आपबीती- जगबीती
हमारे ज्ञान के स्रोत ही हमारे संवेदन और आनंद के स्रोत भी है और वेदना और यातना के स्रोत भी। अंतर मात्रा और प्रकृति के कारण पड़ता है।
यहां प्रकृति से हमारा तात्पर्य स्वभाव या बाह्य से नहीं अपितु तरीके से है। स्नान आनन्द के स्रोतों में एक है। जल और वायु का स्पर्श, स्पर्श के कोमलतम रूपों में आता है, इसलिए जलक्रीड़ा आनंद और उल्लास से भर देती है। किसी ऐसे वाहन की सवारी जिसकी तेजी के कारण वायु हमारे शरीर का स्पर्श करती गुजर, हमें पुलकित कर देती है।
स्नान और मालिश में द्रव के स्पर्श के साथ हाथ का स्पर्श भी जुड़ जाता है। यह कितना आनंददायक होता है इसे किसी शिशु के मालिश के समय के उल्लास और अंगचेष्टा से या नहाने के कठौते में उसकी छपकोरियों से समझा जा सकता है। आनंद द्रव के सही ताप और स्पर्श के सही दबाव और घर्ष पर निर्भर करता है, जिससे हिंसक पशु तक आप के वशीभूत हो जाते हैं पर ताप, दबाव और घर्षण को प्रखर बना कर इसे असह्य और त्रासद भी बनाया जा सकता है और वशीभूत को प्रचंड भी बनाया जा सकता है। अशक्त और निरुपाय के मन में दहशत इस तरह भरी जा सकती है कि वह इस यन्त्रणा से बचना चाहें और ऐसी स्थिति में रहना उसे अधिक सह्य लगे जो ऐसे अनुभव के अभाव में विकर्षक लगे।
मलिनता और स्वच्छता के बीच यह बहुत महत्वपूर्ण विभाजन रेखा है, यद्यपि यह एकमात्र कारण नहीं। इसकी दूसरी भेदक रेखा आर्थिक है और आर्थिक दुरवस्था यदि समाज के किसी वर्ग. वर्ण या स्तर पर प्रखर हो तो हमारा ध्यान सामाजिक पक्ष पर ही अधिक जाता है। जो भी हो, यह एक कड़वी सचाई है कि कुछ स्तरों से नीचे के समाज के लिए पेय जल तक की उपलब्धता एक समस्या होती थी, स्वच्छता के लिए जल लगभग दुर्लभ होता था। पहले की स्थिति बदली है, पर पूर्णत: संतोषजनक नहीं कही जा सकती।
मेरी मलिनता के लिए मेरी मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां अधिक जिम्मेदार थीं । माई जिस तरह नहलाती थी उसमें मैल हटाने से अधिक चमड़ी उतारने और हाथ पांव मरोड़ने की युक्तियों पर अधिक ध्यान रहता था, और मेरी हर संभव कोशिश इस यातना से बचने की होती।
मेरा अनुमान है कि अघोरी पंथ अपनाने वाले साधकों को या तो शैशव मे ऐसे ही दारुण अनुभवों से गुजरना पड़ा होगा. या वे समाज के उन स्तरों से संबंध रखते रहे होंगे जिन्हे कृत्रिम-जलस्रोतों से वंचित€और प्राकृतिक स्रोतों – नदी, नाला, तालाब पर या खेतों में सिंचाई के लिए खुदे कच्चे या पक्के कुएं पर निर्भर रहना होता था, जो अक्सर काफी दूर होते हैं, इसलिए वे चाह कर भी स्वच्छता का निर्वाह नहीं कर पाते और मलिनता में रहने को बाध्य होते है। वे गंदगी से समझौता कर लेते है? तान्त्रिक साधना, शवसाधना में जाने वाला शेष हिस्सा इनमें से आता रहा है। इसमें साधना और ब्रह्मज्ञान गौण और अपनी हीन भावना की क्षतिपूर्ति का संकल्प अधिक प्रबल होता है।
मेरे मामले में इसमें एक और तत्व जुड़ गया था – उपेक्षित होने का बोध।
बच्चों की देखरेख पर ऐसे परिवारों में जिनमें दादी नानी की छत्रछाया न हो, मां तक न हो, बच्चे टूअर कहे जाते थे। इसका प्रयोग मैंने अपने लिए कई महिलाओं से सुना था लेकिन इस समय केवल रामदास तेली की पत्नी का ही चेहरा याद आ रहा है। टूअर बच्चे काे अपना आत्मीय कोई नहीं दिखाई देता। परिजनों द्वारा उन पर इतना कम ध्यान दिया जाता है कि उन्हें लगता है उनका जिन्दा रहना उनकी अपनी जिम्मेदारी है और परिजन उन्हें लाचारी में झेलते हैं। यदि वे न रहें तो उन्हें कोई दुख न होगा। यह बोध मुझमें था।
दो
किसानी अर्थव्यवस्था का एक आत्माभिमानी पक्ष यह था कि वह अपनी उपज, अपने आसपास की उपज से ही अपना काम चलाना चाहता था। वे कितने भी खराब हों, उनकी जगह अच्छी चीज बाजार से खरीदना असम्मान की बात समझी जाती। इसलिए ऊनी के नाम पर भेंड़ के मोटे खुरदरे कंबल के अतिरिक्त किसी अन्य ऊनी कपड़े, शाल या कंबल का प्रयोग करते किसी को नहीं देखा। कंबल बिछाने के काम आता, ओढ़ने के नहीं।
