धन-संपत्ति के रूप (2)
संपत्ति
संपत्ति के विषय में एक समय में यह सोचता था कि इसका नामकरण पत्ती के गिरने से उत्पन्न ध्वनि के अनुकरण का परिणाम है। उसी का अर्थ विस्तार सभी वनस्पतियों के लिए हुआ है और उसका अर्थोत्कर्ष संपदा के रूप में हुआ । पत्ती, पत्र, पत्तल, पात्र, पाट, पॉटरी, पैटर्न, पोटली, की श्रृंखला के विषय में मैं आज भी यह मानता हूं इसमें इनमें पत्ती और उससे बने हुए आदिम पात्रों का हाथ है और ऐसा उसी प्राकृतिक परिवेश में संभव है जहां बर्फ नहीं पड़ती थी इसलिए बड़ी पत्तियों वाले पेड़ों की बहुतायत थी और ऐसे पत्ते सुलभ थे जिन पर किसी चीज को रखकर खाया जा सके। भारत में यह सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा बन कि आज भी जीवित है। किसी अन्य देश के विषय में ऐसी जानकारी हमें उपलब्ध नहीं है। इसके पीछे संभव है मेरे पूर्वाग्रह काम करते रहे हों, परंतु पत्तल, पात्र, पॉट, पतीला और पोटरी का ध्वनिगत और अर्थगत अनुक्रम जितना निर्णायक है उतना निर्णायक प्रमाण एक भी भारोपीय भाषा दार्शनिकों ने आज तक नहीं दिया ौर तिनकों को पहाड़ बना कर अपनी मनमानी लादते रहे।
परंतु संपत्ति के विषय में मेरे विचारों में कुछ परिवर्तन आया है। मैं यह तो मानता हूं की पत पानी की बूंद की आवाज है और जल की पत संज्ञा का आधार यही है । सभी वनस्पतियों में रस या आर्द्रता पाई जाती है इसलिए उनका जातीय नामकरण जल के इस गुण के कारण हुआ है। परंतु ऐसी स्थिति में तो पत्ती का भी अर्थ बदल जाएगा। पत्ती जिसमे रस पाया जाता है, न कि वह जिसके गिरने से पत् की आवाज होती है। ऋग्वेद की भाषा में कहें तो को ददर्श प्रथमं संज्ञमानं । कुछ मामलों में संदेह का बना रह जाना भी तार्किक विचार की सीमा में आता है।
अर्थ
अर्थ का अर्थ है किसी लता या वनस्पति को निचोड़कर बाहर निकाला हुआ रस या सारतत्व । यह पहले समस्त खाद्य और पेय के लिए और फिर संपदा के दूसरे सभी रूपों के लिए व्यवहार में आने लगा, परंतु जब हम शब्द का अर्थ कहते हैं तो प्राचीन भाव जागृत हो जाता है, भले हम मूल अर्थ ग्रहण करने की जगह रूढ़ आशय से ही अपना काम चलाते हों। जब हम शब्दों के मूल अर्थ का साक्षात्कार करते हैं या जिस अनुपात में यह संभव होता है उस अनुपात में भाषा एक जीवंत सत्ता बनकर उपस्थित होती है, न कि वर्तनी उच्चारण और भाव का जमाकडा।
ऋग्वेद के समय तक अर्थ और अर्थी – अर्थकामी धन और धनकामना का आशय में चलन में थेः
अर्थमिद् वा उ अर्थिन आ जाया युवते पतिम् ।
रोचक है ऐसे स्थानों पर ऋग्वेद ग्रिफिथ ने अर्थ का अनर्थ करते हुए विश कर दिया है जिससे उन्नत अर्थव्यवस्था का आभास न मिले।
द्रव्य/द्रविण
