Post – 2017-11-18

दुर्भाग्य के भी कितने रूप होते हैं !
(असंपादित)

हमारा दुर्भाग्य यह कि हम सभ्यता के जनक बने। गलत कह गया। कितना कठिन है सच को उसकी ऋजुता में देखना और जैसा दीखा वैसा ही बयान करना।
कितना मुश्किल है आदमी का आदमी होना
खुद को समझाना कि इंसान इसे कहते हैं ।।
‘हम’ की जगह ‘भारतीय भूभाग’ कहना अधिक सही था, जिसकी भौगोलिक स्थिति और प्राकृतिक संपदा के कारण विगत हिमयुग की त्रासदी में यह विविध निपुणताओं वाले असंख्य जनों का आश्रयधाम बन गया और और उनकी आपसी रगड़ से पैदा हुई वह चिनगारी जिसे कृषिक्रान्ति कहा जाता है और जिसने कृषि यज्ञ का पूरे भूमंडल में विस्तार किया और नगरसभ्यता की नींव रखी ? कहना चाहिए था हम का मतलब विश्वसमाज है। एक दारुण आपदा में समग्र मानवता के प्रतिनिधियों के लंबे घर्षण से पैदा हुई थी वह चिनगारी जिससे विश्व सभ्यता का जन्म हुआ

यह भी एक दुर्भाग्य ही था कि मानव कल्याण की दिशा में उठाए गए इस कदम का भी इतना प्रचंड विरोध हुआ और किसी न किसी रूप में लगातार होता रहा । इस जिद में अनगिनत मानव समुदायों ने आगे बढ़ने से ही इन्कार कर दिया। वे भी आज तक इसी भूभाग में बचे हुए हैं?

यदि हम कृषिक्रान्ति को वैज्ञानिक सोच और प्रगति का प्रतीक मानें और प्रकृतिवादियों को यथास्थितिवादी या प्रगति के विरोधी और इसलिए प्रतिगामी तो आज प्रगति और विज्ञान ने जिस सर्वनाशी कगार पर पहुंचा दिया है उसमें यह बहस चल पड़ी है कि प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच वाले अधिक सही हैं या प्रकृतिवादी। प्रकृतिवादियों को आज पर्यावरणवादी कहा जाता है और ये उसी तरह टांग अड़ाते हैं जैसे आरंभिक चरण पर प्रकृतिवादियों ने अड़ाई थी।

हम इस विवाद को स्थगित करते हुए केवल यह कहना चाहते हैं कि प्रकृति प्रदत्त संपदापर निर्भर समाज के भीतर ही एक प्रकृतिभक्त और दूसरे प्रकृति पर विजय के लिए कृतसंकल्प के बीच विभाजन ही न हो गया, सनातन वैर भी ठन गया। प्रगतिशील विचार और क्रियाकलाप पुरातनपंथ पर भारी पड़ता और प्रगति के क्रम में बौद्धिक, भौतिक, सांस्कृतिक स्तर पर जिस तरह का आत्मसंस्कार किया वह जैवजगत के रूपांतरण (metamorphosis) से ही समझा जा सकता है।

इस कठोर विरोध के बाद भी विविध रूपों और अनुपातों में प्रकृतिवादियों से लोग उन्नत समाज में जिसे सभ्य कहा गया उसमें अपनी योग्यताओं के अनुरूप सामाजिक स्तर पर खपते गए।

जिस अनुपात में सभ्य समाज में उनका प्रवेश होता रहा है, उसी अनुपात में कुछ विकृतियों का सभ्य समाज में प्रवेश भी होता रहा है या उनके किसी स्तर पर, किसी रूप में जारी रहने दिया जाता रहा।

इनका आकर्षक पक्ष इनका पाखंड और चमत्कार प्रदर्शन रहा है, और इसके कारण कुछ गुह्य-कृत्य साधना के नाम पर चलते रहे हैं, जिनकी प्रकृति आपराधिक तक हुआ करती है। इन समुदायों को आज की भाषा में हिन्दू समाज का अंग माना जाता है इसलिए ऐसी विकृतियों को भी हिन्दू समाज की विकृति मान लिया जाता है। कुछ को हिन्दू समाज में सह्य और कुछ को ग्राह्य और शेष को त्याज्य मानते हुए उनके साथ अविरोध का संबंध बनाए रखा गया।

हिन्दू समाज पर प्रहार करने वाले हिन्दू समाज की सभी विकृतियों का जनक ब्राह्मणों को सिद्ध करते हुए एक ओर तो ब्राह्मणों को अपराधी सिद्ध करते रहे हैं, दूसरी और धार्मिक विस्तार की अपनी कूट योजना के तहत उन्हें अपने में मिलाने के लिए यह समझाते रहे हैं कि वे हिन्दू नहीं है, हिन्दू तो आक्रमणकारी आर्यों की संतान हैं जिन्होंने उनकी संपदा को हथियाकर उन्हें गुलाम बना लिया था।

