Post – 2017-11-20

बात बढ़ती गई थोड़े में जब कही मैने
सब्र करने का भी अंजाम निराला निकला।

हमारे दुर्भाग्य का सबसे खेदजनक पहलू यह है कि हमारा सबसे प्रबुद्ध माना जाने वाला और देश विदेश में इसी रूप में समादृत बुधीजीवी यह तक जानना नही चाहता कि हम कौन हैं? उसे अपने को, अपने समाज को, इसकी भाषा और संस्कृति को समझने से डर लगता है। वह न उस भाषा को जानना चाहता है जिसमे हमारा इतिहास और अपना वह ज्ञान भंडार जो विविध कारणों से नष्ट होने से बच रहा, सुरक्षित है, न उस भाषा में बोलता, सोचता और लिखता है जिसे भारत के लोग बोलते समझते या जिसमें सोचते और लिखते हैं।

संकीर्णता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि विश्व और समग्र मानवता से चेतना के स्तर पर जुड़ चुका बुद्धिजीवी सिकुड़ कर अपने तक सामित रह जाय? उसकी वि
चार शृंखला की कड़ियां इस तरह जुडती हैं:

1. आज ज्ञान विज्ञान में पश्चिम इतना आगे बढ़ गया है कि उसके सामने हमारा अपना ज्ञान इतना तुच्छ है जैसे पहाड़ के आगे राई। वह राई को फेंक कर पहाड़ को हासिल करना चाहता है।

2. भारत की भाषाएं इतनी हैं पर ज्ञान संपदा में अकिंचन हैं, इनमें से किसी एक का ही अच्छा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और उसमें पढ़ने को कुछ खास मिलेगा नहीं, उसके माध्यम से हम केवल उस भाषाई समुदाय तक ही पहुंच सकते हैं, जिसमें लिखने वाले का सही मूल्यांकन करने वाले तो दूर, सही पाठक तक नहीं मिल पाएंगे, जब कि अंग्रेजी विशेषज्ञ गोष्ठी (forum) की भाषा है। इसके माध्यम से भारत के भी गंभीर विषयों के उच्च स्तर के अध्येताओं और अधिकारी विद्वानों के साथ सीधे संचार संभव है। उनसे नीचे के स्तर के लोगों की स्तरीय ज्ञान, कला और साहित्य में कोई रुचि नहीं होती।

3. सबसे बड़ी बात यह है कि हमारा सारा पुरातन ज्ञान भंडार वर्णवादी पूर्वाग्रहों से दूषित है। उसको जानना हमारी चेतना का विस्तार नहीं करता अपितु दुराग्रही, संकीर्ण, आत्मकन्द्री और पुनरुत्थानवादी बनाता है। विचार सूत्र इस क्रम में आगे बढ़ता है: आत्मवाद> अध्यात्मवाद> ब्रह्मवाद> ब्राह्मणवाद> हिंदुत्ववाद। इस अवचेतन में दर्ज प्रक्रिया से वह कड़ी-दर-कड़ी सचेत न हो, पर इसकी परिणति या अंतिम कड़ी उछल कर विचार श्रृंखला को इस तरह लिप्त कर देती है कि वह अपने से जुड़े सभी सवालों से बच तो सकता नहीं, जुड़ना विवशता है, इसलिए इनसे परहेज़ करते हुए जुड़ता है, जैसे बच्चे किसी गोंजर या घिनौने या डरावने कीड़े को छूने का सहस तो नहीं जुटा पाते और यदि वह खतरनाक हुआ तो डर कर दूर भागते हैं, पर उसे निरीह पाकर अपनी जिज्ञासा को रोक भी नहीं पाते इसलिए किसी लकड़ी के सहारे उससे छेड़छाड़ करते हैं।

इससे व्यथित होकर वह जिस तरह की प्रतिक्रियाएं करता हे उसी को उसका ज्ञान मान लेते हैं और बाकी की जानकारी उसके रूप, रंग, बनावट और चालढाल को उसमें जोड़कर पूरी कर लेते हैं।

जिसे डरावना पा कर डर कर दूर भागे थे, उसके बारे में उनका समस्त ज्ञान यहीं तक सिमट जाता है कि वह बहुत डरावना है। उसे छेड़ना खतरनाक है, बच कर रहना समझदारी है।

जितने गौर से वे निरीह प्राणी के रूप, रंग, गतिविधि को परख चुके रहते हैं, उतना गौर करने का डरावने, घिनौने या खतरनाक प्राणी के मामले में अवसर नहीं मिलता इसलिए उसकी पहचान में भी ये जानकारियां जुड़ती तो हैं, पर वे कुछ धुंधली होती हैं।

हमारा आंतरिक खगोल इसी तरह की अल्पज्ञात, क्षणिक अनूभूत सूचनाओं की अविस्मृत इकाइयों और कुलकों से भरा होता है जिनमें कुछ अधिक दीप्त और एक सर्वाधिक भास्वर सूर्य से आलोकित होता है और इसमें जब सर्वाधिक भास्वर आलोकित होता है तो दूसरे सभी होते हुए भी अदृश्य हो जाते है परन्तु अदृश्य रूप में सक्रिय रहते हैं, अधिक प्रतापी होते हैं और हमारे चेतन या भास्वर को भी प्रभावित करते हैं और उससे आलोकित को भी,पर हम उनकी भूमिका को न समझ पाते हैं न दर्ज कर पाते हैं।

इस भास्वर को हम अपने आंतरिक खगोल में अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र कह सकते हैं। इसके सभी पक्षों को जानने, समझने का हमने प्रयत्न किया होता है इसलिए हम अपने को इस क्षेत्र का अधिकारी व्यक्ति मानते हैं और दूसरे भी हमें इस रूप में सम्मान देते हैं और हमारी जानकारी से प्रभावित और लाभान्वित होते है।

यह है वह मोटा चौखटा या हाशिया जिस में रखकर हम अपने बुद्धिजीवियों की बुद्धि, कार्य व्यापार, पंगुता, समाजद्रोही भूमिका का मूल्यांकन कर सकते है और समझ सकते हैं उस सर्वमुखी गिरावट को जिसके लिए हमारे बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों से अधिक जिम्मेदार हैं और यदि राजनीतिज्ञ जिम्मेदार हैं तो उनके नैतिक ह्रास में, शिक्षा संस्थाओं के प्राथमिक स्तर से ले कर उच्चतम स्तर तक के खोखले हो जाने तक में इनकी ही निष्क्रियता है, और स्वयं इनके पतन में इनकी राजनीति में अधिक रुचि और विषय में कामचलाऊ दिलचस्पी जिम्मेदार है।

कल देखिये क्या कहता है यह सरफिरा साहब
वैसे तो सरफिरों के तलबगार बहुत हैं।।