इतिहास में जगह
राजेन्द्र यादव ने दलित लेखकों और महिला रचनाकारों को जितना खुला मंच दिया, वह उनसे पहले के किसी संपादक ने नही। उन्होंने इतिहास और पुराण की जितनी मुखरता से निंदा की वह भी उनके स्वभाव के अनुरूप था। उनकी पीड़ा यह थी कि यह ब्राह्मणों और क्षत्रियों की महिमागान के अतिरिक्त क्या है? इसमें हम, अर्थात् शूद्र और दलित कहां हैं? उनको एक उपन्यास बहुत क्रान्तिकारी लगा उसमें बड़े प्रभावशाली ढंग से यह चित्रित किया गया था कि कैसे वैदिक चरवाहे दिन में गोरू चराते थे और रात में गायन करते थे, और वे गान ही ऋग्वेद के सूक्त बन गए। उपन्यासकार ने दिल्ली वि.वि. में प्राचीन इतिहास के विभागाध्यक्ष रह चुके दो व्यक्तियों के नाम अपने उपन्यास की ऐतिहासिक प्रामाणिकता के लिए भी उल्लेख किये थे। यादव जी को पहली बार लगा कि शुद्ध आर्य तो यादव ही हैं ।उन्होंने मुझसे उसकी समीक्षा लिखने को कहा तो मैने समीक्षा लिख दी। समीक्षा पढ़ कर उन्हें खिन्न होना ही था। उन्होंने फोन पर कहा, भइ, तुमने तो भुस्स भर दिया। मैने सुझाया समीक्षा को लेखक के पास भेज दें और वह अपने बचाव जो कुछ कहे, समीक्षा के साथ उसे भी प्रकाशित करें। उन्होंने वैसा ही किया, पर बात नहीं बनी। उपन्यासकार इतिहासकार तो था नहीं, जहां तक याद है उसने दिल्ली के इतिहासकारों की मान्यता का हवाला दे कर अपना बचाव किया था।
इसका दुखद पक्ष यह कि यादव जी की रुचि इस रचना के साथ इतनी मुश्किल से इतिहास में पैदा हुई थी, क्योंकि पहली बार इतिहास में अपनी जगह दिखाई दी थी, वह समीक्षा के साथ ही लुप्त हो गई।
हमने इसकी चर्चा इसलिए की कि यह बता सकें कि यादव जी का यह प्रश्न बहुत सार्थक था कि इस इतिहास में हमारी जगह कहां है। इस प्रश्न को इतनी बेबाकी से उनसे पहले यदि किसी ने उठाया था तो उसका मुझे पता नहीं। कोई शहर या देश कितना भी सुंदर क्यों न हो, उससे हमारी आत्मीयता नहीं हो सकती। परंतु उसमें हमारा अपना घर हो – वह झोपड़े से लेकर महल तक कुछ भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता – वह पूरा शहर, पूरा देश हमारा अपना हो जाता है। इतिहास के साथ भी ऐसा ही है।
यहां मैं कुछ बातों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं। पहली यह कि यदि मैने यह मान लिया होता कि शुद्धरक्त आर्य यादव ही हैं तो भी यह झूठी दिलासा से आगे नहीं बढ़ पाता। झूठी दिलासा से संशय पैदा होता है, वह आत्मविश्वास नहीं जो अपनी सही पहचान से पैदा होती है।
दूसरी पाश्चात्य इतिहासकारों ने शूद्रों और आटविक जनों के अपने ठिकानों को नष्ट करके उनकी पहचान को मिटाने का जघन्य अपराध किया और यदि श्रमिकों, दलितों, आटविक जनों को इतिहास में अपनी जगह तलाशनी है तो सवर्णों से अधिक उनकी जरूरत है कि वे उस इतिहास से मुक्ति पाएं जिसमे उनको एक सत्वहीन बनाने वाली जलवायु की उपज बता कर उनको नैसर्गिक रूप से सभी योग्यताओं से शून्य बताकर उनके अपने कृतित्व का सारा श्रेय पश्चिम से आनेवाली एक कल्पित आर्यजाति को दे दिया गया।
तीसरी बात यह कि जिस परंपरागत इतिहास पुराण को ब्राह्मणों की रचना कह कर उससे इतना परहेज किया जाता रहा उसकी अनेक सीमाओं के बाद भी, शूद्रों और आटविक जनों को जितना महत्व दिया गया है, उतना दुनिया के अन्य किसी देश में शासकों द्वारा श्रमिकों और वंचितों को नहीं दिया गया होगा।
चौथी बात यह कि जिन पुराणों को ब्राह्मणों की रचना बता कर कोसा जाता रहा है उनके रचनाकार ब्राह्मण थे ही नहीं। वे आदिम अवस्था से चली आरही गाथा परंपरा से, व्यास परंपरा से जुड़े रचनाकार रहे है। ये आसुरी परंपरा से जुड़े, भृगुवंशी रहे हैं। पुरातन ज्ञान परंपरा के रक्षक और वाहक होने के कारण नष्टप्राय वेद हों या पुराण, इनको संजोने, संभालने, प्रचारित करने में इनकी अग्रणी भूमिका थी। ये यज्ञ, कर्मकांड के विरोधी – हता मखं न भृगवः – और बौद्धिक आंदोलनकारी रहे हैं।
पांचवीं बात यह कि इतिहास में अपनी जगह ऊंची रखने की चिंता के कारण ही ईरान और अरब में अपनी जड़ों पर गर्व करने वाले आर्यों की जातीयता और उनके आक्रमण की कहानियों के ध्वस्त हो जाने के बाद भी पूरे जी जान से उसे पुनरुज्जीवित करने के लिए छटपटाते रहे हैं । हमारा दुर्भाग्य कि ऐसे ही लोगों को इतिहास का निर्माता कहा जाता रहा है। ध्यान रहे प्रो. इर्फान के अभिनन्दन ग्रंथ का शीर्षक है हिस्ट्री इन दि मेकिंग।
और अंतिम बात यह कि इतिहास पकवानों की थाली नहीं है कि फर्मायश पर परोस दी जाय, इसकी खोज करनी होती है। जिन्हें शिकायत है कि इतिहास में उनकी जगह कहां है, उन्होंने इसे खोजने की दिशा में कितना काम किया?