क्रान्तियां सत्ता का परिवर्तन नहीं है जिन्हें एक झटके में पूरा किया जा सके। ये व्यवस्था परिवर्तन हैं, जिनके लिए सत्ता का समर्थन या सहयोग जरूरी नहीं होता। न ही सत्ता बदलने से क्रान्ति की जा सकती है। बलप्रयोग से समाज का दिमाग नहीं बदला जा सकता। इनकी एकमात्र शक्ति अपरिहार्यता है। इन्हें रोका नहीं जा सकता। ये कभी पूरी नहीं हो पातीं, पर इनके प्रभाव से वे भी बचे नहीँ रह पाते जो किसी कारण यह ठान लेते हैं कि वे इनका विरोध करेंगे।एेसा न होता तो कृषिक्रान्ति के हजारों साल बाद दुनिया के बहुत सारे समाज आहारसंग्रह की अवस्था में न रह जाते। क्रान्तियों के भीतर कई तरह की उपक्रान्तियां अपरिहार्य बन कर आती है और उसे सुदृढ़ करती हैं। आज की औद्योगिक क्रान्ति का पहला चरण यान्त्रिक था, दूसरा इल्क्ट्रिकल और तीसरा इल्क्ट्रॉनिक चौथा रोबोटिक होने के कगार पर है। इन चरणों के पूरा होने में बहुत कम समय लगा है क्योंकि गति तेज होती चली गई है। यन्त्रयुग से पहले उपकरण या औजारयुग था जिसमें उत्पादन में व्यक्ति की अपनी प्रतिभा, कौशल, अध्यवसाय और लगन की सक्रिय भूमिका थी इसलिए काम के साथ सर्जनात्मक आनन्द जुड़ा हुआ था जिसे यन्त्र ने नष्ट कर दिया। अब यह खोज, आविष्कार और यन्त्रनिर्माण (टूलमेकिंग) तक सीमित रह गया है ।
पुरुष सूक्त कृषिक्रान्ति (जिसे नवपाषाण क्रान्ति भी कह लिया जाता है पर उसमें अव्याप्ति दोष है जो इसकी उपक्रान्तियों को नहीं समेट पाता) पूर्णता के चरण की रचना है। हम प्रयत्न करेंगे कि इसकी प्रत्येक ऋचा के उस भाव तक पहुंचें जिसको बहुगम्य बनाने के लिए मिथकीय रूपविधान का सहारा लिया गया है और फिर अन्त में समाहार करते हुए उन आन्तरिक क्रान्तियों का संकेत करें जिन्हें इसकी देन कहा जा सकता है।
इसकी पहली ऋचा है
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्॥१
इसमें सहस्र का अर्थ असंख्य है। असंख्य लोग, असंख्य हाथ, असंख्य पांव इस यज्ञ में जुटे हुए है, इसका प्रसार पूरी धरती पर हो चुका, इतना सब होने के बाद भी यह दश अंगुल में सिमटा हुआ है।
इसमें दशांगुलता को समझने के लिए तीन समीकरणों पर ध्यान देना होगा:
१. विष्णु का वामन रूप
२. यज्ञो वै विष्णु:
३. अग्नि: वै विष्णु: ।
त्वमग्न इन्द्रो वृषभ: सतां असि त्वं विष्णु: उरुगायो नमस्य:।
त्वं ब्रहमा रयिविद ब्रहमणस्पते त्वं विधर्त: सचसे पुरन्ध्या ।। २.१.३
यदि मैं कहूं वह अग्नि ही जिससे झाड़ झंखाड़ को जला कर कृषि के लिए जमीन की सफाई की जाती था विष्णु है, वही यज्ञ भी है। आग से आग लगाने का आयोजन (यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवा: तानि धर्माणि प्रथमानि आसन) एक बार लग जाने के बाद इसका तेजी से फैलना विष्णु का लंबे डग भरना है, और आग लगाकर आगे चलकर अग्नि के ही धरती पर उसके अाग के रूप में, तेजस्वी/प्रतिभाशाली व्यक्ति में, प्रतापी व्यक्ति में, ओषाधियों मे, काठ में, पत्थर में अव्यक्त रूप (ऋं.२.१.१), और अन्तरिक्ष में इन्द्र के रूप में और आकाश में सूर्य के रूप में विद्यमान होने के कारण, इसे विष्णु के तीन कदमों में तीनों लोकों को नापने के रूपक में ढाला गया।
उरुगाय का अर्थ है लंबे डग भरने वाला। वह विष्णु जिसके विषय में कहा गया है समूल्हं अस्य पांसुरे, सारा जगत उस विष्णु के पांवों की धूल पर निर्भर है, वह आग बुझन् के बाद की वह राख है जो अग्निदेव या विष्णु के धरती पर बढ़े चरणों से बैदा हुई है। आरंभ में इसी में बीज बोए जाते थे जो झूम खेती में हाल के दिनों तक चलता रहा ।
इस दशांगुलता में विष्णु के वामन रूप की आवृत्ति है मानें या सूर्य के धरती से दृश्य आकार को यह निर्णय आप स्वयं करें । सूर्य ही है जो धरती की परिक्रमा करता है और फिर भी इससे दूर अलग, छोटा सा दिखाई देता है – व्यस्तभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ।। 7.99.3
अन्न ही सबका पालन करता है, वही समस्त (जीव) जगत को संभाले हुए है इसलिए जो पहले था आगे होगा सब इसी में समाए हुए है, यही अन्न पर पलने वाले सभी प्राणयों की दीर्घजीविता का कारण है:
पुरुष एव इदम् सर्यवं यत् भूतं यत च भव्यम्। उत अमृतत्वस्य ईशानो यत अन्नेन अतिरोहति॥। २
इसकी महिमा अपार है, और यह यज्ञ पुरुष या अग्नि उससे भी बड़ा है। इसके एक पाव में संसार के समस्त जीव हैं, और इसका तीन चौथाई ऊर्ध्व आकाश में है। इस ऋचा में और अगली ऋचा में विष्णु के विषय में अन्यत्र जो कुछ कहा गया है उसकी छाया है, (त्रीणिपदा वि चक्रमे विष्णु: गोपा अदाभ्य: । अतो धर्माणि धारयन्।