अनेक समाजों में लोगों ने लंबी साधना से शीत को सहन करना सीख रखा था। कहते हैं आस्ट्र्रेलिया के आदिमजन अपने रेगिस्तान की शून्य से नीचे की ठंढ में नंगे सो लेते हैं और कभी हमारे पूर्वज भी निर्वस्त्र रहते थे। हम तन ढकना और आग का उपयोग बहुत पहले सीख चुके थे, इसलिए हमें ठंढ भी लगती थी, पर उतनी नहीं जितनी ऊनी पहनने वालों को लगती थी। (2)
बाबा केवल जाड़े में मिरजई पहनते थे, ऊपर से मोटा रुईभरा और उसके बाद मोटी रजाई के भीतर भी उन्हें ठंढ लगती थी। फिर भी वह मानते थे कि बच्चों को ठंढ नहीं लगती। वह एक ठंढ का एक फिकरा दुहराते थे:
लड़कन के छुअब नाहीं जवान मोर भाई
बुढ़वन के छोड़ब नाहीं, केतनो ओढ़ें रजाई।
इस सूक्ति का दुखद पक्ष यह था कि बच्चों को ठंढ से बचाने पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता था। जिन पर कुछ ध्यान दिया जाता था उनके लिए भी गांती और कुलही से आगे की सुविधा न होती। सुबह शाम कौड़े (अलाव) का सहारा और रजाई में दुबकना। माघ के महीने में बूढ़े और कमजोर चौपाए मर जाते थे। यह तथ्य वैदिक काल से ही सर्वविदित था – अघासु हन्यते गावः । छोटे बच्चे कितने मरते, इस पर किसी का ध्यान न गया, फिर भी यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में बाल मृत्यु दर बहुत अधिक थी और औसत आयु बहुत नीचे थी। संभव है इसमें ठंढ से बचाव की अपर्याप्तता भी एक कारण रही हो। जो झेल गया बचा रहा, फिर भी जीवट पर इसका असर पड़ता ही था।
ठंढ अपना काम करेगी तो नाक भी नाक अपना काम करेगी। कुछ लोगों को भ्रम है कि नाक सांस लेने के लिए बनी है लेकिन मुझे उस छोटी उम्र में ही इस रहस्य का पता चल गया था कि परमात्मा ने नाक बहने के लिए बनाई थी। यह आदमी की शैतानी है कि वह इससे सांस भी लेता है। रही सही कमी मक्खियां पूरा करना चाहतीं । इसको पहले से ही भांप कर परमात्मा ने उन्हे भगाने के लिए दो हाथ भी बना दिए। गाॅड इज रीअली ग्रेट।
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€ कूप, पुष्कर, बावड़ी – जिनके निर्माण पर धन लगा था।। उसे धन लगाने वाले अपनी संपत्ति मानते थे और उसको मनचाहे ढंग से उपयोग करने का अधिकार रखते थे। अब ठाकुर का कुआं ठाकुर का कुआं नहीं रह जाता, वह किसी या किन्हीं की संपत्ति बन जाता है और जिसकी या जिनकी संपत्ति बन जाता है, वे उसका जैसा उपयोग करना चाहें कर सकते हैं। निजी संपत्ति के समर्थकों को इस पर आपत्ति करने का अधिकार नहीं । इस समस्या के सबसे अहम पहलू को न तो प्रेमचन्द ने समझा न अंबेडकर ने। उनका ध्यान केवल सामाजिक पक्ष की ओर गया जब कि सामाजिक का आर्थिक पक्ष अधिक निर्णायक है। उदाहरण के लिए यदि उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी होती कि वे कुआं खोदने का खर्च उठा सकें, अपने मन्दिर बनवा सकें तो न तो उन्हें ठाकुर के कुएं से शिकायत होती, न पंडित के मन्दिर की। मैने अपना जीवन अनुभवों को निकष बना कर उन्ही समस्याओं को कुछ भिन्न रूप में समझा है और इसीलिए बहुमत की चिन्ता किए बिना उन पर ही भरोसा करता हूं।
(2) हम सुनते हैं कि हम पांच हजार साल पहले सभ्य हो गए थे, और मैं यह जानता और मानता हूं हमने पन्द्रह हजार साल पहले सभ्यता की नींव रखी और दुर्दांतता से बचते हुए उस सभ्यता को विकसित किया था जिसमें विश्वसंपदा समस्त जीव जगत के लिए थी, और जिसका सामना उन जीवनदृष्टियों से हुई जिसमें सब कुछ उसके लिए था, जिसमें व्यक्ति या समुदाय, गर्हित तरीके अपना कर भी, सबका संहार करके भी, सब कुछ अपने लिए जुटा लेने को परम उपलब्धि मानता था।