Post – 2017-11-15

का छबि बरनूं आपनी

मेरी यातना का दौर माई की पहली सन्तान पैदा होने के बाद आरंभ हुआ। अब तक मैं पांच साल का हो चुका था। दिन महीने की कमी बेसी का हिसाब नहीं। किसी बालक के लिए नवजात शिशु से अच्छा कोई खिलौना हो नहीं सकता। मुझे याद है मेरे एक मित्र की चार पांच साल की बच्ची निर्जीव खिलौनों से तंग आकर कहती, ‘मुझे एक जिन्दी गुड़िया चाहिए।’ उसकी इस टिप्पणी पर हम हंसा करते थे। परंतु मेरे मामले में यह मेरी यातना का कारण बन गया।

सौतेली संतानों को झेलने की यातना के बाद माई को अपनी संतान मिली थी। उसे किसी तरह का कष्ट नहीं होना चाहिए । और इसकी पूर्ति के लिए उसे किसी की गोद से नीचे उतरना नहीं चाहिए। रसोई से लेकर घर के दूसरे झमेलों के समय उसे गोद में लेकर झुलाने टहलाने का बोझ मुझ पर। कुछ ही समय में जाने कैसे उसने ऐसी आदत डाल ली कि उसे गोद में लिए सुस्ताने के लिए खड़ा भी हो जाऊं तो वह रोने लगती थी। गोद में ढोने की यातना तक बात समझ में आती है, परन्तु अगली शर्त यह कि अगर बच्ची रोई तो मेरी खैर नहीं। यह याद नहीं कि उसके रोने पर कभी कोई दंड इस बात के लिए मिला हो कि बच्ची रो क्यों पड़ी, पर इस आदेश की कठोरता ही सिर पर लटकती तलवार जैसी दहशत में रखती।

इस यातना को बीभत्स हास्यास्पदता तक पहुंचाने वाले दो और तत्व थे जिनमें एक हमारी सांस्कृतिक जड़ता भी शामिल थी।

बच्चे या तो नंगे रहते, या भगई पहनते, और फिर काफी छोटी उम्र में ही धोती संभालनी पड़ती।

इसमें भगई का अर्थ और रूप समझने में शायद आपमें से कुछ लोगों के कठिनाई हो। एेसे लोगों को जापान के सूमो पहलवानों के पहनावे से उसका पूरा चित्र ही सामने नहीं आजाएगा, साथ ही यह भी पता चल जाएगा कि कि मल्लयुद्ध की कला जापान में भारत से बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से पहुंची थी।

भिक्षु जिस भगवा को धारण करते थे, वह वास्तव में यही भगई था। अपरिग्रह को बुद्नेध ने किस सीमा तक पहुंचा दिया था, उसका एक उदाहरण बौद्धों का भगवा था और दूसरा यह विधान कि पानी का पात्र तब तक न बदली जाएगा जब तक उसमें इतनी टूट फूट नहीं हो जाती। इसी का एक रूप यह भी था कि श्मशान में फेंके हुए वस्त्र को भी वे अपने उपयोग में ले सकते थे। इसे रोगाणुमुक्त करने का एक ही तरीका था गेरू या हल्दी के रंग में रंगना जिससे इन रंगों में रंगे वस्त्र के लिए गैरिक, गेरुआ, या भगवा (सूर्यवर्ण) हल्दी या टेसू या केसर के रंग में रंगा वस्त्र का प्रयोग होता था।

इसी से केसरिया वस्त्र पहन कर प्राणाहुति देने वालों को सीधे सूर्यलोक (स्वर्लोक/ स्वर्ग) पहुंचने का राजपूती विश्वास जुड़ा है, और संभवत: अग्निसात् होकर सतियों के स्वर्गलोक जाने का विश्वास भी।

सूमो पहलवानों के मल्लयुद्ध और इस बाने की प्राचीनता के विषय में कुछ बातों का निराकरण जरूरी लगता है।

पहला यह कि सूमो पहलवानों की भगई को भगवा कहा जाता था। भिक्षु और प्रचारक इसी वेश में रहते थे और सभवत: भगवान बुद्ध भी इसी वेश में रहते थे। उनके लिए भगवा और भन्ते का प्रयोग हुआ है, बौद्ध साहित्य में भगवान का प्रयोग नहीं हुआ है। इस वस्त्र के कारण ही बुद्ध भिक्षुओं के लिए . स्त्रियों के सम्मुख न जाने, जाना ही पड़ा तो न देखने, देखना ही पड़ा तो न बोलने आदि की शर्तें रखते हैं और सूमो पहलवान भी स्त्रियों से उसी तरह दूरी बनाकर रखते हैं।

दूसरी बात यह कि भारतीय इतिहास में इंपोर्ट का कारोबार करने वाले यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि मल्लयुद्ध भारतीयों ने यूनानियों से सीखा, वह बकवास है। मैं उलट कर यह नहीं कहता कि यूनानियों ने भारत से मल्लयुद्ध से सीखा। कहना केवल यह है कि मल्लयुद्ध का बहुत जीवन्त चित्रण ऋग्वेद में इन्द्र और वृत्र के युद्ध में हुआ है और यदि आप यह जानना चाहें कि योद्धा का हमारा आदर्श क्या था तो फिर सूमो पहलवानों से ही मदद मिलेगी। ऋग्वेद में इन्द्र का चित्रण देखें:
पृथु ग्रीवो, वपोदरो, सुबाहु: अन्धसो मदे, इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते।

इसमें गौर करें तो मोटी गर्दन, बढ़े हुए पेट और मोटी भुजाओं का उल्लेख है। भीम का एक नाम वृकोदर या तोंदवाला है। आगे आप जानें आप की समझ जाने।

और लीजिए इसी में एक सवाल और पैदा हो गया, ‘प्राचीन मूर्तियों में तो हम बुद्ध को लहरिया उत्तरीय से सज्जित, धोती धारे, सहस्रार पद्म पर पालथी मारे बैठे देखते हैं। तुम पुरातात्विक साक्ष्य की अनदेखी कैसे कर सकते हो?’

