर की जिनके अनुसार भी हिन्दू और मुसलमान एक साथ शान्ति से नहीं रह सकते। इसलिए आज के एक विवाद में भी कम्युनिस्ट जिन्ना के साथ हैं, प्लेबीसाइट के समय भी थे और अखाड़ा तब भी अमुवि ही बना था। मामूली कर्मकांड को छोड़कर 1947 के बाद कम्युनिस्ट पार्टी मुस्लिम लीग का नया नाम हो गयो, इसलिए हिन्दू की पीड़ा से कम्युनिस्टों को गुदगुदी होती है, वे केवल मुस्लिम खरोंच पर आर्तनाद करते हैं तो मुझे आश्चर्य नहीं होता। किसी भी त्रासदी का जब तक कम्युनल पहलू नहीं उभरता तब तक वे उस पर ध्यान नहीं देते, इस पर भी मुझे आश्चर्य नहीं होता। संघ की (कोश और थानवी जी के हस्तक्षेप के बावजूद ‘की’ ही) सोच में मुसलमान का नुकसान बराबर हिन्दू का हित भी मुझे चकित हुीं करता। गांधी चेतना के इस विखंडन को ब्रिटिश कूटनीति की सफलता मानते हुए इसके विरुद्ध भी लड़ते हैं और मानते हैं कि अशान्ति चाहने वाला जहां भी रहे, अपनों के बीच भी अपने दुश्मन पैदा कर लेगा, इसलिए वह व्यक्तियों से नहीं प्रवृत्तियों से मुक्ति के लिए संघर्ष करते हुैं और इसके लिए संघर्ष करते हुए मर जाने को हार मान कर जीने से अच्छा मानते हैे और ऐसी ही मौत का वरण कर मर कर भी जीत जाते हैं ओर गोडसे मार कर भी हार जाते हैं।
मेरे लिए मानवता का अर्थ है मानवद्रोही ऋण मानवता है परन्तु गांधी के लिए मानवता का अर्थ था मानवद्रोह मुक्त मानवता, जिसमें मानवद्रोही तक के लिए (अपने हत्यारे तक के लिए) जगह है, उसके प्रति घृणा की जगह करुणा है, क्योंकि गांधी की नजर में वह बीमार और दयनीय है और एक बीमार समाज की उपज है। गांधी सत्ता की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे, समाज को व्याधिमुक्त करने का, एक, दूसरों के लिए कल्गनातीत लडाई, लड़ रहे थे। उन्हें केवल मार्क्स समझ सकते थे। उन्हें गांधी के बाद आना चाहिए था । दोनों में इकहरापन है फिर भी दोनों में कोई अप्रासंगिक नहीं हो सकता। मानवता का भविष्य दोनों के सिंथीसिस में है। थीसिस-ेंऐंटीथीसिस-सिंथीसिस। नए प्रयोग अकर्मण्यता और ठहराव के विरुद्ध उसके बाद।