Post – 2017-10-14

आमुख का शेष अंश
(इसे १२ अक्टूबर की पोस्ट के साथ पढ़ा जाय। कृपया मेरे पेज पर मेरा ही लिखा टैग न करें

हिन्दूविहीन मानवता को सेकुलरिज्म की संज्ञा देकर भाजपा को रोकने को अपना एकमात्र लक्ष्य बताने वाले और भ्रष्टता को सेकुलरिज्म के रूप में परिभाषित करने वाले राजनितिक दलों के गठबंधन से मुझे कोई परेशानी नही थी। परन्तु जब बुद्धिजीवियों ने उनके साथ प्रकट हितबद्धता के कारण आकुल विकल स्वर में हाहाकार मचाना आरम्भ किया तो कुछ समय तक समझ में ही न आया कि यह हो क्या रहा है।

प्राचीन इतिहास पर काम करने के कारण समकालीन राजनीति की न तो मेरी अच्छी जानकारी थी, न तैयारी, न योग्यता, न इसमें हस्तक्षेप की इच्छा। पर ध्यान देने पर पाया कि जिन्हें आजतक आधुनिक काल का अधिकारी विद्वान मानता आया था वे तो भाड़े पर आर्तनाद करने वाले नौहाख्वां सिद्ध हो रहे हैं जो मातमी परिवार की वेदना को शतगुणित करके राहचलतों को भी अश्रुविगलित करने का प्रयास कर रहे हैं । तय किया कि इसका प्रतिवाद तो करना ही होगा। ‘ऋग्वेद की परंपरा’ पर चल रहे काम को मैंने यह जानते हुए अधूरा छोड़ दिया कि अधूरे कामों को पूरा करने का ताप और मनोनुकूलता यदि आती भी है तो बहुत लम्बे समय बाद या आ ही नहीं पाती। समकालीन राजनीति के गहन अध्ययन और आधिकारिक ज्ञान के अभाव में भी मुझे अकेले उस पापसी धर्मतंत्र के विरुद्ध खड़ा होना पड़ा जो जबान को रसना बना चुके तत्वदर्शियों को न तब दीखा, न आज दीख रहा है।

यदि चुनाव के परिणामों से सीधे प्रभावित होने वाले राजनीतिक दलों की उसी अवधि की प्रतिक्रियाओं की तुलना साहित्यकारों, पत्रकारों और ऐंकरों की प्रतिक्रियाओं से करें तो पाएंगे कि पहले में अपने प्रतिद्वंद्वी पर सही-गलत आरोप-अभियोग लगा कर अपनी बिगड़ी बनाने कि कोशिश थी तो दूसरे में हाहाकार, चीत्कार और अश्रुप्रवाह। मातमी से अधिक छटपटाहट नौहाख्वा में।

एक ओर सेकुलरिस्ट होने का दावा करने वालों की लीगतांत्रिक हिंदूविमुख सोच, दूसरी ओर संघ की हिंदूवादी और मुस्लिमविमुख सोच। तीसरी ओर कांग्रेस पर हावी हिंदूद्रोही पोपतांत्रिक कार्ययोजना। इस निराशा भरे माहौल में सबका-साथ-सबका-विकास, वंशवाद और कांग्रेस मुक्त भारत के उदघोष के साथ केंद्रीय मंच पर उपस्थित होने वाले नरेन्द्र मोदी के प्रति मेरा आशान्वित होना स्वाभाविक था।

मैं झूठ नहीं बोल पाता। यह जानते हुए भी कि लोग झूठ बोलते हैं, तब तक यह विश्वास नहीं कर पाता कि कोई झूठ बोल रहा है, जब तक उसके काम से ऐसा सिद्ध नहीं हो जाता। यह मानव गरिमा के लिए भी जरूरी है और भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए भी। इसका दूसरा पक्ष यह है कि यदि कोई किसी के कथन को तत्काल झूठ, फरेब, या नाटकबाजी कहने लगे तो उसी के चरित्र पर संदेह होता है कि स्वयं ऐसा हुए बिना वह ऐसा सोच कैसे सकता है. मोदी ने मुझे निराश नहीं किया पर उन पर आरोप लगाने वाले मित्रों ने बार बार निराश किया है । अपने विरोध में वे मनोवैज्ञानिक विकलांगता के शिकार हो गए हैं, इसलिए आज तक उन्हें कोई कोई धनात्मक उपलब्धि दिखाई ही न दी।

नरेन्द्र मोदी को मैं आज भी स्वतंत्र भारत का योग्यतम प्रधान मंत्री मानता हूं। जिस आपातिक स्थिति में उनका उदय हुआ उसके कारण उन्हें इतिहास पुरुष मानता हूं। विश्व के कद्दावर नेताओं में एक मानता हूं। क्यों मानता हूँ यह समझाने के लिए मैंने “भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर” शीर्षक से एक पूरी पुस्तक लिखनी चाही। पचीस किश्तों के बाद फेसबुक की अपरिहार्यताओं के कारण व्यवधान आ गया। इसी तरह लगभग “भारतीय बुद्धिजीवी और भारतीय मुसलमान” शीर्षक से एक लेखमाला आरम्भ की जो भी दस किश्तों के बाद सिरे न चढ़ पाई । अब इन लेखों को इन शीर्षकों से उपखंडों में रखा है और शेष को “विविध प्रसंग” के अंतर्गत, यद्यपि उनमें भी अनेक बार पहले दो विषयों से सम्बंधित सामग्री है।

कोई लेखन सबके लिए नहीं होता। यह खंड भी इसका अपवाद नहीं ।