सवाल तो अनेक पैदा होंगे जिनका जवाब देने की योग्यता ही नहीं, पर यह निवेदन करें कि यह कुछ पेचीदा मामला है। ये प्रतिमाएं इंडोग्रीक प्रभाव में रची मानी जाती हैं। मेरा निवेदन है कि इसे बुद्ध के जीवन से न जोड़ कर अशोक और कनिष्क आदि के द्वारा बौद्धमत को मिले संरक्षण और प्रेत्साहन से जोड़ कर समझा जाना चाहिए जिसमें मठों की समृद्धि बढ़ गई थी और जीवनशैली बदल गई थी। इसमें शिल्प यूनानी है और शैली भारतीय। बुद्ध का लहराता उत्तरीय भारत के परंपरागत चुन्नट का शिल्पांकन है। काया के अनुपात और संतुलन में यूनानी शिल्प है, परन्तु धोती या साड़ी को चुनियाना, एक निश्चित माप पर मोड़ते हुए एंठना अभी आज भी खत्म नहीं हुआ है और यह शैली भारत से यूरोप तक फैली थी। यूरोप में सूती वस्त्र भारत से आयात किए जाते थे और उनमें ही यह चुन्नट पड़ सकती थी।

एक छोटी सी व्यक्तिगत हीनता की स्वीकृति से बचने के लिए मुझे इतिहास की कितनी परतों को खोलना पड़ा, या यूं कहें कि अपने अनुभवों से बाद के ज्ञान और तथ्यों को दूसरों से अलग और अधिक गहनता से समझना पड़ा और इतिहासकार न होते हुए भी इतिहास की पुरानी समझ को बदलना पड़ा तो गलत न होगा।

कहना यह था कि उन दिनों बच्चों की धोती होती तो अलग थी पर उसे बांधने का मुझे शऊर न था। बांधता अपनी समझ से ठीक ही था पर चलते समय सरकने लगती। दुर्गत तब होती जब एक बगल में एक बच्ची को दबाए हुआ हूं, दूसरी बांह से सरकती हुई धोती को ऊपर सरकाते हुए उस अवस्था में पहुंचा देता जहां वह भगई बन कर रह जाती।

याद नहीं किसने इसे गढ़ा था पर कुछ बाद तक मुझे चिढ़ाते हुए कुछ लड़के गाते,
ए भगवान
तुहार भगई पुरान
भगतिनिया के तुमड़ी
बजावें सीता राम।
गाने वालों का नाम याद नहीं। गाना याद है। पर सोचता हूं जिसने भी इसे गढ़ा था क्या उसमें काव्य प्रतिभा मुझसे कम थी? उत्तर नहीं में निकलता है।

इस बानक में चार चांद तब लगता जब नाक वह काम करने लगती जिसके लिए परमात्मा ने उसे बनाया था और मैं दुष्ट मानव के आविष्कृत तरीके का इस्तेमाल करते हुए सांस के बल पर उल्टी गंगा बहाने की कोशिश करता और इसके बाद भी धार न रुक पाने पर बंहोरियों को ही रूमाल की तरह इस्तेमाल को बाध्य हो जाता और इस क्रमिक अभ्यास से बहोरी चीकट हो जाती।

लंबे समय तक और वह भी छोटी उम्र से किसी काम में लगने के कारण कायिक परिवर्तन हो जाते हैं। नाम याद नहीं, पर कुबड़े की सफल भूमिका के लिए एक कलाकार वर्षों बालूभरी बोरियां कंधे पर रख कर कुबड़ा बनने का अभ्यास करता रहा। पोषित (टेम्ड) जानवरों से भिन्न, पालतू (डोमेस्टिकेटेड) जानवरों में कायिक परिवर्तन इसी तरह हुए हैं। हो सकता है सधी चाल की जगह कुछ झूम कर चलने की मेरी आदत में बचपन से ले कर कुछ बाद तक बगल में किसी शिशु को संभालने की विवशता में संतुलन बनाए रखने का भी हाथ हो।

मैं थक कर पस्त हो जाता, चलना मुश्किल हो जाता तो चुपके से चिकोटी काटता जिससे वह रोने लगती और मैं घिघियाकर कहता, ‘भुखाइल बाऽ ।’ यह जुगत काम कर जाती। कुछ समय को आराम मिल जाता और मै उस अवसर का लाभ उठाकर वहां से खिसकने की कोशिश करता । कई बार कुछ समय के लिए खिसक भी लेता, फिर अपने आप हाजिर हो जाता कि कहीं इसे मेरी बहानेबाजी समझ कर वह मुझे दंडित न करे।