Post – 2018-01-13

आत्मवंचना के रूप

हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जो बहुतों की नजर में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे बाहर निकलने के जो तरीके अपनाये जा रहे हैं वे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। विचार का स्थान घबराहट ने ले लिया है। बहस गालियों के आदान प्रदान का रूप ले चुकी है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की जिन्हें चिन्ता है उनका हाल यह कि वे अपनी बद्धमूल धारणाओं से असहमति को सहन नहीं कर पाते। वे उसका दमन करने के लिए उनके पास जो सबसे कठोर तरीका है उसे अपनाते और गर्हित भाषा का प्रयोग करते हैं। एसे लोगों को क्या जिसके पास राजशक्ति है, वह अपने से असहमत लोगों के विरुद्ध दंडात्मक तरीका अपनाए तो उसे अनुचित कहने का नेतिक अधकार है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग संयत भाषा और तार्किक रूप में ही की जा सकती है।

२. भारतीय जनता पार्टी का शासन निर्दोष नहीं है, यह पिछले शासनों से कम दोषपूर्ण है। कोई भी शासन निर्दोष नहीं होता। इसके जिन दोषों को गिनाया जाता है वे इसे उत्तराधिकार में मिले हैं। भ्रष्टाचार आज भी इतना व्यापक है कि प्रेस इन्क्लेव के एक मित्र को उसी परिसर में काम करने वाले बैंक में अपने पासबुक के पहले और अन्तिम पन्ने की प्रतिलिपि के सत्यापन के लिए डेढ़ सौ रुपये देने पड़े जब कि यह पत्रकारों की कालोनी है। जन धन योजना में बिचौलियों की लूट से बचाने के लिए सीधे खाताधारक के खाते में देय राशि पहुंचाने का हाल यह है।
३. लाल फीताशाही आज कुछ मामलों में बढ़ी न भी हो तो घटी नहीं है।
४. बैंकों को अदेय कर्जों के कारण तथा दूसरी अपरिहार्यताओं के कारण सरकार को सीमित नोटबन्दी का सहारा लेना पड़ा जिससे जनता को भारी कष्ट से गुजरना पड़ा, कहते हैं इसके कारण मंहगाई, बेरोजगारी के कष्ट भी बढ़े, इसके बाद भी जनता का समर्थन कम न हुआ। इस रहस्य को समझने का प्रयत्न नहीं किया गया। उल्टे बिगत गुजरात चुनाव में कांग्रेस को अपेक्षाकृत अधिक मत मिलने को आसन्न भविष्य में भाजपा के ह्रास के रूप में देखा गया जब कि यह कांग्रेस की सबसे बड़ी पराजय थी। उसने सिद्धान्तहीन, सामाजिक विघटनकारी हथकंडे अपनाए, हिन्दुत्व का कार्ड खेला और ऊपर से किसानों की कर्जमाफी का दांव। िजिस बिजली पानी कर माफी पर अरवि न्द ने दिल्ली लूट ली, जिस कर्जमाफी पर अमरिंदर न पजाब लूट लिया, वह इतने घातक प्रयोगों के साथ मिलने के बाद, इनकंबैंसी के होते बेकार गया, इसे देखने से मुंह इसलिए चुराया गया कि हताशा में दिखा सपना चूर न हो जाय।
४. जनता इतने कष्ट के बाद भी भाजपा का साथ क्यों देती जा रही है इसका जो हल मेरी समझ में आता है वह यह कि चुनाव के समय जनता की शिकायतों पर ध्यान दे तो एक बार भी यह सुनने को नहीं मिला कि हमें या हमारे लड़के को नौकरी नहीं मिली। वे कहते हैं हमारे यहां स्कूल या कालेज नहीं बना, सड़क नहीं है या खस्ताहाल है आदि। उसे जन कल्याणकारी योजनाओं की जरूरत है जो अकेले के दम का नहीं है। उसे पता है कि इस स्तर पर तेजी से काम हो रहा है। मंहगाई के रिटरिक की वह आदी हो चुकी है, उसे विश्वास है जो पैसा वसूला जा रहा है वह ईमानदारी से जनहित पर खर्च हो रहा है।
५. आप समझाते हैं यह अडानी अंबानी आदि को कर्ज में दिया जा रहा है, इसे वह देख नहीं पाती, आप की साख लगातार नकारात्मक रुख के कारण इतनी गिर गई है कि आप पर वह भरोसा नहीं कर पाती। पर सचाई आप भी जानते हैं कि लोकतंत्र बोर्जुआतंत्र है जिसका शासकवर्ग पूंजीपति वर्ग होता है। चुनाव उसके पैसे से लड़े जाते हैं और पर्दे के पीछे से ससद को वह चलाता है। एक जमाना था जब बिरला उनमें प्रमुख थे। मिर्जापुर हाइडिल का चालीस प्रतिशत उसने अपने हैडेलियम प्रोजेक्ट के लिए लँबी अवधि के लिए दस पैसे यूनिट के हिसाब से करार कर लिया, और बाद में पचासगुना लागत मूल्य की बिजली खरीदता १० पैसे की दर से रहा। सरकारी उपयोग के लिए केवल ऐंबेसडर गाड़ियां खरीदी जाती रहीं। प्रतिस्पर्धा के अभाव में मोटर उद्योग का कचूमर निकल गया और देश विदेशी गाड़यों का बाजार बन गया। जनता ने तब भी इस ओर ध्यान न दिया।
६. यदि जनता का विश्वास जीतना है हो बदनाम गली से यार जुटा कर और हुड ़दंग मचा कर यह काम नहीं किया जा सकता। ठोस कार्यक्रम लेकर जाना होगा। आज भी एक काम है जिसका आन्दोलन करके जनता का विश्वास जीता जा सकता है। यह है अंग्रेजी को सभी स्तरों पर गौण और मातृभाषाओं को शिक्षा से लेकर सरकारी कामकाज की और केंद्रीय सेवाओं में परीक्षा और चयन की भाषा बनाने की मांग जिससे पिछड़े और दलित तबकों को भाग्योदय का समान अवसर मिल सके। पर इसमें हंगामाबाजों की शायद ही रुचि हो क्योंकि उन्होंने अपनी संतानों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया है और वे अवसर को दबोच कर अपने जैसों के लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं। हगामा सत्ता के लिए है, जनहित के लिंए नहीं ।