द्रव्य और द्रविण में द्र/ द्रव इतना स्पष्ट है कि किसी व्याख्या की अपेक्षा नहीं रखता। ऋग्वेद से अपने परिचय के आरंभिक दिनों में मैंने द्रव और द्रविण (विश्वं दिवि यदु द्रविणं यत् पृथिव्याम् ) को धातु गलाने की वैदिक विद्या का प्रमाण मान लिया था। विद्या का पता तो उन्हें था इसके प्रमाण भी ऋग्वेद में है। धातु गलाने वाले को द्रवी कहा भी गया है (विजेहमानः परशुर्न जिह्वां द्रविर्न द्रावयति दारु धक्षत् । । 6.3.4) परन्तु मैने कुछ चूक की थी, यह आभास अब हुआ है। ऋग्वेद में द्रविण धन के विविध रूपों का द्योतक प्रतीत होता है (अस्मे रयिं विश्ववारं समिन्वास्मे विश्वानि द्रविणानि धेहि ।। 5.4.7) और इसलिए इसकी आकांक्षा भी बार-बार व्यक्त की गई है, इसका मूल आशय रस से भरे हुए खाद्य पदार्थों के लिए ही रहा लगता है।
द्रवित होना पसीजने का पर्याय है ही।
रेक्ण
रेक्ण का प्रयोग ऋग्वेद के बाद मेरे देखने में नहीं आया, ऋग्वेद में भी इसका प्रयोग अधिक नहीं हुआ है (ददी रेक्णस्तन्वे ददिर्वसु ददिर्वाजेषु पुरुहूत वाजिना) परंतु अंग्रेजी के रिच, रिचेज, को इसका सजात मान सकते है। हम इसे रेचन से व्युत्पन्न मान सकते हैं जिसका अर्थ जल है।
नृम्ण
नृम्ण का प्रयोग भी वैदिक काल के बाद शायद ही हुआ हो। इसे मैं मनुष्य द्वारा अपने सामर्थ्य उत्पादित धन के रूप में ग्रहण करना चाहता हूं परंतु साथ ही यह नहीं भूल पाता कि नर का अर्थ भी जल है । नर, नारा, नीर, नूर एक ही श्रृंखला के शब्द हैं यद्यपि नर का पुरुष के आशय में प्रयोग होते रहने के कारण जल वाला अर्थ हमारे लिए अपरिचित है। नूर तो फारसी में भी प्रकाश या कांति के आशय में ही बचा रह गया लगता है।
हिरण्य
चालू व्याख्या में हम कह सकते हैं की यह वह मूल्यवान धातु है जिसकी खोज जाती है, पर हर, हरि, हिर सभी जल के ही पर्याय हैं। हीरा या हीरक में भी इसे देखा जा सकता है।
स्वर्ण
स्वः का अर्थ जल है, इसका प्रयोग सूर्य के लिए भी देखा जा सकता है (तपन्अति शत्रुं स्वः न भूमा) अर्ण के विषय में यहां कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। अतः यह जल के लिए प्रयुक्त दो शब्दों से बना हुआ पद है।
कंचन/ कनक
कंचन में भी प्रयुक्त कन् और चन दोनों शब्द जलवाची हैं। कनक में भी कन् की उपस्थिति देखी जा सकती है।
रजत
रजत में भी रज शब्द से हम पहले परिचित हो चुके हैं जिसका एक अर्थ है जल है और दूसरा उसके गुणों वाला श्वेत रंग का चमकने वाला पदार्थ और इसी आशय में इसका प्रयोग चांदी के लिए ऋग्वेद में हुआ है और आज भी होता है।
चंद्र
चंद्र के विषय में यह पहले का आए हैं इसमें चन् और द्र, दो जलार्थक शब्दों का प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद में चंद्रम का प्रयोग लगभग उसी अनुपात में हुआ है जिस अनुपात में हिरण्य का। परंतु इसको भ्रमवश चंद्रमा के आशय में ही ग्रहण किया जाता रहा। मैंने पहली बार इसके बहुवचन रूप तालिका बद्ध करके तुलना करते हुए हमने सुझाया कि चांदी चंद्रम से ही व्युत्पन्न है और वैदिक काल में चांदी का बहुत प्रचुरता से प्रयोग हुआ करता था। वास्तव में रजत शब्द का प्रयोग ईरान से आगे की भाषाओं में अधिक पाया जाता है। तमिल में शब्द के आरंभ में रकार होने पर उच्चारण की सुकरता के लिए अकार का सहारा लिया जाता है और इसलिए अर्जेंटम रजत की देन है।