भले आर्यजाति की अवधारणा और उसके आक्रमण की बात अब अमान्य हो चुकी हो, ऐसे लोग ऐसी कहानियों को जिलाए रखने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहेंगे। इसका राजनीतिक पहलू यह है कि हिन्दू समाज के प्रति विभिन्न कारणों से दूसरे सभी दलों में संवेदनशून्यता और किंचित वैमनस्य घर कर चुका है। केवल संघ जिसका जन्म ही इस संवेदनशून्यता के कारण हिन्दुओं की रक्षा की चिन्ता से हुआ था, और उसके राजनीतिक संगठन (भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी) हिंदू समाज की पीड़ा या इसके क्षरण, ह्रास, अपमान और अधोगति के प्रति संवेदनशील रहे हैं, इसलिए ऐसी विकृतियों को भी उसके द्वारा प्रोत्साहित या समर्थित बता कर राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयत्न किया जाता रहा है और भाजपा की शक्ति बढ़ने के साथ यह बौखलाहट का रूप लेता चला गया है।

यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि वैदिक समाज और ब्राह्मणवाद तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, गुह्याचार का कटु आलोचक रहा है और इनकी साधना करने वालों को यातुधान, निशाचर, मायावी आदि कह कर उनकी भर्त्सना करता रहा है। इसी के कारण उन्होंने अथर्ववेद को वेद की संज्ञा नहीं दी।

राजनीतिक स्तर पर जातिवाद और संप्रदायवाद, अंधविश्वास से समाज को मुक्त करने की दिशा में वह प्रयत्नशील रहा है। उसने कृषिकर्म के अग्रदूत होने का दावा करके स्वयं उससे विरत होते हुए भी उसका लाभ उठाने का भले प्रयत्न किया हो, पर उसकी चालाकी और आडंबर भी जगजाहिर था।

आज उसका विरोध और प्रतिरोध तक सर्वविदित है, जब कि हिन्दू समाज के भीतरी और बाहरी शत्रुओं की योजनाएं कूट, गुह्य और यातुधानी हैं।

बहक गया पर बेखुदी बे वजह भी नहीं, पर जरूरी नहीं कि इसके लिए परदादारी अपनानी पड़े। कहना यह चाहते थे कि हमारे अतीत की व्याख्या का भार उनके ऊपर है जो स्वयं भार बने हुए हैं और सच्चे मन से मानते हैं कि वे इतिहास को जानते भी हैं। जिस भाषा में प्राचीन इतिहास की सूचनाएं हैं, उसका उन्हें पता नहीं। अपने अज्ञान को उचित सिद्ध करने के लिए, हो सकता है, क्षतिपूर्ति के लिए, वे उस भाषा और साहित्य से नफरत भी करते हों और इस नफरत के कारण अपने को अधिक रौशन खयाल भी मानते हों।

हमारा दुर्भाग्य यह कि हमें किसी अदृश्य साजिश के तहत ऐसे विद्वान मिले जिनमें न अपने समाज की समझ है, न लोकाभिमान, न संस्कृति और रीति-नीति से लगाव और जिन्हें अपने अतीत की विराटता और विश्वदृष्टि का परिचय देना भी चाहें तो इसे समझने की योग्यता तक का उनमें अभाव है। कहते हुए पीड़ा होती है, चुप रहने पर अपमानित होना पड़ता है, इसलिए तथ्यकथन अहंकारजन्य न माना जाए, इसे विवशता समझा जाए।

परन्तु सबसे बड़ा दुर्भाग्य था वह समाज जो अल्पशिक्षित था, अशिक्षित था वह किसी रहस्यमय तरीके से अपनी महिमा में इतना सराबोर था कि अपनी भौतिक अधोगति के होते हुए भी, दूसरों से कुछ ग्रहण करने को तैयार न था।

हमारा दुर्भाग्य कि हमने प्राचीन जगत की सबसे टिकाऊ सभ्यता की स्थापना उस चरण पर की जब दूसरे समुदाय बर्बर या अर्ध बर्बर थे इसलिए जब उन्होंने विस्मयकारी वैभव का संग्रह किया तब भी आडंबर के कीर्तिमान तो स्थापित किए पर सभ्यता को अपनी सामाजिकता की पहचान न बना सके। भारत में हुआ इससे ठीक उलट। सभ्यता के उन्मेष में जो कुछ सिरजा और भोगा उसे बहुग्राह्य बनाने का प्रयत्न किया । इसे कल समझेंगे।